जेएनयू की होली – 5 अनुभव

(Last Updated On: April 3, 2023)

तो इस बार की होली जेएनयू में खेली। बाबा गंगनाथ मार्ग से जेएनयू के गेट की तरफ बड़ते ही माहौल एकदम बदल सा जाता है। जेएनयू कैम्पस के भीतर रंग जैसे इन्सानों के शरीरों पर झूलते हुए नज़र आते हैं। कई तरह के रंग और उसमें सबसे गहरा रंग खुशी का।

होली है हुड़दंग नहीं
जेएनयू के मेन गेट से अन्दर आते हुए सैकड़ों रंगे-पुते लड़के लड़कियों का हुजूम देखके ऑटो वाला ज़रा डर रहा था। “भैया चिन्ता मत करो। यहां कोई गुब्बारा नहीं फेंकेगा।” मैने भरोसा दिलाया। “हां यहां तो सब पढ़े लिखे होंगे। पढ़ने लिखने का ये फायदा तो होता ही है।” ऑटो वाला सहमत था। महरोली से जेएनयू की तरफ आते हुए रास्ते में कई जगह ऐसी औचक गोलाबारी हुई थी जिनकी बौछारों ने सूखे कपड़ों को गीला कर दिया था और रंगों की छींटें भी कपड़ों पर छिंतरी ‘बुरा न मानो होली है’ कहती हुई मुस्कुरा रही थी। अचानक आये ये गुब्बारे तमाचों की तरह आप पर पड़ते हैं तो खराब तो लगता है, पर जेएनयू की होली में ऐसा नहीं होता। रंगों से सने लड़के-लड़कियां। सब अपनी-अपनी टोलियों में। कोई छेड़छाड़ नहीं, कोई मारपीट नहीं। बस मस्ती। इससे बेहतर होली और क्या होगी? जहां जमकर मस्ती हो, पर कोई परवाह नहीं, डर नहीं।

एक अजनबी सी परछाई
गंगा ढ़ाबा के ठीक सामने बनी उस सड़क पर चटख धूप आंखों में पड़ती है और बीच-बीच में एक परछाई सी सर के ठीक उपर से गुजरती हुई महसूस होती है। ऐसा बार बार होता है। एक गुजर जाती सी परछाई। दूर आकाश में एक हवाई जहाज उड़ रहा होता है किसी अनन्त की तरफ बढ़ता हुआ। वो अजनबी सी परछाई कुछ देर साथ रहती है और फिर कहीं मिट जाती है। फिर दूसरी परछाई, फिर तीसरी। उस हवाई जहाज से होली के रंग में नाचता ये हुजूम आंखिर दिखता कैसा होगा। जैसा भी दिखता होगा, साल में सिर्फ एक दिन इस नजारे को चुनिंदा राहगीर ही तो देख पाते होंगे। वो जो इस वक्त होली मनाने के बजाय होली को इतनी दूर से बस देख पाने की कुढ़न लिये किसी ज़रुरी सफर पर निकल रहे होंगे। होली के दिन।

कूपहि में यहां भांग पड़ी है
होली और भांग। ये दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक से लगते हैं। इससे पहले होली में कभी भांग नहीं पी। इस बार भी बहुत थोड़ी सी। होली के दिन भांग पिये हुए लोगों के बहुत किस्से सुने थे अब तक। कि जिसको भांग बुरी तरह चढ़ जाती है वो कान पकड़ लेता है कि अब से वो इसे हाथ भी नहीं लगायेगा। किसी-किसी के लिये भांग की ये ट्रिप बहुत मज़ेदार भी होती है, ये भी सुना था। पर हम शायद कुछ देर से पहुंचे थे। जेएनयू के हॉस्टल में लड़के-लड़कियां सुबह-सबुह भांग बनाते हैं और कुछ ही देर में भांग बंट जाती है। देर से आने की वजह से हॉस्टल में भांग बची नहीं थी। हॉस्टल में ही रहने वाला एक दोस्त कहीं से एक बोतल जुगाड़ लाया। 6-7 लोगों ने थोड़ी थोड़ी चख ली। नशा तो माहौल का था। किसी ने ‘हवा में भांग मिला दी’ थी ।

अलग-अलग टोलियां, अलग-अलग होलियां
जेएनयू में मनाई जा रही उस होली को कुछ देर एक दर्शक की तरह देखो तो लगता है जैसे एक रंगीन फिल्म चल रही हो और उसमें एक ही समय में कई सारे दृश्य चल रहे हों। अलग अलग प्रदेशों की अलग अलग होली के रंग अलग अलग टोलियों में दिख रहे थे। एक जगह पर बिहार की टीशर्ट-फाड़ होली थी जिसमें लड़के एक दूसरे की कमीज़ या टीशर्ट फाड़कर उछाल देते। टीशर्ट शरीर से जुदा, पेड़ में लटकी, होली देखने लग जाती। थोड़ी ही दूर पर मथुरा की कीचड़ होली दिख रही थी। टॉपलेस लड़के कीचढ़ से सने एक दूसरे को लथाड़ने में मगन थे। एक टोला कनस्तर बजाते उस लड़के के पीछे-पीछे जाता हुआ गीत गा रहा था। एक कार खड़ी थी जिसपर अंग्रेजी गाने बज रहे थे और उसके बाहर लड़के-लड़कियां नाच रहे थे। दूर एक पेड़ की छांव में एक लड़का जो ड्रमर था पुराने हिन्दी गाने गा रहा था। लोग उसे घेरे खड़े तालियां बजाकर बेपरवाह होके गा रहे थे। कुछ विदेशी लड़के-लड़कियां कमर में बांधे जा सकने वाले टेंकरों से लैस पिचकारी लिये एक दूसरे को भिगा रहे थे। जितनी टोलियां उतनी तरह की होलियां। जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, ऊंच-नीच के आडम्बरों के कोई घेरे नहीं थे। सारे रंग एक दूसरे में घुल गए थे। लग रहा था जैसे पूरा देश झेलम हॉस्टल के उस लॉन में बिना एक दूसरे से परेशान हुए बिना एक दूसरे को परेशान किये अपने अपने हिस्से की होली मना रहा हो।

और एक मणिपुरी लड़का
दोस्तों का इन्तजार करते हुए मैं एक पेड़ के पास खड़ा था कि एक लड़का मुस्कुराता हुआ आया और उसने चेहरे पर अबीर-गुलाल लगाया। हैप्पी होली कहकर फिर मुस्कुरा दिया। वो लड़का या तो अकेला था या अपनी टोली से बिछड़ा हुआ था। या फिर जिसके लिये सब अपने थे। बड़े अपनेपन के साथ बात करते हुए उसने बताया कि वो मणिपुर से है। और यहां की होली उसके लिये अपनी तरह का पहला अनुभव है।

जेएनयू की इस होली में थोड़ा दिल्ली, थोड़ा मथुरा, थोड़ा बनारस, थोड़ा बिहार, थोड़ा यूपी सबकुछ था। एक ही जगह पर रहकर देश के इतने हिस्सों की होली देख आना अपने में एक अनूठा अनुभव था। ऐसी होली हो तो घर न जा सकने का मलाल कुछ कम हो जाता है। हांलांकि कैमरा न ले जाने का मलाल ज़रुर है वरना इस पोस्ट के साथ  रंगों में डूबी कुछ खूबसूरत तस्वीरें भी होती। लेकिन कुछ रह जाना भी ज़रुरी होता है ताकि उस अनुभव को दुबारा महसूसने की ललक बनी रहे।

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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