किलों और महलों का शहर है प्राग

तृप्ति शुक्ला मीडिया से जुड़ी हैं. अक्सर मुस्कुराती हुई नज़र आती हैं. फ़ेसबुक पर अपने ‘क्वर्की वन लाइनर्स’ के लिए जानी जाती हैं. छिपी हुई पोएट भी हैं. हाल ही में वो देश से बाहर पहली बार उड़ी और उस उड़ान को उन्होंने बाकायदा पहली बार दर्ज़ भी किया. उनकी इस यूरोप यात्रा को हम यहां सिलसिलेवार पेश कर रहे हैं. यात्राकार पर पेश है उनकी यूरोप यात्रा का तीसरा और आखरी भाग.  ये रहा  पहला और दूसरा भाग.

अब चलते हैं इस सफ़र उस पड़ाव पर, जिसकी रंग-बिरंगी इमारतों को लपेटती गलियों में घूमने का मैंने कभी ख्वाब देखा था और जाने कब इसे भूल भी गई थी। मगर यह ख्वाब मुझे नहीं भूला था और एक रोज़ हकीकत बनकर मेरे सामने खड़ा था।

हां तो हम बुडापेस्ट से प्राग की ट्रेन में चढ़ चुके थे। चेक रिपब्लिक की राजधानी प्राग या प्राहा हमारे सफ़र का तीसरा और आखिरी पड़ाव था। जैसा कि रात में तय हुआ था कि सुबह इसी कंपार्टमेंट से नहा-धोकर और नाश्ता करके ही उतरा जाएगा, तो योजना के मुताबिक हम सुबह सात बजे ही उठ गए और अपनी आगे की योजना का क्रियान्वयन करके ट्रेन से उतरे। यह ट्रेन स्टेशन भी कुछ-कुछ बुडापेस्ट जैसा था, मगर उसकी तुलना में काफ़ी साफ़-सुथरा था। ट्रेन स्टेशन और मेट्रो स्टेशन का मिला-जुला परिसर काफ़ी बड़ा था और बाहर की दुनिया दिखाती बड़ी-बड़ी ग्लास विंडो के पार, गुज़र चुकी बारिश के निशान उस परिसर को और भी खूबसूरत बना रहे थे। जैसे बाहर की बारिश का अहसास अंदर तक घुल गया हो।

टिकट विंडो से फ़ारिग होकर हम अंडरग्राउंड मेट्रो स्टेशन पहुंचे। स्टेशन पर बहुत कम भीड़ थी। मेट्रो से बाहर निकले तो भीगी सड़कें हमारा स्वागत कर रही थीं। एक तो ख्वाबों का शहर और ऊपर से पसंदीदा मौसम, ऐसा कहर ढाने वाला कॉम्बो सामने हो तो जीवन से एक बार फिर प्यार हो जाता है। हॉस्टल पास में ही था तो हम पैदल ही निकल पड़े। चेक इन का वक्त हुआ नहीं था और नहाना-खाना हम करके ही आए थे लेकिन कॉफ़ी पीने का मन था किचन में चले गए। वहां कॉफ़ी का बाकी सारा सामान था, सिवाए दूध के। वैसे हमें डाउट था कि वहां दूध मिलेगा, लेकिन मांगने पर मिल गया। सरोज मैम ने देसी कॉफ़ी बनाने की पूरी कोशिश की और वह काफ़ी हद तक उसमें सफ़ल भी रहीं। कॉफ़ी पीकर और सामान वहां रखकर हम सीधे घूमने निकल पड़े। सबसे पहले सिटी साइटसीइंग बस का टिकट खरीदा और पहुंचे प्राग कैसल। वहां एक गाइड डेनियल हमारा इंतज़ार कर रहा था। वहीं हमें पता चला कि प्राग को कैसल का शहर कहा जाता है। दुनिया में सबसे ज़्यादा कैसल प्राग में हैं।

 

 

कैसल की मेन बिल्डिंग के अंदर जाने की मनाही थी। सामने गेट के दोनों तरफ़ दो गार्ड खड़े थे। एकदम स्थिर, मानों कोई उन्हें स्टैचू बोल गया हो। लोग उनके पास जाकर सेल्फ़ी भी क्लिक कर रहे थे मगर वे न हंस रहे थे, न नाराज़ हो रहे थे। कभी-कभी मेरा भी ऐसा ही हो जाने का मन करता है कि किसी बात का फर्क न पड़े। खैर…, उसी परिसर में एक चर्च था। गाइड हमें उधर ले जाने लगा। जब उसको पता चला कि हम दोनों इंडिया से हैं तो बोला कि वह भी बनारस जा चुका है। तब उसको इंडिया कुछ खास पसंद नहीं आया था मगर इंडिया के लोग बहुत अच्छे होते हैं। इतना कहकर उसने चर्च से ठीक पहले एक ‘विश पॉइंट’ की तरफ़ इशारा किया और उसके बारे में बताने लगा।

मैंने विश करने के लिए आंखें बंद कीं और सरोज मैम मेरी फ़ोटो खींचने लगीं। जब आंख खुली तो हमारा गाइड गायब हो चुका था। हालांकि मैंने यह विश कतई नहीं मांगी थी। खैर, हम गाइड को ढूंढते-ढूंढते आगे बढ़े। हमें लगा कि अभी-अभी तो इंडिया के लोगों की तारीफ़ कर रहा था और इतनी जल्दी गायब भी हो गया। यही चर्चा करते-करते हम चर्च के सामने पहुंच गए जहां एक शादी हो रही थी। दुल्हन बहुत खूबसूरत थी। मगर हमें गाइड को ढूंढना था तो खूबसूरती के जाल से खुद को बाहर निकालकर आगे बढ़े लेकिन आगे चर्च की बिल्डिंग और भी ज़्यादा खूबसूरत थी तो हम फिर वहीं उलझकर रह गए। थोड़ी देर बाद वहां से आगे बढ़े और किले की एक दीवार से शहर का नज़ारा लिया। सामने ही चार्ल्स ब्रिज दिख रहा था और उससे भी पीछे प्राग का टीवी टावर दिख रहा था जिसे आइफ़ल टावर का छोटा भाई कहा जाता है।

अब तक हम मान चुके थे कि अब हमारा गाइड वापस नहीं मिलेगा तो अपनी रफ़्तार से धीरे-धीरे पूरे कैसल का बाहरी हिस्सा देखते-देखते हम उसके दूसरे गेट तक पहुंच गए। वहां खड़े गार्ड से पूछा कि क्या यहां से बाहर निकला जा सकता है, तो उसने कहा कि यहीं से बाहर निकला जा सकता है। बाहर सरोज मैम का भी एक छोटा सा महल था. वापसी में सफ़ेद पत्थरों पर लगे मोरपंख के पौधों के बीच थोड़ी सी छुपन-छुपाई खेलकर हम वहां से आगे बढ़े ही थे कि तभी हमारा गाइड दिख गया। इस बार उसके साथ दूसरा ग्रुप था। हमने जब सवाल किया तो बोला कि वह खुद हमें ढूंढ रहा था। उसने हमें वापस उसके साथ आने को कहा लेकिन हम इनकार करके बाहर निकल आए।

अगली बस पकड़कर हम वापस हॉस्टल पहुंचे। हॉस्टल बड़ा प्यारा था। इंद्रधनुष जैसी रंग-बिरंगी सीढ़ियां और कलाकारी से भरी दीवारें, उस हॉस्टल में सबकुछ बहुत खूबसूरत था। सामान रखकर और कपड़े बदलकर हम वापस निकल पड़े प्राग घूमने। वहां की सिटी साइटसीइंग बस वाली सुविधा बेहद खराब थी, इसलिए ज़्यादातर वक्त हमें मेट्रो, ट्राम या दूसरी बस से ही सफ़र करना पड़ा। अगर आप वहां जाएं तो बेहतर होगा कि 24 घंटे का टिकट खरीद लें। सिटी साइटसीइंग की तुलना में 10 गुना सस्ता यह टिकट बस, मेट्रो और ट्राम, सबमें काम करता है।

मेट्रो पकड़कर हम पहुंचे ओल्ड टाउन सेंटर। हल्की-हल्की बारिश हो रही थी जिसने पुराने शहर की सड़कों के पत्थरों पर एक अलग ही रंग चढ़ा दिया था। गूगल बाबा ने एक इंडियन रेस्टोरेंट का पता बताया था जिसका नाम था: Indian Jewel जो वाकई में किसी रत्न से कम नहीं था। बु़डापेस्ट में गोविंदा की पूड़ी-सब्जी खाकर भी उतना आनंद नहीं मिला था जितना कि यहां की बिरयानी, कढ़ाई पनीर और तंदूरी रोटी खाकर खाकर मिला था। पेट पूजा करके हम पहुंचे व्लतावा नदी पर। जहां हमें बोट क्रूज पर बैठना था। बुडापेस्ट की तुलना में बोट क्रूज की यह यात्रा काफ़ी छोटी थी और किनारों पर उतनी जगमग इमारतें भी नहीं थीं मगर बोट के निचले हिस्से में बैठकर बस पीछे छूटी जा रही नदी की लहरों को देखना भी एक अलग ही अहसास था।

 

व्लतावा नदी का सफ़र पूरा करके हम पहुंचे चार्ल्स ब्रिज। बुडापेस्ट के चेन ब्रिज से अलग, यह ब्रिज केवल पैदल लोगों के लिए था। इसके दोनों तरफ़ मूर्तियां लगी थीं जो इतिहास की अलग-अलग कहानियां कह रही थीं। हम ब्रिज की तरफ़ बढ़े ही थे कि तभी तेज़ बारिश शुरू हो गई। इस तरह हमें ब्रिज पार करने का प्लान कैंसल करना पड़ा मगर फिर भी मैं बारिश में भीगते हुए पुल पर कुछ कदम तय कर आई थी। कुछ देर इसी तरह बारिश और पुल को निहारने के बाद हम वापस हॉस्टल आ गए।

अगले दिन हमारे सफ़र की शुरुआत चार्ल्स ब्रिज से ही हुई। बादल छाए थे लेकिन बारिश नहीं हो रही थी। ब्रिज पार करते ही नज़र गई पथरीली सड़क के दोनों तरफ़ बनी रंग-बिरंगी इमारतों पर। हां, इसी नज़ारे का तो ख्वाब देखा था जो आज पूरा हुआ। उस नज़ारे को नज़रों के रास्ते रूह में उतार लेने के बाद हमने ट्राम पकड़ी जो हमें वापस उसी कैसल तक ले गई जहां हम एक दिन पहले गए थे। यहां फिर आने का मकसद सरोज मैम का एक ‘ज़रूरी काम’ था, हालांकि वह पूरा नहीं हो पाया था। यहां से हम वापस चार्ल्स ब्रिज पर लौटे और पास ही बने टॉर्चर म्यूज़ियम गए। यह म्यूजियम पूरे यूरोप में इस्तेमाल हुए मध्ययुगीन यातना के उपकरणों के भरा हुआ है। तीन मंजिला इस म्यूजिम में घुसकर पता चला कि इंसान यातना देने के मामले में भी कितना क्रिएटिव हो सकता है.

फिर हम पहुंचे ओल्ड टाइन सेंटर क्योंकि साइट सीईंग बस का जो टिकट खरीदा था, उसके पैसे वसूलने थे। वहीं से उनकी एक बस पकड़ी और फिर दूसरी बस बदलकर डांसिंग हाउस पर उतर गए। डांसिंग हाउस से हमें उन्हीं की अगली बस पकड़नी थी मगर पता नहीं क्यों, वह बस हमें देखकर भी स्टॉप पर नहीं रुकी और हम उसे गालियां देते हुए उसके अगले स्टॉप की तरफ बढ़ गए जो कि ट्रेन स्टेशन के सामने था।

स्टेशन के सामने ही हम सीढ़ियों पर बैठकर बस का इंतज़ार करने लगे। बस तो नहीं आई, मगर एक आदमी ज़रूर आ गया जो बोला, यू बोथ आर वेरी ब्यूतीफुल। हमने कहा, थैंक्यू। वह फिर बोला, वेरी ब्यूतीफुल, इंदियन ब्यूती। हमने फिर कहा, थैंक्यू। इसके बाद वह थोड़ा और नीचे झुका और बोला, सिस्तर, सम मनी प्लीज़। तब हमें पता चला कि वह भिखारी है। वी डोंत हैव कैश, कहकर हम स्टेशन के अंदर चले आए। 24 घंटे वाला हमारा टिकट एक्सपायर होने में आधा घंटा ही बचा था। आधा घंटा पूरा होते ही हम ओल्ड टाउन तक सफलतापूर्वक मेट्रो का सफ़र पूरा कर चुके थे।

आज ओल्ड टाउन सेंटर को थोड़ा ध्यान से देखा। एक कोने पर थी मशहूर ऐस्ट्रनॉमिकल क्लॉक, जो रिनोवेशन की वजह से ढकी हुई थी तो दूसरी तरफ़ वरसावा की तरह यहां भी बुलबुलों के पीछे भागते बच्चे दिखे। इन बच्चों के अलावा भी वहां देखने के लिए और बहुत कुछ था। नीचे पैसों के लिए एक डिब्बा रखकर चांदी के रंग में पुता खड़ा एक स्टैचूनुमा कलाबाज, संगीत की धुन पर अपनी भाषा में कुछ गा रहे कलाकार, उन कलाकारों को सुन रही छोटी सी भीड़ और उस भीड़ में से कुछ लोगों को छांटकर उन्हें कैनवस पर उतार रहा दूसरा कलाकार, ये सब इतनी फुरसत से अपना काम कर रहे थे कि लग ही नहीं रहा था कि काम कर रहे थे।

यही सब देखते-देखते हम फिर Indian Jewel पहुंच गए। आज बारिश नहीं हो रही थी तो हमने बाहर बैठकर खाना खाया। रेस्टोरेंट का मालिक पंजाब से था और वहां काम करने वाले कुछ लोग पाकिस्तान से भी थे।

खाना खाकर हम पहुंचे यहां के मशहूर मॉल पलेडियम, जिसकी गुलाबी रंग की इमारत पुराने ढंग की थी। इस मॉल से खरीदारी करके हम निकल ही रहे थे कि सामने मैगी दिख गई। हमारी आंखों में चमक आ गई कि आज तो रात में हॉस्टल में मैगी के साथ कॉफ़ी पी जाएगी। वहां से निकले तो हल्की बारिश फिर शुरू हो चुकी थी। इसी बारिश के बीच हम पुराने शहर की गलियां टापते हुए वापस हॉस्टल पहुंच गए। वहां जब हम मैगी खाने बैठे तो पता चला कि यहां की मैगी का मसाला भी फीका होता है। खैर, वह मैगी और कॉफ़ी उस वक्त आत्मा को कुछ हद तक तृप्त करने में सफल रहे। इसके बाद हमने बाहर भीगी हुई सड़क पर कुछ देर चहल-कदमी की और फिर आकर सो गए। अगले दिन सुबह-सुबह ही इस शहर से और इस सफ़र से रुखसती जो थी।

तो इस तरह हमारा सफ़र पूरा हुआ।

Loading

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *