मुनस्यारी के दर्शनीय स्थल

मुनस्यारी के मोड़ों पर हमारे लिए ट्विस्ट था : भाग-2

लतिका जोशी पत्रकार हैं. उत्तराखंड से हैं. कहानियां और कविताएं भी लिखती हैं. उनकी यात्राओं के क़िस्से पहले भी यात्राकार पर प्रकाशित हो चुके हैं. आज उसी सिलसिले में पेश है उत्तराखंड के खूबसूरत हिल स्टेशन मुनस्यारी की यात्रा पर लिखे उनके वृत्तांत का दूसरा भाग. पहला भाग ये रहा.

 

सोचा था कि 1 बजे मुनस्यारी में होंगे लेकिन हमें यहीं कांडा में पहुंचते हुए 12.30 बज चुके थे। कांडा से धपोली, खन्तोली और फिर चौकोड़ी होते हुए हम लगभग 2 घंटे में थल पहुंचे। जैसे-जैसे दिन बढ़ रहा था, ठंड प्रचंड होती जा रही थी। 

सड़क के दूसरी तरफ रामगंगा नदी दिख रही थी। इतनी ऊंचाई से ही एकदम साफ और पारदर्शी पानी नज़र आ रहा था। उसके दूसरी ओर ऐसा जंगल था कि अगर आप किसी पेड़ को गौर से देखें तो उस पर कोई न कोई आकृति उभरती हुई नजर आने लगती। किसी जानवर की, पक्षी की या आदमी की। इस तरह से जंगल को देखने में भी गजब का आनंद मिलता है। एक जगह रुको और इस तरह तमाम आकृतियाँ बना लो, फिर देखो तो खुद ही आकृति बदलते हुए नजर आने लगेगी। 

रामगंगा नदी इतनी साफ दिख रही थी और सफर की थकान इतनी थी कि कुछ देर वहीं ठहरने का मन किया। गाड़ी से उतरी तो सोचा पर्स से शॉल निकाल लूं। गाड़ी का हर कोना देख लिया लेकिन पर्स कहीं नहीं था। सुंदर ने कहा, ‘आप लंच के लिए उतरी थीं तो आपके हाथ में था पर्स।‘ तो ये क्लियर था कि मैं पर्स वहीं छोड़ आई थी, जहां खाने के लिए रुके थे। हमारे होश उड़ गए। प्रसून का वॉलेट, मेरे 8-10 हज़ार रुपये, सारे कार्ड उसी पर्स में थे।

यहां आकर वापस उस जगह पर जाना यानी फिर 2 घंटे लगते और वहां पर पर्स मिल ही जाएगा, इस बात की कोई पुष्टि नहीं थी। वहां पहुंचने तक अंधेरा घिर आएगा, ये बात तय थी। हम जंगल के बीच ऐसी जगह पर थे ,जहां से हमारा लक्ष्य अभी केवल 35 किलोमीटर दूर था। बहुत याद किया लेकिन उस ढाबे का नाम याद नहीं आया। मैं अब भी कार चेक कर रही थी। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मैं पर्स कहीं छोड़के इतनी दूर आ चुकी हूं। तो इस समय हमारे पास कैश के नाम पर जेब में पड़े 500 रुपये थे और एक डेबिट कार्ड था।

सफर की सारी थकान और आगे के सफर की सारी एक्साइटमेंट धरी की धरी रह गई थी। सुंदर ने अपने कुछ दोस्तों को फोन किया तो पता चला रेस्टोरेंट का नाम ‘जायका’ है। सुंदर ने कहा कि अब तो आपका पर्स मिलना भगवान मिलने के बराबर है क्योंकि वहां पर हर एक घंटे में एक बस रुकती है, कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है सो अलग, अगर ड्राइवर को दिख गया होगा तो सुरक्षित होगा वर्ना मुश्किल है।

बड़ी अजीब और कमाल की बात थी कि उस समय उस जंगल के बीच में इंटरनेट बड़ी रफ्तार से चल रहा था। प्रसून ने किसी तरह कांडा के थाने का नंबर ढूंढ लिया। उस नंबर पर फोन करके अपनी मुश्किल बताई तो उन्होंने बताया कि रोस्टोरेंट थाने से लगभग 7-8 किलोमीटर की दूरी पर है। हमें यकीन नहीं था लेकिन पुलिस अधीक्षक ने तुरंत 2 सिपाहियों को उस रेस्टोरेंट पर भेजा और कहा कि वो आधे घंटे बाद हमें बताएंगे। हम आधा घंटा वहीं खड़े रहे। जाने क्यों इतना कुछ हो जाने के बाद भी मेरे मन में ये विश्वास था कि मेरा पर्स मुझे मिल जाएगा। मैं नदी किनारे बैठे गई।

कभी-कभी ऐसे मौके हमारी ज़िंदगी में भी आते हैं ना। हम किसी चीज़ की इतनी तैयारी में रहते हैं कि उस चक्कर में कोई जरूरी चीज़ छूट जाती है। ऐसे में हम क्या करते हैं?  हम उस चीज के बिना ही ज़िंदगी को कुबूल करते हैं। है ना? यही ख़याल मेरे दिल में आ रहे थे कि इतने में एसपी का फोन आ गया। उन्होंने बताया कि पर्स मिल गया है। दुकानदार ने पर्स संभालकर रखा था।

कॉन्स्टेबल ने पर्स के बारे में पूछा तो रेस्टोरेंट के मालिक ने उससे कहा कि पहले ये बताओ कि उसमें क्या-क्या है? मैंने फोन पर जब पर्स के रंग से लेकर उसके अंदर के सामान तक की जानकारी दी तब उन्होंने पर्स कॉन्स्टेबल को सौंपा। एसपी ने कहा, ‘आप घूम आइए, आपका पर्स यहीं थाने में सुरक्षित रखा हुआ है, पहाड़ आपके साथ ईमानदार हैं। आप लौटते हुए यहां से लेते जाइएगा।‘ हमने उनका धन्यवाद किया और निश्चिंत होकर आगे बढ़ गए।

मेरी जान में जान आई थी कि मेरा सामान सुरक्षित है। लेकिन अब हमें एटीएम ढूंढना था ताकि फिलहाल के लिए कुछ पैसे निकाल सकेँ। थल से लेकर बिरथी तक दूर-दूर तक कोई एटीएम नहीं था। बिर्थी के पहाड़ की चढ़ाई का समय आ चुका था, सड़कें इतनी संकरी हो रही थीं कि गाड़ी सही-सलामत निकल जाने पर हमें सुंदर को कुशल ड्राइविंग के लिए बधाई देने का मन करता।

बिर्थी के पहाड़ चट्टानों वाले पहाड़ थे, सूखे पहाड़। ऐसे पहाड़ जहां से खड़िया निकलता है। जहां हर तेज बारिश के बाद चट्टानें चूर होकर गिरती हैं। जहां चट्टानों के अंदर से पानी फूटता है और एक हल्की सी पानी की धार निकलकर सड़क पर फैल जाती है। हमारी गाड़ी एक पहाड़ के चारों ओर चक्कर काट रही थी। संकरी सी सड़क को कभी भेड़ें घेर लेतीं तो कभी अचानक से कोई गाड़ी सामने से आ जाती। उस सड़क पर आगे बढ़ना भी किसी अडवेंचर ऐक्टिविटी से कम नहीं था।

‘वो देखिए, वो रहा बिर्थी फॉल….उधर दूर देखिए…’ सुंदर ने कहा तो हमने गाड़ी के बाहर नज़रे डाली लेकिन इससे पहले कि हम देख पाते मोड़ आ गया। थल से बिरथी था बस 35 किलोमीटर दूर लेकिन रास्ते ऐसे थे कि हमें पहुंचने में दो घंटे से ज़्यादा लग गए। चारों ओर के सूखे काले चट्टानों को देखकर मेरा मोहभंग होने लगा था, जैसे हौसला टूटने लगा था। मुझे लगा कि मैंने यहां आकर कोई गलती तो नहीं कर दी, यहां तो हरियाली तक नहीं है। सुंदर ने बताया कि ये चट्टानों बज्र गिरने की वजह से इतनी काली हो गई हैं। यहां हर बारिश में कहीं न कहीं बिजली गिर ही जाती है। 

मैंने सुंदर से पूछा, अभी तक कोई एटीएम नहीं दिखा, कोई दुकान भी नहीं है, बिरथी के लोग सामान कहां से लेते हैं। सुंदर ने हंसते हुए कहा, ‘या तो थल की मार्केट से या मुनस्यारी की मार्केट से। बिरथी में एक-दो छोटी-मोटी दुकानें हैं, वो दुकानदार भी वहीं से सामान मंगाते हैं।‘ ये जिसे हम यात्रा कहकर थक रहे थे, ये किलोमीटर्स नापना कुछ लोगों के लिए रोजमर्रा का हिस्सा हैं। 

दिल्ली से या और कहीं से पहाड़ की ओर घूमने जाने वालों से मिलती हूं तो वे कहते हैं, हम यहीं पहाड़ में बस जाना चाहते हैं, क्या रखा है यहां दिल्ली में। तब मैं सिर्फ एक बात कह पाती हूं, पहाड़ कुछ दिन ठहरने के लिए हसीन लग सकते हैं, लेकिन वहां की ज़िंदगी इतनी हसीन है नहीं।

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लतिका जोशी

लतिका जोशी पत्रकार हैं. उत्तराखंड से हैं. कहानियां और कविताएं भी लिखती हैं. घुमक्कड़ी की शौकीन हैं और घूमे हुए को शब्दों में ढालने में भी यकीन रखती हैं.

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