कई बार ना जाने क्यों लगता है कि इस शहर में एक बंजर सी उदासी भरी पडी है। और जब जब ये लगता है तो महसूस होता है कि मैं कहीं का नहीं रह गया हूं। इस शोर मचाती दिल्ली में कहीं भीतर एक अजीब सी खामोशी पसरती चली जाती है। सब कुछ एक मशीनी अन्दाज में चला जा रहा है। जैसे किसी खांचे में फिट कर दिया गया हो। एक अजीब सा परायापन किसी अदृश्य गुबार की शक्ल में दिमाग के पुर्जों के बीच गर्द सा चस्पा हो गया है। सब कुछ जो हो रहा है, जो घट रहा है वह वर्चुअल सा लगता रहा है। लोग एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा तो रहे हैं, एक दूसरे से सोफिस्टिकेटेड अन्दाज में बात तो कर रहे हैं लेकिन उनके बीच से अपनत्व गायब सा नजर आता है। लगता है कि यह सब एक पोलिश की तरह व्यवहार के बाहर पोता गया सा दिखावटी व्यवहार है, जो चमकदार तो है पर असल खुर्दुरापन अन्दर बर्करार है। लगता है है कि कोई भी दूसरे को पटखनी देने से नहीं चूकना चाहता। हर कोई एक मौके की तलाश में घात लगाये बैठा है। आपको नीचा दिखाने का एक एक मौका खोजा जा रहा है।
अगर आप बचना चाहते हैं तो आपको अपना धुव्रीकरण करना होगा। अपनी एक लौबी तैयार करनी होगी। किसी पक्ष का होना होगा। अकेले आपका अस्तितित्व यहां स्वीकार करने योग्य नही है। आपमें में योग्यता है, आप कर्मठ हैं लेकिन अगर आप चमचागिरि नहीं जानते तो आप यहां कामयाब नहीं है। आपके सम्पर्क जो साझे स्वार्थों की बुनियाद पर टिके हों, यहां डटे रहने के लिए निहायत लाजमी है। आप ये सबकुछ सीखनें को तैयार हैं तो आपका स्वागत है। दिल्ली आपको यह सब सिखायेगी। बस पूरे आत्मविश्वास से आपको यह सब सीखना होगा। हर घड़ी आत्मविश्वास से लबरेज रहना होगा। खुद को स्टाइलाइज करना होगा। झूठा ही सही अपना एक स्टेटस तैयार करना होगा। एक मझी हुई अंग्रेजीकृत भाषा बोली होगी। भावनाओं और संवेदनाओं को आदर्षों के कफन में लपेटकर उसकी चिता जला देनी होगी। गिव एंड टेक के इतर सम्बन्धों के दायरे का खतम कर देने की हद तक संकुचित कर देना होगा। फिर देखिये आप एक प्योर दिल्लीवाले बन चुके होंगे। एक स्मार्ट प्रोफेश्नल डेल्हाईट। तब आपकी हर फिक्र धुएं में तब्दील हो पायेगी। और आप दिल्ली का मजा ले पाएंगे। वरना कुढ़ते रहेंगे। लोगों के मैनिपुलेशन और राजनीतिक दांवपेचों के शिकार होते रहेंगे।
यहां मौल हैं, मल्टीप्लैक्स हैं, कई सारे पार्क हैं और इन सब के बरक्स एक एक जिन्दगी है जो समय की मोहताज है। लोगों की जिन्दगी शिफटों में कट रही है। समय पैसे कमाने की जुगत का पैमाना भर रह गया है। रात भर डयूटी बजाने के आंखें उनीदी हैं और अगले दिन का काम गले में घंटी की तरह लटका बेचैन किये जा रहा है। बौस जैसे आदमी नहीं एक मशीन है जो काम करवाना जानता है, जोतना जानता है और जुत जाने की जितनी शक्ति मुझमें है मैं उतना ही प्रोफेश्नल हूं। इत्मिनान की कोई बिसात यहां नही है। राहत की सांसें वक्त के शिकंजे में कैद हैं। छूटने को बेताब सी। हर दूसरा यही कहते सुनाई देता है कि भई सब कुछ तो है यहां इत्मिनान नहीं है। जीने की सारी वजहें तो हैं पर जीने का मजा नहीं है। इससे बेहतर तो वही अपना गंाव है। अपने शान्त से, खामोश से पहाड़। उनका निर्दोश सा हरापन। हांलाकि कभी कभी ये सोच दिल्ली के साथ अपनी नमकहरामी भी लगती है। शायद है भी। लेकिन ये भंड़ास अन्दर कहीं भरी है तो इसकी वजह भी तो है ही।
सम्भव हैं कि आप सोच रहें हों कि मेरे साथ ऐसा आंखिर क्या हुआ जो ये बोर सी व्यथा यहां उकेरा चला जा रहा हूं। यह सब मोहल्ले में पत्रकार समरेन्द्र की दास्तान सुनने का नतीजा है हांलाकि इसके बीज गहरे हैं जो इन तीन सालों में उगे पनपे हैं। पर समरेन्द्र जी के बारे में जानकर ना जाने क्यों ये बातें बाहर आ जाने को मचलने लगी हैं। आने वाले समय में जिस मीडिया कल्चर में दाखिल होना है ना जाने क्यों उसके प्रति मन शंकाग्रस्त सा हो रहा है। एक अजीब सा डर है कि गांव रहने लायक नहीं रहा ऐसे में शहर में भी मन ना लगा तो क्या होगा? आप चाहें तो समरेन्द्र जी की दास्तान मोहल्ले में जाकर पढ़ लें। मैं भला बता ही क्या पाउंगा। a
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(January 5, 2009 - 6:37 pm)lol,so nice
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(January 7, 2009 - 3:05 am)Good Blog, I think I want to find me, I will tell my other friends, on all