पाठकीय समीक्षा : दूर दुर्गम दुरुस्त
संयोग बड़े मजेदार होते है, सच में. आठ-दस दिन में दूसरी बार ये एहसास हुआ. उमेश पंत की पूर्वोत्तर यात्रा वाली किताब परसों दोपहर घर आई. कल शाम तक उनके साथ असम, अरूणाचल, नागालैंड और मणिपुर में था. गुवाहाटी से दिल्ली के लिये उनकी फ़्लाइट ने टेकऑफ किया तो मैं भी (शायद उन्हीं की तरह) कुछ रिक्त सा हो गया था.
ये अनुभव जल्द ही शेयर करना चाहिए इसलिये थोड़ा रात ही में टाइप भी करके रखा मोबाइल पर. आज सुबह वो पूरा करने के लिये मोबाइल देखा तो सुबह फेसबुक पर चार साल पहले की, आज के ही दिन की एक पोस्ट मेमरी से ऊपर आ गई. कानेव और मार्था बल्गेरिया से भारत में भोपाल तक कहीं भी स्मार्टफोन का इस्तेमाल न करते हुए 511 दिन में पहुॅंचे थे, उनकी इस अनोखी यात्रा पर एक आर्टिकल मैने तब शेयर किया था. ‘ट्विटचिकर’ वाले पॉल स्मिथ ने दस-बारह साल पहले ट्विटर के सहारे विश्वयात्रा की थी, कल उमेश जी को किये मेसेज में इसका जिक्र करते हुए लिखा था, ‘ये आपकी फेसबुक यात्रा दिखती है’.
किताबें और उनका पठन अगर इस कदर मेहरबान होने लगा तो लॉकडाउन का ये बंदिवास भी क्रिएटिव होने जैसा आभास होता है.
जिंदगी में यात्रा के अनुभव ज़्यादा नहीं आए. कानों ने साथ छोड दिया तभी से तो अकेले यात्रा करने का विश्वास ही खो बैठा था शायद. यात्रानुभव, वो भी अकेले खुद को खोजते, आज़माते और उसी में खोते हुए, तभी से शायद, दिल के बहुत करीब होने लगे. असीम आनंद का आभास. जॉन क्रोकोर का ‘इन टु दि वाइल्ड’, बिमल डे का ‘महातीर्थ का आखिरी यात्री’ पढने का अनुभव सालों बाद आज भी ताज़ा है मन में.
पूर्वोत्तर भारत की यात्रा का वृत्तांत
‘दूर दुर्गम दुरूस्त’ को राजकमल के वॉट्सअप पर आज इश्तिहार में देखा तो रहा नहीं गया, ऑर्डर करने में बिलकुल देर नहीं की. उनका ‘आज पोस्ट किया है’ ये मेसेज पढने के बाद दिन गिनता रहा, क्योंकि 16 तारीख से सोलापुर में फिर से लॉकडाउन होने वाला था. दो बार इस दौरान पोस्ट में जाकर भी आया, पार्सल नहीं आया था. आखिर 17 तारीख की सुबह पोस्ट से फ़ोन आया, लेकिन बाहर लेने नहीं जा सकता था, तो उन्होंने कहा, मैं बिल्डिंग के नीचे रास्ते तक जाऊं, वहॉं पोस्टमैन मुझे पार्सल डिलीवर करेगा. हड़बड़ में बेटी ने हाथ में थमाया मास्क पहना और सेनिटाजर की शीशी जेब में रखकर नीचे गया, सुनसान रास्ते पर अकेला आता पोस्टमैन को देखकर ही सुकून का आभास हुआ. पार्सल लेके आया, दरवाजे में ही बेटीने उसे हाथ से निकालकर ऊपर से सेनिटाइज़ किया और कुछ देर के लिये बाहर रखा. मन में न समाती उत्सुकता.
तब से अब तक उमेश जी के साथ पुर्वोत्तर में हूं. यह एक असीम आनंद का अनुभव रहा. विशेष रूप से नागालैंड और मणिपुर की यात्रा. किसी तरह का पूर्वनियोजन ना करते हुए निकले इस यात्रा में उमेश जी के साथ सिर्फ फेसबुक है. यात्रा दौरान इसकी मदद से कुछ समानशील सहयात्री भी मिले. (इसमें 500 दिन की यात्रा पर अकेला निकला 21 साल का वेंकी भी है) इससे उलझने, अडचनों से पार होने में मदद होती है और आनंद भी बढता ही है बाटने से. ( उमेश जी ‘इन टु दि वाइल्ड’ का एक वाक्य कोट करते है, हैप्पीनेस इज व्हेन शेयर्ड ).
असम और अरूणाचल के बाद नागालैंड का सफ़र
असम और अरूणाचल में (यहॉं चेरापूंजी का अनुभव कुछ विस्तार से पढने का मन था, बिनू के.जॉन की ‘अंडर ए क्लाऊड’ की याद के बाद तो ज्यादा ही) लगातार बीस दिन लगभग अकेले घूमने के बाद दीमापुर के लिये जाने वाली गाडी की राह देखते उमेश जोरहाट बस स्टैंड पर खड़े हैं. कहीं से याद आता है, दो दिन बाद होली हैं. इतने दिन का अकेलापन जैसे टूट पड़ता है, आगे के लिये मना करता है. नुकसान के साथ टिकट रद्द, और घर वापसी.
बाद में दिसंबर में हॉर्नबिल फ़ेस्टिवल सिर्फ साधन भूत कारण है, असल में बुलावा आता है, फिर से. आगे नागालैंड और मणिपुर की दस की यात्रा एक, मन में उदात्त भाव जगाने वाला अनुभव. एक बार लेना ही चाहिये ऐसा पठनीय.
अनेक बार अनुभव करने के बाद, ‘यात्रा में प्रकृति का विराट, शक्तिशाली रूप सामने आता है तो मन में पारंपरिक रूप से धार्मिक ना होते हुए भी एक उदात्त, पारलौकिक भाव कैसे जागता है?, ‘ऐसा सवाल उमेश जी के मन में आता है.
उसकी खोज में वो एलन बॉटम की किताब ‘दि आर्ट ऑफ ट्रैवल’ में से एक कोट उद्धृत करते हैं.
“दरअसल हम ऐसी जगहों की तलाश करते है जो अपनी प्रकृति में शक्तिशाली हों, जहॉं आकर हमें अपनी तुच्छता का एहसास हो, जिसके सामने हम हार जाएं. जिंदगी जो पाठ हमें क्रूर होकर ( निर्ममता से ) पढाती है, ऐसी जगहें उन्हे बिना क्रूर हुए और बेहतर तरीके से समझा देती हैं, प्रकृति के सामने हम दुर्बल और भंगुर हैं, अपनी इच्छा से अपनी सीमाएं स्वीकारने के सिवा कोई विकल्प नहीं है. जो शक्तिशाली और पवित्र है उसके सामने हमें अपना सर सम्मान से झुका लेना चाहिये.”
कितना सच है…
पूर्वोत्तर भारत की लोककथाओं और इतिहास का भी ज़िक्र
इतिहास, लोककथाएं तो हैं ही, उसके बिना तो यात्रावृतान्त अधूरा होता है. उमेश जी कहते हैं, यहॉं की बोलियाँ ऐसी हैं कि उनका हर एक शब्द अपने साथ कई कथाएं लेकर आता है. ऐसे में वृतान्त ट्रैवल कैटलॉग में बदल जाने का डर होता है. लेकिन उमेश जी ये शायद जानते हैं. वो इतिहास और लोककथाओं का हवाला देकर अनुभव का दायरा ज़रूर बढाते हैं, पर उनको अपने अनुभव पर हावी नहीं होने देते | ये बैलेंस आसान नहीं है.
खैर, चार महीनों से चल रही घर की कैद में ये किताब एक हवा के झोंके की तरह आई. घर में बैठकर ही ये उन्मुक्त अनुभव को गले लगाना, अपने आप में एक ‘अनुभव’ रहा.
नोट : नितीन वैद्य ने यह पाठकीय समीक्षा मूलतः मराठी में लिखी है. हिंदी के पाठकों के लिए उन्होंने खुद ही इसका हिंदी अनुवाद करके भी भेजा है.
किताब मंगाने का लिंक यह रहा
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