चुनावी दिल्ली में एक बीमार सा दिन

(Last Updated On: April 3, 2023)

 सीने में इन दिनों कभी कभी तेज़ दर्द होता है.. लगता है की पेट के अन्दर कोई जा बैठा है जो कभी कभी फेफड़ों को जोर से पकड़ लेता है और निचोड़ने लगता है.. घर के बाहर टूटी-फूटी सड़कों में बहुत सारी धूल है और पास में एक प्राइवेट अस्पताल.. हरे रंग के शीशे से बना बड़ा सा अस्पताल.. मैं अन्दर जाता हूं.. रिसेप्शन पर बैठी गाढ़ी लिप स्टिक वाली लडकी मुझसे तीन सौ रूपये यूं निकलवा लेती है जैसे मैंने उससे कभी उधार लिए हों.. उन रुपयों के बदले वो मुझे  एक अदना सा पन्ना देती है … पन्ने पर उनका लेटर हेड और उसके नीचे मेरा नाम लिखा है. अस्पताल बिल्कुल खाली है .. जैसे शोर शराबे से भरी गली के बीच वहां सन्नाटे देखने के पैसे लगते हों..डॉक्टर कुछ देर बाद आता है… वो कुछ मशीनी सवाल करता है… ५ दिन की दवा देता है… मेरी आशंकाओं को अस्पताल के सन्नाटे में बिखेरकर वो चुप हो जाता है.. मुझे उसपर भरोसा नहीं होता. मैं परचा लेकर वापस लौट आता हूं… डॉक्टर के बोले गये तकरीबन हर एक शब्द के लिए यही कोई २० रुपया चुकाकर…

 अब मुझे दूसरे अस्पताल जाना है.. सलेक्ट सिटी वॉक के पास .. वहां ताउजी एडमिट हैं.. महरोली टर्मिनल से क़ुतुब मीनार तक की रोड पिछले ३ महीने से खराब है.. वो कहते हैं, बन रही है.. हवा की जगह फेफड़ों में धूल भर रही है… ऑटो वालों के लिए रोड खराब होना सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह है… एक साथ ५ सवारी बिठाकर वो महरोली टर्मिनल से क़ुतुब मीनार तक छोड़ने के ३० रूपये बना रहे हैं… गड्ढों से गुजरकर, धूल से सनकर, सवारियां मुश्किल से ५०० मीटर जाने के ५ रुपया देकर अपने अपने दफ्तरों या काम के ठिकानों तक जा रही है… लोग बताते हैं कि पिछले तीन महीने से ये दिनचर्या जारी है…चुनाव होने वाले हैं .. जिसके वक्त में सड़क बनेगी श्रेय उसी को जाएगा… अभी किसी का वक्त नहीं है… जनता को सड़क चाहिए.. जनता का वक्त चुनाव हो जाने और किसी की भी सरकार बन जाने के बाद भी आ पायेगा क्या?

 क़ुतुब मीनार से फिर एक ऑटो करता हूं… ऑटो आगे चलकर ट्रेफिक जाम में रुकता है…और एक नन्हा सा बच्चा खरगोश की तरह फुदकता हुआ ऑटो पर लपकता है.. उसके हाथ में कुछ पर्चे हैं… उनपर क्या लिखा है शायद ही उसे मालूम हो… “अबकी बार मोदी सरकार”…. बच्चा ‘ले लो.. ले लो’ की जिद करता है… मैं उससे पूछता हूँ कितने पैसे दे रहे हैं है वो…. वो अपनी गड़मड़ भाषा में बताता है… १ रूपये में १० पर्चा… या ऐसा ही कुछ… एक बच्चा जिसे पढ़ना भी नहीं आता इस बात का प्रचार कर रहा है कि किसे वोट देना है.. ऑटो आगे बढ़ जाता है.. ऑटो वाला बच्चे के दिए सारे पर्चों को सड़क की धूल के हवाले कर देता है.. ऑटो उन्हें कुचलता हुआ आगे निकल जाता है.. ऐसे कई कागज़ के टुकड़े सड़कों में बिखरे पड़े हैं… मुझे उन पन्नों में अपने तीन सौ रूपये नजार आते हैं… बर्बाद होते हुए..आगे कई बच्चे आपस में लड़ रहे हैं .. उनके हाथों में अलग अलग पार्टियों के पर्चे हैं… अपने अपने हिस्से के ऑटो में जाने और फाड़ या फेंक दिए जाने को आतुर…

आगे बढ़ते  हुए कई टेम्पो नज़र आते हैं जो पार्टियों के रंग में रंगे हैं.. ऑटो वाला बताता है की एक दिन का कोई हज़ार रुपया मिल जाता है पार्टी के झंडे बैनर टेम्पो या ऑटो में लगाने का…

कुछ आगे बढ़ने पर एक भव्य काफिला जा रहा है .. बीच बीच में कुछ खुले ट्रक हैं जिनमें झांकी नुमा नुमाइश हो रही है.. कुछ लिपे पुते बच्चे भगवानों की शक्ल में बैठे हैं.. (फिर से बच्चे .. कई सारे बच्चे).. ट्रक के कोने में एक साध्वी सा वेश धरे महिला माइक पर भजन गा रही है.. भजन आसाराम के बारे में है.. आसाराम जिसे  बलात्कार के आरोप में जेल हो चुकी है..उस ट्रक के आगे और पीछे कई सारी गाड़ियां है.. छोटी.. बड़ी, हर तरह की.. उन गाड़ियों में कई सारे लोग हैं.. छोटे बड़े.. हर तरह के.. कुछ पैदल भी हैं.. (मुझे सब पैदल नज़र आते हैं).  बच्चे,बड़े कई सारे पर्चे बाँट रहे हैं, पर्चे जिनमें वर्तनी की गलतियां हैं और तथ्यों का अभाव, जिनमें लिखा है की कैसे उनके आसाराम बापू को साजिश के तहत फसाया गया है.. कि वो निर्दोष हैं.. कुछ हाथ से लिखे बैनर भी बनाए हैं .. जिनमें लिखा है .. “यौन हिंसा रोको .. बलात्कार रोको..”.मुझे हंसी आती है.. मेरे दिमाग में कई तरह के बलात्कार एक साथ हो रहे हैं.. ऑटो आगे बढ़ जाता है एक बलात्कारी की वंदना में भजन गाती एक लडकी की मशीनी आवाज़ को गर्द भरी हवा में पीछे धकेलते हुए..

     मैं अस्पताल पहुचता हूं.. ताउजी दिल्ली से तकरीबन ५०० किलोमीटर दूर उत्तराखंड के एक गाँव में बीमार पड़े थे.. उस गाँव में जहां अब तक कोई अस्पताल नहीं है.. वहां से वो उस कस्बे में लाये गए  जहां एक सामुदायिक अस्पताल तो था पर वहाँ बीमारी से लड़ने की कोई व्यवस्था नहीं थी.. कुछ दिन वहां स्थिति बिगड़ने के बाद उन्हें हल्द्वानी लाया गया.. हल्द्वानी में उन्हें दो दिन में ९ यूनिट खून चढाया गया… डॉक्टर खून चढ़ाते गए और वो मल द्वार से निकलता रहा… जितने यूनिट खून चढ़ा उतनी बार किसी और से खून उधार लेना पड़ा.. और साथ में अस्पताल ने हर यूनिट के ६०० रूपये अलग से भी मांगे.. हर बार ५० रूपये उस ब्लड बैंक वाले ने चाय पानी के नाम पर झटक लिए जहां खून दिया गया… ताउजी के दो जोड़ी कपड़े अस्पताल के कर्मचारियों ने धर दबोचे… दो दिन में तकरीबन ५० हज़ार निपटा लेने के बाद डॉक्टर ने उन्हें दिल्ली के गंगाराम अस्पताल रिफर कर दिया.. गंगा राम में एक दिन के आईसीयू में रखने के ५० हज़ार रूपये मांगे गए जो देना उनकी सामर्थ्य में नहीं था.. और उसके बाद पीएसआरआई की ओर वो एम्बुलेंस मोड़ दी गई जो हल्द्वानी के अस्पताल से ४ हज़ार रूपये में मुहय्या कराई गई… ३ हज़ार रूपये उस अटेंडेंट ने अलग लिए जो एम्बुलेंस के साथ आया…मरीज की  ‘देखभाल’ करने के लिए..

 यहां ताउजी अभी दो दिन पहले ही एडमिट थे… उन्हें डिस्चार्ज कर दिया गया था… पर सुबह सुबह उन्हें फिर से अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा.. दो दिन पहले ही अस्पताल में एक कमरे की कीमत ३६०० रूपये थी… भाई बताता है कि आज उसी कमरे के ४००० मांगे गए हैं..  २ ही दिनों में ये ४०० रूपये किस खुशी में बढ़ा दिए गए इसका जवाब देने वाला कोई नहीं है … नेता अपने अपने चुनाव प्रचार में व्यस्त है.. बच्चे रंग बिरंगे पर्चे सड़कों पर बहा रहे हैं… मेरे भाई ने पिछले दस दिनों में अब तक तकरीबन एक लाख रूपये अस्पताल को चुका दिए हैं.. खर्चे अभी और हैं.. चुनाव प्रचार अपने चरम पर है… गलत बात है बीमारी में कोई पैसे का हिसाब लगाता है क्या.. ? पर तब क्या करें जब पूरा देश ही बीमार हो..

ये एक छोटा सा घेरा है जिसे समझना बहुत आसान है पर जिसका कुछ हो नही सकता… सड़कों पर गड्ढे और धूल, उन सड़कों से लगी सब्जियों की दुकानें. उन दुकानों के बीच एक महंगा अस्पताल.. अस्पतालों में ढीली होती हमारी जेब और पानी के भाव पैसे बहाकर जारी चुनाव प्रचार का अपने चरम पर होना…

 अगर अब भी ये बात समझ में नहीं आती तो हम, आप और देश बीमार और बीमार होता रहेगा और अस्पताल महंगे और महंगे होते रहेंगे… जाइए किसी को भी वोट दे आइए.. भाड़ में जाए देश आपकी बला से..

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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