मसूरी मशहूर पर्यटक स्थल है लेकिन उसके आस-पास की दूसरी जगहों के बारे में ज़्यादा पढ़ने-सुनने को नहीं मिलता। महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर रहे जे. पी. पांडेय जी की यात्रा पुस्तक पगडंडी में पहाड़ इस कमी को पूरा करती है। पहाड़ की महक लिए इस किताब की समीक्षा हमें लिख भेजी है संजीव जायसवाल ‘संजय’ ने जो खुद निदेशक/आर.डी.एस.ओ. (रेलवे मंत्रालय) के पद से रिटायर हुए और कई पुस्तकों के सम्मानित लेखक भी रहे हैं। उनकी कई पुस्तकें दुनिया की अन्य भाषाओं में भी अनूदित हैं।
यात्रा कथाएँ हमेशा से रोमांचकारी रही हैं और यदि उसमें खोजी कथाएं भी शामिल हो जाए तो आनंद कई गुना बढ़ जाता है। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा वरिष्ठ विज्ञान लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी जी की पुस्तक ‘पीछे छूटा पहाड़’ प्रकाशित की गई थी जो काफी लोकप्रिय हुई थी।
हाल ही में नेशनल बुक ट्रस्ट ने श्री जे.पी. पांडे की पुस्तक ‘पगडंडी में पहाड़’ प्रकाशित की है जो लोकप्रियता के अनेक तत्वों को समेटे हुए है।
पूरी पुस्तक 18 खण्डों में विभाजित है और प्रत्येक खंड शिवालिक पर्वत श्रंखला के किसी न किसी लोकप्रिय स्थान की पूरी जानकारी समेटे हुए है।
पहले खंड में पहाड़ों की रानी मसूरी की कहानी
पहले खंड में लेखक ‘पहाड़ों की रानी’ मसूरी पहुंचता है और यही इस खंड का शीर्षक भी है।
प्रथम पैराग्राफ़ से ही मसूरी के अनुपम सौंदर्य का वर्णन प्रारंभ हो जाता है और पाठको को वहाँ के प्रमुख स्थलों की जानकारी मिलने लगती है। बीच रास्ते में प्राचीन शिव मंदिर का दर्शन, मसूरी से सात किलोमीटर पहले मसूरी झील में वोटिंग का आनंद लेते हुए लेखक मसूरी के प्रसिद्ध लाइब्रेरी चौक पहुँचता है और यहीं से वह कलमबद्ध करना शुरू करता है एक छोटे से गांव के मसूरी के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होने की गौरव गाथा।
पहली सड़क कौन सी बनी, पहला होटल कौन सा बना, किस होटल में कौन-कौन विभूतियां कब-कब रुकीं? सूक्ष्म से सूक्ष्मतम जानकारी इतने करीने से संजोई गई है कि देखकर आश्चर्य होता है।
ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित स्कूल पर दूसरा खंड
पुस्तक के अगले खंड में पता लगता है कि लेखक मसूरी में पर्यटक के रूप में नहीं आया था बल्कि उसकी मसूरी के प्रसिद्ध ओकग्रोव स्कूल के प्रिंसिपल के रूप में तैनाती हुई है।
इस विद्यालय की स्थापना 1888 में अंग्रेज़ अधिकारियों के उन बच्चों को शिक्षा देने के उद्देश्य से की गई थी जो पढ़ाई के लिए इंग्लैंड नहीं जा सकते थे। बाद में यह विद्यालय रेल के अधिकारियों और कर्मचारियों के बच्चों के शिक्षा केंद्र के रूप में विकसित हुआ। गवर्नमेंट सेक्टर में यह देश का सबसे बड़ा रेजिडेंशियल स्कूल है।
यहीं पर पता लगता है कि लेखक आई.आर.पी.एस.(इंडियन रेलवे पर्सनल सर्विस) अधिकारी हैं। इसी सेवा के अधिकारियों की तैनाती इस स्कूल के प्रिंसिपल के रूप में की जाती है। इस स्कूल ने देश को कई प्रसिद्ध खिलाड़ियों, वैज्ञानिकों, एवं प्रशासनिक अधिकारियों की सौगात दी है।
श्री पांडेय बताते हैं कि 19 वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों द्वारा लगभग हर काम मुख्य रूप से लाभ कमाने के उद्देश्य से संचालित किया जाता था। पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने ₹2,00,000 की निधि से इस शैक्षिक संस्थान की स्थापना की जो एक सराहनीय प्रयास था।
इस खंड में लेखक ने इस ऐतिहासिक स्कूल के विकास, उसके पदाधिकारियों, विद्यार्थियों एवं उसकी वर्तमान स्थिति की विस्तृत जानकारी दी है जो कि अत्यंत प्रशंसनीय है।
पहाड़ी इलाके की अन्यत्र दुर्लभ जानकारियाँ
इसके बाद के पुस्तक के शेष खंड इस पर्वतीय क्षेत्र के प्रमुख स्थलों के नाम पर रखे गए हैं जैसे झरीपानी फाल, संगम फाल, परी टिब्बा, विनोग टॉप, जबरखेत नेचर रिज़र्व, सुरकंडा एवं धनोल्टी, सहस्त्रधारा, कुमाऊँ दर्शन, चारधाम यात्रा इत्यादि।
पाठकों को इन स्थानों के इतिहास और वहाँ के सौंदर्य से परिचित करवाने के लिये लेखक ने अद्भुत शैली का सहारा लिया है। प्रत्येक खंड में वह अपने स्कूल के बच्चों एवं कर्मचारियों के साथ किसी एक स्पॉट की यात्रा पर निकलते हैं और किसी कमेंटेटर की तरह उस स्थल की स्थापना, उसके विकास, उसके इतिहास एवं वहाँ के भवनों, निवासियों इत्यादि की विस्तृत जानकारी देते चलते हैं.
किस स्थान पर स्वतंत्रता से पहले किसका राज्य था, उसने यह राज्य किससे हासिल किया था, अंग्रेजों ने उस स्थान पर पहला बंगला कब बनवाया था, उसे किसे बेचा था? इस सबका जितने विस्तार से वर्णन किया गया है उससे प्रतीत होता है कि लेखक ने इन सभी स्थानों के बारे में गहराई से न केवल शोध किया है बल्कि स्थानीय लोगों से भी संपर्क कर बहुत सी अलिखित जानकारियां भी जुटाई हैं.
यदि किसी व्यक्ति को इन स्थलों का भ्रमण करना हो तो उसे विकिपीडिया या किसी अन्य स्रोत से जानकारी जुटाने की आवश्यकता नहीं है। इस पुस्तक में इन स्थलों की जितनी गहन एवं अधिकृत जानकारी मिल जायेगी वह अन्यत्र दुर्लभ है।
मसूरी की पहली स्थाई इमारत ‘मलिंगर हाउस’
इनमें से मैं ‘जबरखेत नेचर रिज़र्व’ का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा। यह मसूरी का एक संरक्षित निजी वन क्षेत्र है। जहाँ पर प्रवेश के लिए पूर्व अनुमति लेनी पड़ती है और टिकट भी। जबकि लेखक अपने छात्रों के साथ बिना पूर्व अनुमति के वहाँ पहुँच जाते हैं जिसके कारण सुरक्षाकर्मी उन्हें प्रवेश देने से मना कर देते हैं। किंतु जब प्रबंधक महोदय को पता लगता है कि बच्चे प्रसिद्ध ‘ओकग्रोव’ स्कूल से आये हैं तो वह न केवल अनुमति दे देते हैं, बल्कि एक गाइड भी उपलब्ध करा देते हैं।
यहाँ लेखक बताते हैं कि इस क्षेत्र के लंढौर कैंटोनमेंट में पूर्व सैनिकों के लिए एक ‘फर्लो होम’ है जिसमे जो अंग्रेज सैनिक वापस यूरोप नहीं जा पाते थे, वे छुट्टियों में आते थे। सन 1826 में कैप्टन यंग द्वारा निर्मित ‘मलिंगर हाउस’ मसूरी की पहली स्थायी बिल्डिंग है। जो उनके परिवार के लिए ग्रीष्म कालीन आवास था।
बाद के दिनों में इसे सेना ने अपने नियंत्रण में ले लिया जिसे 20 वीं सदी के प्रारंभ में होटल का रूप दे दिया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय इस होटल का प्रयोग सैनिकों के लिए किया गया था. ऐसी ऐतिहासिक एवं रोचक जानकारियों की पूरी पुस्तक में भरमार है जो पाठकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ ज्ञानवर्धन भी करती चलती है।
पुस्तक की भाषा सरल, सुगम तथा शैली प्रवाहमय है
पुस्तक की भाषा सरल, सुगम तथा शैली प्रवाहमय है तथा विभिन्न स्थलों की जानकारी अत्यंत रोमांचक शैली में दी गई है, जिसके कारण पाठक एक खंड के बाद दूसरा खंड पढ़ता चला जाता है।
प्रमुख पर्यटन स्थलों के साथ-साथ पुस्तक के अंतिम खंडों में प्रसिद्ध ‘चारधाम यात्रा’ तथा ‘हेमकुंड साहब’ एवं ‘फूलों की घाटी’ की भी मनमोहक जानकारी दी गई है। जिसे पढ़ते समय लगता है कि हम सब वहाँ की यात्रा के सहभागी हैं.
फूलों से आच्छादित घाटियों, कल-कल बहते झरनों और हिम से ढके पर्वत शिखरों के सौन्दर्य का इतना सजीव वर्णन किया गया है कि वहाँ के दृश्य सहसा आँखों के सामने उभर जाते हैं और यही सबसे बड़ा लेखकीय कौशल है।
यात्रा वृत्तांत, खोजी पत्रकारिता एवं कथारस की त्रिवेणी
मैदानी इलाके में रहने वाले व्यक्ति को पहाड़ों के बारे में इतनी गहन व विस्तृत जानकारी होना चमत्कृत तो करता ही है साथ ही लेखक की प्रतिभा व परिश्रम का परिचायक भी है. इस पुस्तक में यात्रा वृत्तांत, खोजी पत्रकारिता एवं कथारस की त्रिवेणी दिखाई पड़ती है जिसकी गहराई में पाठक डूबता चला जाता है.
अपनी विशिष्टता के कारण इस पुस्तक की विषय-वस्तु पर्यटकों के लिये तो उपयोगी है ही, छात्रों विशेषकर शोधार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी. सामान्यतः नेशनल बुक ट्रस्ट की पुस्तकों की कीमत काफी कम होती हैं किन्तु इस पुस्तक की कीमत 575 रुपए है जो कि अधिक प्रतीत होती है.
इससे पुस्तक सामान्य पाठकों के पहुँच से दूर हो सकती है. मुझे लगता है कि नेशनल बुक ट्रस्ट को इस संबंध में पुनर्विचार करना चाहिए. कुल मिलाकर अपनी विशिष्टता, उत्कृष्टता व उपयोगिता के कारण पुस्तक न केवल पठनीय है बल्कि संग्रहणीय भी. मुझे विश्वास है कि प्रबुद्ध पाठकों द्वारा इसका स्वागत किया जाएगा. मैं पुस्तक की सफलता और लोकप्रियता की मंगल कामना करता हूँ.