वक्त की पटरी और यादों के बेनाम स्टेशन

Mumbai Diary 11 (July 2012)

अभी अभी कांजुरमार्ग स्टेशन के पास पूरब से पश्चिम की ओर जाने वाले पुल पे कुछ वक्त बिताया। वक्त के साथ साथ पुल के ठीक नीचे बीतती रेलगाडि़यां थी जो अलग अलग ट्रेक पर अपनी अपनी गति से आ जा रही थी। जैसे पटरियां वक्त हों और हर रेलगाड़ी अलग अलग लमहा। जैसे हर लमहा अपने अपने हिस्से के वक्त में गुजरता है और अन्ततह जिन्दगी नाम के एक लम्बे सफर का हिस्सा हो जाता है, वैसी ही तो होती है हर रेलगाड़ी… जैसे जिन्दगी के सफर में कई कई बार कई लमहे यादों के स्टेशन पर ठहर जाते हैं, ठीक वैसे ही रेलगाडि़यां भी तो ठहरती है अपने अपने स्टेशनों पर….फर्क इतना है कि असल जिन्दगी में यादों के उन स्टेशनों के कोई नाम नहीं हैं…..उन तक पहुंचने की कोई वजहें या कोई नियत समय नहीं है। यादों के वो स्टेशन कभी भी, कहीं भी और कितनी ही बार वक्त नाम की उस पटरी पर आपको मिल सकते हैं…. और आपको भ्रमित कर सकते हैं कि आपको उन स्टेशनों पर उतरना भी है कि नहीं… खैर…..

परसों मुम्बई में दूसरा जन्मदिन मनाया। अपने केक के इर्द गिर्द पिछले साल के बरक्स इस साल कुछ नये चेहरों को दोस्तों के रुप में देखकर खुशी हुई।  वक्त बदलने के साथ साथ कुछ चीजें बदलती हैं, और कुछ बढ़ती हैं। रिश्ते बढ़ने वाली चीज़ों में से हैं। जो सब कुछ सही रहे तो वक्त के साथ गुणात्मक और संख्यात्मक दोनों तरह से बढ़ते चले जाते हैं। और हालात सही ना भी हों तो रिश्ते घटते नहीं। वो खराब हो सकते हैं, खत्म नहीं हो सकते।  मुम्बई के साथ मेरा रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है। वो अब जब बन चुका है तो बन चुका है।

मुम्बई की सड़कों के बारे में जो पूर्वाग्रह थे वो धीरे धीरे खत्म हो रहे हैं। कुछ दिनों पहले हीे दिल्ली जाना था। हमारी टैक्सी मुम्बई सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन पर ट्रेन छूटने के निर्धारित समय से कोई दो घंटा पहले पहुंच चुकी थी। वक्त काटने के लिये टैक्सी वाले को कहकर, मुम्बई टाउन की सड़कों में यूं ही बेवजह चक्कर लगाये तो ये पूर्वाग्रह कुछ कम सा हुआ था। कोलाबा, चर्चगेट, मरीन ड्राईव, प्रभादेवी, इन सारे इलाकों की सड़कें मुम्बई की आम सड़कों से बिल्कुल अलग हैं। सबअर्ब और टाउन, इन दो भागों में बंटे मुम्बई के सबअर्बन इलाके की सड़कें और बसावट दोनों ही ऐसा महसूस कराती हैं जैसे आप किसी अविकसित कस्बे में पहुंच गये हैं। लेकिन टाउन वाले ये इलाके आपकी इस धारणा को बदलने लगते हैं। वहां की सड़कों और सड़कों के दोनों ओर बनी साालों पुरानी इमारतों में एक अजीब तरह का आकर्षण है।

फिर मुम्बई लौटकर इस बीच थाने की तरफ जाना हुआ तो लगा कि किसी भी बात का सामान्यीकरण करना कितना गलत होता है। किसी बात के जनरलाईजेशन से पहले ही अपना जनरल नौलेज बढ़ा लिया जाये तो कई भ्रामक तथ्य दुनिया में आने से बच सकते हैं। थाने में दिल्ली की सड़कों सरीखी चौड़ी, साफ सुथरी और सुन्दर सड़कों को देखकर पिछली मुम्बई डायरियों में मुम्बई की सड़कों के बारे में जितना भला बुरा कहा है उस पर जरा ज़रा अफसोस हुआ। हांलांकि वो सच का एक पहलू था, जिसे देखकर कोफ्त होती है। और ये दूसरा जिससे ज़रा राहत मिलती है।

मुम्बई शहर का एक खास चरित्र इन दिनों समझ में आया। मुम्बई के केन्द्रीय इलाकों मसलन बैंड्रा, कार्टर रोड, जुहू, अंधेरी वगैरह में रहना धीरे धीरे इतना महंगा होता चला जा रहा है कि आम आदमी की पहुंच इससे बाहर होने लगी है। ऐसे में जो लोग बाहर से आ रहे हैं और यहां आकर अच्छा पैसा कमा रहे हैं या तो वो ही इन इलाकों में किराया देकर रहने की हैसियत रखते हैं, या फिर वो जिनके घर यहां पहले से बने हैं। पुराने घरों को, उनके मालिकों के साथ सौदा करके बिल्डरों ने अपने कब्जे में कर लिया है। इन घरों के मालिकों को बिल्डरों ने मोटा पैसा दिया है। तरीका ये है कि आपसे आपका ही घर खरीद लिया जायेगा, फिर उसपर एक बहुमंजिला इमारत बनेगी जिसपे कई गुना महंगे दामों में कई नये लोग रहेंगे। जब तक घर बन रहा होगा आपको एक अच्छी खासी रकम जो मासिक पचास हज़ार से कम नहीं होगी, हर महीने दी जायेगी। इमारत बन जाने के बाद बदले में आपको एक नया नया बना अच्छी सुविधाओं वाला फ्लैट मिल जायेगा और बिल्डर को उस घर के बदले उस जगह पर ऐसे ही कई नये फ्लैट। और इन फिर इन फ्लैट्स की कीमत इन बहुमंजिला इमारतों की तरह आसमान छूने लगेगी।

घरों को फ्लैट्स में तब्दील किये जाने की इस घटना में यहां का आम मध्य वर्ग इन केन्द्रीय इलाकों से पलायन करने को मजबूर है। ऐसे में कम पैसे वाले लोग धीरे धीरे शहर के किनारों की तरफ बढ़ रहे हैं और ज्यादा पैसे वाले लोग धीरे धीरे शहर के केन्द्रीय इलाकों की तरफ। ये एक अदृश्य सा परिवर्तन है, जो मुम्बई में लगातार जारी है। जिसपर किसी की नज़र नहीं जाती। किसी को यहां इतना वक्त ही कहां है।

इतिहास के कोनों में नज़र डालें तो पता लगता है कि मुम्बई सात बिखरे हुए टापुओं को आपस में जोड़कर बनाया गया एक शहर है, कभी एक टापू से दूसरे टापू तक पहुचने में नावों का सहारा लिया जाता था। पर धीरे धीरे इनकी बिखराहटों को सड़कों और रेलवे लाईनों ने जोड़ दिया। लेकिन अब फिर से मुम्बई दो अलग अलग टापुओं में विभाजित हो रहा है। एक जहां मुम्बई का आम निम्न मध्य वर्ग और निम्न वर्ग बस रहा है और दूसरा जहां पैसे वाला तपका, पूंजी के बल पर तमाम संसाधनों का भरपूर प्रयोग करता हुआ। भेदभाव का एक अदृश्य सिलसिला जो मुम्बई की बसावट को पूरी तरह बदल देगा। जिस बदलाव के केन्द्र में पूंजी होगी और हांसिये पर यहां का आम आदमी।

मुम्बई लोकल भी मुम्बई और इसके आस पास रहने वाले लोगों की रहने की वरियताओं में  अपना अहम योगदान देती है। आप अगर अंधेरी के किसी कोने में रेलवे स्टेशन से कहीं दूर रहते हैं और आपको रोज माना कि बैंड्रा काम पर जाना है तो आपको दो तरह से नुकसान है। एक तो ये कि आपको रहने के लिये ज्यादा पैसे खर्च करने होगे और दूसरा काम पर जो पहुचते-पहुचते आप ट्रेफिक के पाश में फसेंगे और आपका रोज औटो पे होने वाला खर्च भी बढ़ जायेगा। ऐसे में लोगों के पास बेहतर विकल्प ये है कि वो औफिस से दूर ही सही पर स्टेशन के पास किसी ऐसे इलाके में रहें जहां उन्हें सस्ते में रहने को मकान मिल जायें और जहां से ट्रेन की कनेक्टिविटी भी अच्छी हो। मतलब ये कि यहां के लोग सड़कों से जुड़े इलाकों के बजाय रेलवे लाईन से जुड़े इलाकों में रहना ज्यादा पसंद करते हैं, चाहे वो इलाके अपेक्षाकृत दूर दूर ही क्यों न हों।

खैर इस बीच एक रोचक बात और पता चली कि 1996 से पहले मुम्बई के प्रचलित नाम बौम्बे के पीछे पुर्तगालियों की अहम भूमिका है। पुर्तगाली भाषा में बोम बाई का मतलब होता है गुड बाई। माना जाता है कि यहीं से बौम्बे शब्द उपजा होगा। हांलांकि इस बात पर मतभेद भी हैं। खैर फिलवक्त हमें उन मतभेदों से कोई खास मतलब नहीं है। अगली बार डायरी में कुछ नया होगा इसी उम्मीद के साथ बोम बाई…….

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