शराब से पीड़ित पहाड़ का दर्द

मौजूदा समय में पूरे उत्तराखंड में जिस तरह से आन्दोलनों ने जोर पकड़ा है उसे देख यही लगता है कि खंडूरी सरकार से आम आदमी पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रषासन और आम जनता के बीच तालमेल जैसी स्थिति उत्तराखंड से गायब होती जा रही है। यही कारण है कि लोग पानी, अस्पताल, रोजगार, षिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की मांग करते हुए लामबन्द होकर सड़कों पर उतर रहे हैं। ज्यादातर इलाकों में अस्पतालों से चिकित्सक, विद्यालयों से शिक्षक और नलकों से पानी नदारद है। दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में तो आलम और भी बुरा है।

शराब उत्तराखंड की मूलभूत समस्याओं में रही है। खासकर पहाड़ की महिलाएं शराब से बुरी तरह पीड़ित रही हैं। कहीं न कहीं शराब ने पहाड़ी युवाओं और आदमियों के भविष्य को खोखला करने का काम भी किया है। लेकिन दूसरी ओर उत्तराखंड सरकार शराब को अपने राजस्व का बड़ा हिस्सा मानती है। ऐसे में पहाड़ी क्षेत्रों में हर कस्बे में कोई और सुविधा हो ना हो, देशी और अंग्रेजी शराब के ठेके जरुर मिल जाते हैं। इन इलाकों में शराब के कारण भारी जन धन की हानि हो रही है। आसानी से मुहैय्या हो जाने वाली शराब न केवल वयस्कों की दिनचर्या का हिस्सा बन गई है बल्कि बड़ी तादात में युवाओं में भी इसकी लत लग रही है। जिससे उनकी पढ़ाई के साथ साथ उनका भविष्य भी तबाह हो रहा है।

शराब केवल मनबहलाव का हिस्सा होने तक सीमित हो तो इसके सेवन में बुराई नहीं है लेकिन साधारणतया ऐसा नहीं देखा जाता। पहाड़ के अधिकांश शादीशुदा आदमियों में षराब का चलन लत लगने की हद तक पहुंच जाता है और ऐसे में वे शराब के आगोश में घर लौटकर अपनी पत्नी से गालीगलौज और मारपीट करने सें भी गुरेज नहीं करते। कई जगह तो महिलाएं अपने शराबी पतियों के द्वारा उत्पीड़न से इतनी परेशान हो गई कि उन्हें विवश होकर शराब के खिलाफ सड़कों पर उतरना पड़ा। लेकिन शराब माफियाओं एवं प्रषासन की मिलीभगत ने अषिकांष आन्दोलनों का दमन कर दिया। कुछ आन्दोलनों को सफलता भी मिली लेकिन बाद में प्रषासन ने माफियाओं के दबाव में आकर दुकानों को फिर से खोल दिया। तर्क यह दिया गया कि शराब की दुकानें बन्द होने की वजह से शराब की तस्करी बढ़ रही है। जिससे सरकार को नुकसान हो रहा है। शराब के कारोबार का बढ़ाने के लिए यह एक आसान तर्क और सुनियोजित तरीका है जिसे देष में लगभग हर जगह प्रयोग किया जा रहा है।

पिथौरागढ़ जिले का गंगोलीहाट इसका ज्वलन्त उदाहरण है। गंगोलीहाट में शराब लम्बे समय से एक बड़ी समस्या रही है। 1994 में स्थानीय तेजतर्रार छात्रनेता निर्मल पंडित के नेतृत्व में क्षेत्र की महिलाओं ने शराब विरोधी आन्दोलन में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। 2006 में एक बार फिर शराबविरोधी आन्दोलन किया गया और गंगोलीहाट में शराब के ठेके को बंद करने की मंाग जोर शोर से उठाई गई। हांलाकि आन्दोलन का नेतृत्व कर रही एक महिला के तथाकथित बलात्कार के वाकये को उछालकर आन्दोलन को भ्रमित करने करने कोशिश की गई। बावजूद इसके आन्दोलन का असर हुआ और दबाव में आकर शराब की दुकान को बंद करना पड़ा। हांलाकि इसके बाद भी शराब की तस्करी बदस्तूर जारी रही। लेकिन फिर भी इससे तहसील मुख्यालय के माहौल में काफी सुधार हुआ और शराब की बिक्री में भी भारी कमी आई।

लेकिन वर्तमान में क्षेत्र के कुछ लोग शराब के ठेके को फिर से खोले जाने की मंाग कर रहे र्हैं। हैरत की बात है कि क्षेत्र की उपजिलाधिकारी दीप्ति सिंह इस क्रम में विषेष रुचि ले रही हैं। उन्होंने आनन फानन में शराब के समर्थक कुछ लोगों की एक मीटिंग बुलाई और क्षेत्र में शराब की दुकान खोले जाने सम्बन्धी प्रस्ताव को पास कराने की कोशिश की। हांलाकि ऐन मौके कुछ लागों के हस्तक्षेप से यह प्रस्ताव पास न हो सका। इस मीटिंग में ना क्षेत्र के विधायक उपस्थित थे ना ही क्षेत्र पंचायत सदस्य। यहां तक कि पत्रकारों को भी मीटिंग में शामिल होने से रोका गया। सबसे अहम बात यह थी कि उन महिलाओं का कोई भी प्रतिनिधि मीटिंग में मौजूद नहीं था जिन्होंने शराब के विरोध में आन्दोलन किया था।

गंगोलीहाट में शराब की दुकान खोलने की मांग करने वाले यह तर्क दे रहे हैं कि दुकान बंद होने के बाद षराब की तस्करी और ज्यादा बढ़ी है जिससे शराब बिक तो रही है लेकिन उसका राजस्व सरकार को नहीं मिल रहा। ऐसे में क्षेत्रीय जनता की मांग के आधार पर ही वे दुकान फिर से खोलने की मंाग कर रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि ऐसी मांग करने वाले कुछ गिने चुने लोग हैं। ये वो लोग हैं जिनके हित किसी ना किसी रुप में शराब की खुलेआम बिक्री से सधते हैं। सच तो यह है कि शराब को एक त्रासदी की तरह मानने वाली क्षेत्र की महिलाऐ आज भी दुकान खोले जाने का विरोध कर रही हैं।

वस्तुतह असल सवाल यह है कि क्या तस्करी रोकने का समाधान केवल दुकान को फिर से खोला जाना है? आंखिर प्रषासन क्यों तस्करों के खिलाफ कड़ी मुहिम चलाने के बजाय शराब का ठेका फिर से खोले जाने के प्रयास में जुटा है? एक महिला जनप्रतिनिधि की मानें तो प्रशासन भी इन तस्करों से पूरी तरह मिला हुआ है। उन्होंने बताया कि दरअसल क्षेत्र के पुलिस मकहमे के पुमुख लोग तक शराब माफियाओं से मिले हुए हैं। दरअसल शराब इन सरकारी अधिकारियों की उपरी कमाई का मुख्य जरिया है। दूसरी ओर छोटे ढ़ाबों और होटलों की कमाई भी शराब की वजह से बढ़ जाती है। यही कारण है कि गंगोलीहाट में शराब की दुकान खोले जाने का प्रयास जोरों पर है। लेकिन यदि दुकान फिर से खोल दी जाती है तो यह जनभावनाओं की एक बड़ी हार होगी।

गंगोलीहाट में पिछले 20 सालों से पानी के लिए लिफटिंग योजना प्रस्तावित है जिस पर इस साल काम शुरु हो पाया है। लेकिन इस काम की रफतार इतनी धीमी है कि कहना मुश्किल है यह काम कब पूरा हो पायेगा। दूसरी ओर तहसील मुख्यालय के राजकीय बालिका इन्टर कालेज में दशकों से शिक्षकों का टोटा है। क्षेत्र में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र का नया भवन तो बन गया है लकिन उसमें महज एक चिकित्सक है। जबकि एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में कम से कम 9 चिकित्यक होने चाहिये। यह तब है जब इस स्वास्थ्य केन्द्र पर आस पास के सौ से अधिक गंाव निर्भर हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत प्रस्तावित निर्माणकार्यों में बड़ी धांधली की जा रही है।

एक जूनियर इन्जीनियर ने बताया कि कुछ ठेकेदार सैकड़ों कट्टे सीमेन्ट निर्माण कार्यों के नाम पर ले गये लेकिन इसके दो तीन साल बाद भी काम शुरु तक नहीं किया गया। ये ठेकेदार या तो सत्ताधारी दल से जुड़े हैं। ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि प्रशासन इन अनियमितताओं के खिलाफ तो कोई कदम नहीं उठा रहा लेकिन शराब जैसा मुददा उसकी चिन्ता का मुख्य विषय बना हुआ है। यहां सवाल इस बात का है कि सत्ता और प्रषासन का ये कौन सा चरित्र है जो जनभावनाओं का खयाल तक रखना नहीं जानता? इस चरित्र को समझकर और इसके खिलाफ जनदबाव बनाये जाने की जरुरत है। चाहे सवाल शराबबन्दी का हो या निर्माणकार्यों में हो रही धांधली का जब तक जनता नहीं चेतेगी सत्ता और प्रषासन की मनमानी यूं ही चलती रहेगी और इसके बीच पिसेगा आम आदमी ही।

शराब विरोधी आंदोलनकारी महिलाएं
महेश पनेठा पहाड़ के उन कवियों में हैं जिनकी कविताओं में पहाड़ को जिया जा सकता है। व्यक्तिगत रुप से मुझे और मेरे जैसे अन्य नये लोगों को उनसे काफी कुछ सीखने को मिलता है कि कैसे शब्द अपने समय को अपनी मातृभूमि के जायके के साथ जिन्दा रख सकते हैं। गंगोलीहाट का शराब विरोधी आन्दोलन जब अपने चरम पर था तो एक कवि के रुप में पुनेठा जी ने उसे कुछ इस तरह से देखा कि एक इस कविता में उन महिलाओं का दर्द बिल्कुल जीवित हो उठा है।

ये हमारा शौक नहीं
यॅू बिच्छू घास पकड़े
शराब की दुकान को घेरे रखना
सड़कों में नारे लगाना
जुलूस निकालना
हमें नहीं करनी है नेतागिरी
और न ही चाह चर्चित होने की
हमारी मजबूरी है –
यॅू सड़कों में उतरना
जब हमारी ही सरकार द्वारा
परोसी गई शराब के चलते
बेच डाली हो अपनी जमीन
हमारे पतियों ने
बिक चुके हों हमारे भाणे-कॅुणे
शरीर के कपड़े तक हमारे
शराबी पतियों के हाथों पिटना
नियति बन चुकी हो हमारी
दूध के साथ
पिलाया गया था जो सबक हमें
कि पति परमेश्वर होता है
बिना उसके स्त्री का जीवन
होता है बिना ठंगरे की बेल की तरह
आज हम मजबूर हो गए जब
उसकी मौत की प्रार्थना के लिए भी
नौनिहालों का छूट गया हो स्कूल
सुबह से शाम तक
हाड़तोड़ मेहनत कर हम
दो जून की रोटी का जुगाड़ करते हैं बच्चों को
छीन ले जाते हों उनके पिता जब
बहा देते हों शराब में
पिताओं के हाथों ही कठिन हो गया हो
जब बेटियों की इज्जत बचाना
बड़े होते जिन बेटों के मुॅह देख
सोचते हैं जीवन के बाकी दिन काटने की
जब वे भी चलने लगे हों
अपने पिताओं की बाट
हमारी बरबादी से नजरें फेर
हमारी ही सरकार
गाॅव-गाॅव ,कस्बे-कस्बे जब
शराब की भट्टी खोलने को हो आमादा
हमें उतरना पड़ा यॅू सड़कों पर
हम फालतू नहीं हैं
न ही हैं हम ऐसी -वैसी औरतें
हम मजबूर औरतें हैं जो
लाख कोशिशों के बाबजूद
नहीं ला सकी हैं पटरी में
अपने शराबी पतियों को ।

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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