Naula tradition in uttarakhand

नौला : राहगीरों और रवासियों की प्यास बुझाते पानी के पारंपरिक स्रोत

नौला, पहाड़ी इलाकों में पेयजल के पारम्परिक स्रोतों का ज़िक्र करते ही सबसे पहले ज़हन में यही शब्द आता है। उत्तराखंड के पहाड़ों में  पुराने समय से ये नौले न केवल गांव वालों की प्यास बुझाते थे बल्कि राहगीरों और यात्रियों के लिए भी साफ़ पानी का अहम ज़रिया थे। हर गाँव में एक नौला ज़रूर होता था जहां प्राकृतिक रूप से छनकर पीने के साफ़ पानी का संचयन (Water harvesting) होता था। आइए आज जानते हैं उत्तराखंड के गाँवों से लुप्त हो रही इस परम्परा के बारे में।

क्या होते हैं नौले

दरअसल नौले पहाड़ों में पानी के संचयन की एक पुरानी प्रणाली है। इन नौलों का पानी साफ और स्वादिष्ट होता है। नौले अक्सर ऐसी जगह पर बनाये जाते थे जहां पानी प्राकृतिक रुप से उपजता है। हर गांव में सामान्य रुप से कुछ नौले ज़रुर होते थे। गांवों में नौले केवल पानी का स्रोत भर नहीं हैं बल्कि इनके साथ गांववालों की दिनचर्या और कई बार आस्था भी जुड़ी होती थी। 

नौले अक्सर ऐसी जगहों पर बनाए जाते हैं जहां प्राकृतिक रूप से पानी उपजता है। पत्थर के बने नौलों के निचले हिस्से में  आमतौर पर  कुण्ड की संरचना होती है। कुंड के निचले हिस्से की दीवार में सीड़ीदार संरचना बनी होती है जिन्हें स्थानीय भाषा में पाटे कहा जाता है। इनकी छत पर पटाल लगाए जाते हैं जो स्थानीय काले पत्थर होते हैं। नौले तीन तरफ़ से दीवार से ढँके रहते हैं और एक तरफ़ पानी निकालने के लिए इन्हें खुला रखा जाता है।

पहाड़ी इलाकों में बने इन नौलों का स्थापत्य भी देखने लायक होता है। उत्तराखंड के पिथौरागढ, चंपावत, लोहाघाट, अल्मोड़ा जैसे ज़िलों में ऐसे कई नौले आज भी मौजूद है जिनका स्थापत्य देखने लायक है। गंगोलीहाट का जाह्नवी का नौला हो या पिथौरागढ का चिमस्यानौला, चंपावत का एक हथिया नौला हो या लोहाघाट में पाटन का नौला, या अल्मोड़ा में हाथी नौला या कपिना नौला। इन सभी नौलों का स्थापत्य लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इनमें से कई नौले 12वीं या 13वीं शताब्दी जितने पुराने भी हैं। एक ज़माने में अकेले अल्मोड़ा में साढ़े तीन सौ से ऊपर नौले थे। बालेश्वर नौला, पंथ्यूरा नौला, दुबालखोला, रानीधारा नौला इनमें से कुछ प्रमुख नौले हैं। 

आमतौर पर नौलों के बाहर किसी बड़े पेड़ की मौजूदगी ज़रूर रहती है। पीपल या बड़ का पेड़ इनमें आम है। इसके अलावा नौलों की दीवारों पर भगवान विष्णु या शिव की मूर्तियाँ भी देखने को मिल जाती है। कुछ नौलों में बुद्ध की प्रतिमा भी देखने को मिलती है। नौलों के बाहर पत्थर के आँगन और चौहद्दी भी बनी होती थी जहां लोग अक्सर चौपाल जमाया करते थे।


लोगों के मिलने-जुलने का केंद्र थे नौले

एक समय था जब ये नौले दिनभर लोगों की आवाजाही से गुलज़ार रहते थे। सुबह से शाम तक नौले में लोग आते-जाते। सूर्योदय के वक्त औरतें यहां नहाने के लिये पहुँच जाती। गांव के अन्य लोग स्वतः के अनुशासन से इस बीच वहां नहीं जाते। उजाला होते ही गांव के पुरुष बच्चे नौले में आकर नहाते । दिन में औरतें अपने कपड़े धोती और गप्पों का आनन्द लेती। गांव के बड़े बूढ़े नौले के आसपास चौपाल लगाते और धूप सेंकते। गांव के सभी लोग मिलकर नियम से नौले की समय-समय पर सफाई भी करते। और इस तरह नौले गांव के लोगों के मिलने जुलने और एक दूसरे से जुड़े रहने का एक आसान जरिया भी थे। शादी जैसे समारोह के बाद नौले में जाकर पूजा करने की भी पुरानी परम्परा रही है।


अब विलुप्त हो रहे हैं नौले

लेकिन आज के दौर में ये चीजें बदल रही हैं। नौले विलुप्ति की कगार पे खड़े हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उनका संरक्षण नहीं हो रहा। छोटे कस्बाई इलाकों में जगह जगह हैन्डपंप खोदे जा रहें हैं जिनसे जमीन के अन्दर का पानी तेजी से खत्म हो रहा है और पानी के पारंपरिक स्रोत भी सूखते चले जा रहे हैं। भले ही आज हैन्डपम्प इन इलाकों में पानी की समस्या से तात्कालिक राहत पंहुंचा दे लेकिन भविष्य के दृष्टिकोण से ये बहुत हानिकारक हैं। क्योंकि पानी के स्रोतों को रीचार्ज करने के कोई ठोस प्रयास इन इलाकों में नहीं किये जा रहे।

यदि पहाड़ी इलाकों को किसी बड़े पानी के संकट से बचाये रखना है तो नौले सरीखे जल संचयन के पुराने तरीकों को फिर से जिलाना बहुत जरुरी है। वरना नौलों के साथ साथ एक पुरानी वैज्ञानिक तकनीक लुप्त हो जायेगी और साथ ही साथ लोगों के मेल-मिलाप की बची खुची कुछ उम्मीदें भी इन पुरानी चीजों के साथ इतिहास में कहीं दफन हो जाएंगी।

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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