Mumbai Diary : 4 ( August 2011)
आज ही घर शिफ्ट किया है। यारी रोड से यारी और वर्सोवा की लहरें प्यारी हो गई थी। उस गली को छोड़ आये हैं अब। इन्डियन आईल नगर के पास अपना बाजार के बाजू कहीं एक घर मिला है। बाजार भी कभी किसी का अपना हुआ है भला।
खैर यहां अभी अभी खिड़की खोलकर देखा तो सामने एक दस बारह मंजिली इमारत बन रही है। बाहर अंधेरा है। नीव के इर्द गिर्द एक टिन की टेम्प्रेरी दीवार बनी है। दरवाजे की शक्ल के एक कोने से रोशनी का एक टुकड़ा बाहर झांक रहा है। उस टुकड़े से मुझे एक छोटी सी बच्ची अपने पैर खुजाते दिख रही है। मच्छरों ने काटा है शायद। फिर एक हाथ लपकता आया है उसकी ओर और रात के खाने का एक कौर बच्ची के मुंह में डाला है उसने। कुछ कपड़े टंके हैं बाहर। एक आंशिक घर की शक्ल में तब्दील हुआ अधूरे बने मकान का वो हिस्सा कुछ दिनों बाद एक खूबसरत इमारत में बदल जायेगा। जिसने मकान बनाने के लिये पैसा लगाया है उसकी वकत जिसने मकान बनाने पर मेहनत लगाई है उससे कितनी ज्यादा है इस शहर में। वहां मजदूरी करती वो मां फिर वहां नहीं रहेगी। बच्ची भी चली जायेगी किसी दूसरी इमारत की तलहटी में। ये बंजारापन किस्मत ने उनपर बरपा किया है। आप एक फिल्म बनाते हैं, डाईरेक्टर हो जाते हैं। लिखते हैं और लेखक हो जाते हैं। लेकिन इतनी खूबसूरत इमारतें बनाने वाले ये लोग कुछ भी क्यों नहीं हो पाते, एक अदनी सी मजूरी लेने वाले मजदूर के सिवाय। खो जाते हैं कहीं ईंट, गारे, पलस्तर से बनी अपनी ही बनाई दीवार के किसी बंद अंधेरे कोने में। जब अपने हाथों की कारीगरी को अपनी पहुंच से कहीं उंची आकाश छूंती शक्लों में देखते होंगे कभी, तो क्या सोचते होंगे वो मजदूर। कभी किसी कवि की एक पंक्ति सुनी थी। मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या, अगणित बार धरा पर मैने स्वर्ग बसाया। एक कवि ने एक मजदूर की ओर से क्या खूब कहा है। सोचता हूं क्या खुद एक मजदूर अपनी ओर से कभी ऐसा कुछ कह पायेगा?
इस बीच याद शहर के सफर पर अक्सर निकल जाते हैं हम उनके साथ। मैं, मेरे कुछ दोस्त और नीलेश मिस्रा। वो अपने पत्रकारिता के दिनों के किस्से सुनाने लगते हैं बार बार। सहारनपुर से मंगाई गई एक रौकिंग चेयर रखी होती है किनारे, जिसपर हममें से कोई नहीं बैठता। फिर आईडिया- आईडिया वाला एक खेल शुरु होता है। कुछ-कुछ बोलते रहते हैं बहुत देर तक। घंटों कभी कभी। ये भी तो हो सकता है, ऐसा भी तो कर सकते हैं। माथापच्ची और बीच बीच में मज़ाक। उनके अनुभव हमारी कोशिशों को सींचते हैं। अच्छा लगने लगा है ये सब। कहानियां गढ़ना और इस तरह रोज किसी कहानी पर आगे बढ़ना। अविनाश अपार्टमेंट के उस वन बीएचके में सम्भावनाओं को संभाल रहे हैं हम लोग। कुछ हो गया तो बेहतरीन। ना भी हुआ तो अफसोस नहीं होगा। अगर प्रक्रिया में खुशी मिल रही हो तो परिणाम मायने ही कितना रखता है ।
कभी कभी लगता है दिन इतने छोटे क्यों होते हैं और कभी कभी उसी दिन का एक बहुत छोटा सा हिस्सा पहाड सा बड़ा लगने लगता है। फिर लगता है मन लगना, न लगना एक बहुत कौम्प्लेक्स सी इन्सानी फितरत है।
मुम्बई अपनी विशालता में भी बहुत संकरी है। बारिश के पानी से भरी टूटी सड़कों से ग्रस्त और भारी ट्रेफिक जाम से पस्त फिर भी भीगा भीगा सा भागता सा मुम्बई। न रुकने की कसम खाया हुआ सा। इस दौरान मुम्बई के शहर को मुम्बई के गांवों से जोड़ने वाले वैस्टर्न एक्सपे्रस हाईवे पे लौंग ड्राईव के कुछ मौके हाथ लगे। बैंड्रा से शुरु होकर दहिसर तक पहुंचने वाले इस 25 किलोमीटर लम्बे हाईवे की ट्रेफिक की मार से परेशान इस शहर को जाम से निजात दिलाने की कोशिश काबिले तारीफ लगती है। इस हाईवे से मुम्बई का भूगोल एक हद तक समझ आने लगता है। हाईवे पे भागती कार से मुम्बई टूटा फूटा सा रुका सा बेकार नज़र आता है। हाईवे के दोनो ओर छिटके से झुग्गीनुमा मकान मुम्बई की माया से अलग आम आदमी की कहानी कहते नज़र आते हैं। लेकिन खास बात ये है कि ये कहानी सपनों को उड़ान भरने से नहीं रोकती। आम आदमी के खास सपने सड़क के दोनों तरफ इन झुग्गियों में हवा के इर्द गिर्द बहते नज़र आते हैं।
मुम्बई में पहली बार पहाड देखे तो हैरानी हुई। पहाड़ों को देखते ही एक खास किस्म का लगाव होने लगता है। पवई लेक से कुछ दूर हीरानंदानी गार्डन्स के उस इलाके की मुम्बई को भी देखा इस बार। हरे हरे पहाड़ों की तलहटी में सुन्दर सुन्दर मकान, बेहद सुन्दर सी सड़कें, मुम्बई के सबसे खूबसूरत और सबसे महंगे इलाकों में से एक है ये जगह। अचानक लगता है जैसे इटली के किसी शहर मंे आ गये हों। इस इलाके का पूरा चक्कर लगाने पर झरने का एक छोटा सा सफेद बच्चा पहाड़ से फुदकता हुआ नजर आ गया था उस दिन। मुम्बई में पानी भी कितनी शक्लों में जिन्दा है। समुद्र, तालाब, तरणताल और अब ये झरना भी।
उस दिन वो औटो वाला मुझे सेकेन्ड हैन्ड फर्नीचर की मार्केट का पता बतला रहा था। चेहरे पे सफेद दाड़ी, बालों पर भी वही सफेद बुढ़ापा। मुस्कुराते चेहरे से बार बार पीछे देखता और क्या क्या पूछता जाता। उम्र पूछी तो बोला पचास साल। फिर थोड़ा रुका और मुस्कुराते हुए कहने लगा- वैसे मैं तो अब भी अपने आप को बच्चा ही समझता हूं। अच्छा लगता है ऐसे सोचने में। उसके सवाल उसकी इस सोच से मेल खा रहे थे। मसलन उसने पूछा। आप कहां से हैं? अच्छा दिल्ली से? वहां तो वो कौन सी रेल है? हां metro वो भी चलती है ना? सबसे कम किराया कितना है उसका? अच्छा हर स्टेशन पे रुकती है? उसमें तो एसी भी है ना? वो तो बहुत तेज चलती होगी? उसके दरवाजे बंद होते हैं? अच्छा ज़मीन के अन्दर भी चलती है? ताजमहल भी तो वहीं है ना? अच्छा आगरा में है? आगरा दिल्ली से कितना दूर है? फिर उसके भूगोल की जिज्ञासा कश्मीर पहुंच जाती है। कश्मीर जाने के लिये पहले कहां जाना होता है? अच्छा जम्मू? जम्मू से कश्मीर ट्रेन जाती है? अच्छा नहीं जाती? बस जाती होगी फिर? फिर बातों ही बातों वो सरहदें लांघने को बेताब हुआ जाता है। ….. वहां तो पाकिस्तान की सरहद भी है ना? और भी कहीं है पाकिस्तान की सरहद? राजस्थान में भी है? अच्छा? मुझे तो पता ही नहीं था। गांधी की वजह से भारत का बंटवारा हो गया। वरना पाकिस्तान आज भी भारत में ही होता। फिर एक आह भरते हुए उसने कहा आप तो बहुत जगह गये होंगे ना? इन बूढ़े से मासूम सवालों की बौछार तब रुकी जब बीस मिनट बाद उसने एक कोने पे औटो खड़ा किया और मुस्कुराते हुए कहा- यही है ओशीवारा की सेकंहैन्ड वाली मार्केट। सबकुछ मिलता है यहां। मोल भाव अच्छे से करना। मीटर जितना बोल रहा था उससे कुछ ज्यादा देने का मन हुआ। मन की बात सुनकर उस बूढ़े आदमी की मुस्कुराहट को पीछे छोड़ मैं अपने दोस्त के साथ उस बाजार में दाखिल हो गया। तीस साल से ज्यादा समय से औटो चलाने वाले इस बुजुर्ग से ज्यादा मुम्बई को कौन जानता होगा भला। कितने अजनबी उसके इस औटो से घरों, बाजारों, दफ्तरों और इस तरह समय समय पर समय के कई कोनों में कहीं न कहीं पहुंचते रहे होंगे। भौगोलिक दृश्टि से ऐसा सर्वज्ञ सा आदमी खुद कितना अजनबी है इस शहर के लिये। दौड़ता भागता पर बाकियों के लिये अस्तित्व हीन। जैसे हवा का वो आंखिरी हिस्सा जो किसी को महसूस तक नहीं होता।
ओशीवारा के उस बाजार में एक लम्बी कतार में सारे दुकानदार अपनी अपनी दुकान के बाहर बैठे, खरीददारों को अपनी दुकान के अन्दर बुला रहे थे। बहुत सारी अल्मारियां, चारपाईयां, सोफे और कई एन्टीक चीजें थी वहां। अन्धेरी दुकानों में इन पुरानी चीजों को नया सा बनाकर कम दामों में बेचने का सिलसिला न जाने कब से चल निकला है। किसी के घर से दुत्कार दी गई ये चीजें दुकानों के जरिये फिर किसी नये घर के इन्टीरियर का हिस्सा हो जायेंगी। एक घर के लोगों से रिश्ता खत्म और बीता सबकुछ भूलकर दूसरे घर से रिश्ता जोड़ लेती ये निर्जीव चीजें अगर किसी दिन जिन्दा होकर अपने पुराने घर का पता पूछने लगेंगी तो न जाने कितने घरों में उथल पुथल हो जायेगी। इन सेकंडहैन्ड चीजों का निर्जीव होना शायद हम सबके लिये अच्छा है। ठीक उसी तरह जैसे पुराने खत्म हो चुके रिश्तों का नये रिश्तों की शुरुआत में कहीं दफन हो जाना। हांलाकि आप लाख चाहें रिश्ते कभी सेकंडहैन्ड नहीं हो सकते।
मुम्बई के झरोखे से अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। दिमाग के दरवाजे से टहलते हुए शायद कई बातें और आयेंगी आप तक। पर आज के लिये यही सब।