बाद बारिश के

(Last Updated On: April 3, 2023)

फूल चादर की तरह लाल मिट्टी वाली उस कच्ची सड़क पर बिछे थे। रेंगती हुई चींटियां खुश थी कि बारिश के बाद ही सही उन्हें नयी सलवटें नसीब हुई. गिलहरियां आहटों का रास्ता काटती हुई सी फुदक कर कहीं दूर ओझल होती रही थी. मोर अपने पंख फैलाए धूप की अचकनें पहनकर जंगलों में खो रहे थे. दूर कहीं तितलियां भी थी जो टहनियों की पत्तियों से दोस्ती बढ़ाने में मशगूल थी. हवा आज देह को झुलसाने पर आमादा नहीं थी.. मौसम बैठा तो गर्मी की खँडहर सी दीवार पर था पर दूर कहीं सर्दियों की मखमली घास की तरफ टकटकी लगाए देख रहा था.

वो अपने अतीत की उतरनों को दुनिया के तमाम दृश्यों पर रेंगती अपनी आखों पर अब भी लादे बैठा था. आंखें उस बोझिल अतीत के बोझ से थक रही थी. उन्होंने अपने हिस्से में थकावटों का एक अंतहीन सिलसिला समेट कर रखा था. वो चाहता तो उस सिलसिले को किसी भी वक्त ध्वस्त कर सकता था. पर उसे कहां पता था कि वो चाहता क्या है  ?

तितलियां उसे उदासियों की गंध को एक फूल से दूसरे फूल पर लाद आती बदनीयत जीव लगने लगती. उसे लगता कि गिलहरियां अपने दांतों में दुनियाभर का दुःख दबोचे उसके रास्ते में बिखेर देती हैं इन दिनों . उसे उनकी आंखों में अपने लिए किसी अजनबी वजह से पनपा बेइंतहां बैर दिखाई देता. और  खुद अपनी आंखें उसे खुदको ऐसे ताकती महसूस होती जैसे दुनिया का सबसे उबाऊ दृश्य देखने को उन्हें मजबूर किया जा रहा हो.

वो इन दिनों अपनी ही आहट से डरने लगा था. नौकरियों में दिलचस्पी ना के बराबर रह गई थी. यायावरी उसे दुनिया का सबसे बदरंग शगल लगने लगा था. बेरोजगारी से उसे चिढ़ थी और दुनियाभर के तमाम रोजगार उसे मुंह चिढ़ाने लगे थे. वो जो कुछ करना चाहता वही उसे एकदम बेमायने और गैरज़रुरी लगने लगता.

हम कई बार जीने को मरने की तरह जी रहे होते हैं. जो हम हो गए होते हैं उसमें हमारा कुछ भी नहीं होता.

कई बार हम उस राही की तरह हो जाते हैं जो एक जजऱ्र पुल पर चल रहा है. जीवन से मृत्यु की तरफ जाता एक पुल, जो कभी भी टूट सकता है. जिसके पार हो जाने पर एक मृत्यु है और टूट जाने पर दूसरी मृत्यु. चयन बस मृत्यु का है. ऐसे या वैसे.

अभी पिछली कुछ देर से वो जिस जगह पर चल रहा था उसे लगा उसके आस-पास ज़मीन फ़ैली घास लगातार बढ़ती जा रही है. एकदम रफ़्तार से ..वो हरी घास धीरे धीरे हरे सांपों की शक्ल लेने लगी है. उसे अपने पैरों में एक अदृश्य ताकत की जकड़न महसूस होने लगी. उसे महसूस होने लगा कि उसकी देह  की तमाम भावनाएं धीरे धीरे उन सांपों में बदल रही हैं और उसके दिल-दिमाग, अंग प्रत्यंग पर बिजली की रफ़्तार से रेंगने लगी हैं. सर्र-सर्र. उसे अपनी सांसों में घुटन महसूस होने लगी. वो चीखना चाहता था. ज़ोर ज़ोर से.. दहाड़ें मार कर, फफककर रोना चाहता था. पर न वो चीख पाया, न रो पाया.

अपने शरीर को जकड़ते लाखों सांपों के विष को उसने अपने ज़हन में जमा कर लिया… वो एक बार फिर उस पार्क से लौट आया.. रास्ते में एक खाली  बेंच उसे देखकर आंख चुरा रही थी.. एक टहनी के फूल ने उसे देखकर मुंह बिचका लिया.. एक गिलहरी उसे नज़रंदाज़ करके उसके रास्ते से हट गई..

हवा अब कुछ भारी होने लगी थी.. सूरज कुछ तपने लगा था.. बारिश के बाद उसे अक्सर अपनी जि़ंदगी एक चिलचिलाती उमस की तरह लगने लगती है..
घर लौटकर उसने दरवाज़ा बंद किया.. वो जब भी अपनी यादों का दरवाज़ा बंद करता है उसे लगता है कि वो और ज़्यादा खुल गया है..

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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