बाद बारिश के उमेश पंत June 21, 2015 फूल चादर की तरह लाल मिट्टी वाली उस कच्ची सड़क पर बिछे थे। रेंगती हुई चींटियां खुश थी कि बारिश के बाद ही सही उन्हें… Continue Reading
सुबह की सैर जैसे सपना हो गई हो उमेश पंत June 20, 2015 बाद बारिश के सुबह की सैर जैसे रात का सपना हो गई थी.. ज़मीन अभी भी नम थी.. जैसे कभी कभी उसकी आंखें हो जाया… Continue Reading
राहे सुकून है संजय वन उमेश पंत April 23, 2015 उस जंगल की परिधि से लगी छोटी-बड़ी इमारतें ऐसी लग रही थी जैसे किसी शांत सी झील को कंटीले तार-बाढ़ से घेर दिया गया हो.… Continue Reading
चुनावी दिल्ली में एक बीमार सा दिन उमेश पंत April 8, 2014 सीने में इन दिनों कभी कभी तेज़ दर्द होता है.. लगता है की पेट के अन्दर कोई जा बैठा है जो कभी कभी फेफड़ों को जोर से… Continue Reading
जेएनयू की होली – 5 अनुभव उमेश पंत March 18, 2014 तो इस बार की होली जेएनयू में खेली। बाबा गंगनाथ मार्ग से जेएनयू के गेट की तरफ बड़ते ही माहौल एकदम बदल सा जाता है।… Continue Reading
इनक्रोचमेंट, डिमोल्यूशन एंड डिस्प्लेसमेंट उमेश पंत May 21, 2010 सुबह सुबह नौएडा मोड़ से गुजरते हुए सड़क के किनारे देखा तो वहां मां दुर्गा की वो मूर्ति नहीं थी, ना ही नटराज की। वहां… Continue Reading
एक दोस्त का प्रोफेश्नल हो जाना उमेश पंत April 22, 2010 कई बार अपने आसपास लोगों को निहायत प्रोफेश्नल होता देख डर लगता है। समझ नहीं आता कि क्या ज्यादा जरुरी है। इन्सानी भावनाओं को जिन्दा… Continue Reading
क्या आपका फोन चोरी नही हुआ उमेश पंत November 24, 2009 अरे यार फोन चोरी हो गया। घर आकर बताया तो भाई लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर आई। पहली बार जब घर आकर बताया था… Continue Reading
और तीन की टिकट नहीं रही……. उमेश पंत November 5, 2009 दिल्ली की बसों में एक और बड़ा दर्दनाक वाकया हुआ। बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इस हादसे में 3 रुपये की… Continue Reading
ईद मुबारक….. उमेश पंत September 21, 2009 हम ईदगाह पढ़ते बड़े हुए। और जब जब हामिद के चिमटे ने उसकी दादी की आंखें को खुशी से सराबोर कर दिया हमें लगा कि… Continue Reading
भीड़ भरी बस और वो उमेश पंत September 11, 2009 दिल्ली की भीड़ भरी बसों में रोज कई वाकये होते हैं। मसलन मोबाईल या पर्स चोरी हो जाना। पर इन वाकयों को अंजाम देने वाले… Continue Reading
एक कहानी सा कुछ उमेश पंत September 9, 2009 सड़क पर बसें रफ्तार से आ जा रही हैं। बस स्टॉप पर भीड़ तिलचट्टों के झुंड सी बिखरी है। एक बस आती है। रुकती है… Continue Reading
एक और भड़ास जैसा कुछ उमेश पंत March 20, 2009 हम एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं जहां पे आपको बोलने सुनने और यहां तक कि सोचने के लिए भी एक दायरा तय… Continue Reading
होली है तो पर यहां कहां उमेश पंत March 9, 2009 कल होली है तो पर होने जैसा कुछ नजर नहीं आया अब तक। हर त्यौहार की तरह इस होली में फिर घर की याद हो… Continue Reading
यमुना किनारे विचरने के बहाने उमेश पंत February 2, 2009 [dropcap]न[/dropcap]दियां हमेशा उस जगह को एक संस्कृति देती हैं जहां वो बह रही होती हैं। नदियों के साथ एक पूरा जीवन और उस जीवन के… Continue Reading
समय का कैक्टस और कमल का फूल उमेश पंत December 10, 2008 कई बार ना जाने क्यों लगता है कि इस शहर में एक बंजर सी उदासी भरी पडी है। और जब जब ये लगता है तो… Continue Reading