हर बुरे वक्त का एक अच्छा पहलू भी होता है

(Last Updated On: April 3, 2023)

Mumbai Diary : 13 ( 18 October 2012)

(मुम्बई फिल्म फेस्टिवल 2012)

सुबह सुबह नीद खुली तो देर हो चुकी थी। साढ़े नौ बज चुके थे। रात को सोते वक्त सोचा था कि मुम्बई फिल्म फेस्टिवल के दूसरे दिन की पहली फिल्म से शुरुआत की जाएगी। और फिर पूरा दिन थियेटर की कुर्सियों पर टिककर फिल्मी अनुभवों को अपनी जि़न्दगी का हिस्सा बनाया जाएगा। पर रात को देर से सोने की आदत सुबह देर से उठने की मजबूरी पैदा कर ही देती है।

खैर उठते ही फटाफट नहा धोकर कदम स्टेशन की ओर बढ़ाए जा चुके थे। ट्रेन से सीएसटी पहुंचा जा चुका था। फिर सीएसटी से टैक्सी ने एनसीपीए तक पहुंचाया। रजिस्टेशन कांउंटर पे बैठे वोलेंटियर ने इशारा करके बताया कि सर प्रेस वाले कार्ड वहां से….। इशारे की दिशा में जाकर किसी से पूछा तो उन्होंने बताया कि सर ये काउंटर सिर्फ अमेरिकन एक्सप्रेस की मेम्बरशिप वाले लोगों के लिये हैं। वहां बैठी एक उम्रदराज पत्रकार भी मामी के किसी वोलेंटियर का इन्तज़ार कर रही थी। उन्हें बताया गया था कि मीडिया वाले कार्डस फलां के पास हैं और वो साढ़े ग्यारह बजे के बाद आयेंगी। खैर वापस रजिस्टेशन काउंटर पर जाते ही गार्ड ने कहा- वो देख रहे हैं। उनसे पूछिये। उस वो की तरफ कदम बढ़ाये। एक लड़की थी। उनसे कार्ड के बारे में पूछा तो उन्होंने प्यार से बस नाम पूछा और बस दो मिनट में आने का वादा कर एक दिशा में चलती बनी। जैसा की प्रथा है दो मिनट पांच छह मिनटों में तब्दील हो चुके थे। लगा कि शायद वो नहीं आएंगी। लेकिन कुछ ही देर में वो आती हुई दिखी। हाथ में मामी का प्रेस कार्ड था और सारी फिल्मों का मोटा सा कैटलौग भी। लगा कि जैसे किसी बड़े खज़ाने की चाभी हाथ लग गई हो।

खैर पहली फिल्म अब तक मिस हो चुकी थी। तीन बजे यादशहर से मंडली का बुलावा था। तय किया कि अगले एक घंटे में सीएसटी से अंधेरी पहुंचकर इन्फिनिटी के आईमेक्स में कम से कम एक फिल्म देखकर फिर यादशहर की मीटिंग माने मंडे मंडली में शामिल हुआ जायेगा। कहानियां पढ़ी और सुनी जांएगी और वहां से फारिग होकर फिर से 8 बजकर पैंतालिस मिनट की आंखिरी फिल्म देखी जाएगी।

मामला कट टु कट था। सीएसटी से एक घंटे में अंधेरी और फिर अंधेरी स्टेशन से पंन्द्रह मिनट में आईमैक्स। पर स्टेशन से जो औटो लिया उससे अभी अभी उतरे पैसेंजर और ड्राईवर ने जैसे मीडियेटर बना दिया था मुझे। ड्राईवर अपनी रेट सीट मेरी तरफ बढ़ाता हुआ बोला कि आप इन्हें बताओ कि किराये बढ़ गये हैं। और ये मीटर पुराना वाला है इसमें रेट नहीं आते बस रीडिंग आती है। मैं औटो में बैठ चुका था और किनारे से पैसेंजरर्स की दो जोड़ी आंखें मेरी ओर किसी फैसले के लिये तांक रही थी। मैने उन्हें बताया कि ड्राईवर जो कह रहा है वो सही है। लेकिन निर्भर करता है कि आप लोग कहां से बैठे। मीटर फास्ट भी हो सकता है वगैरह वगैरह। किसी तरह पैसेंजर तो मान गये पर पता लगा कि उनके पास हज़ार का नोट है। तो अभी उस नोट छुटटे होने थे। फाईनल रेट डिसाईट होना था। और मैं फालतूं उनके बीच अपना टाईम जाया कर रहा था और वहां फिल्म बस शुरु होने ही वाली थी।

खैर मैने अपनी भलाई समझते हुए दूसरे औटो की तरफ रुख किया। पहुंचते पहुंचते एक दोस्त का मैसेज आ चुका था कि फिल्म शुरु होने ही वाली है। तुरंत पहुंचो। पहुंचे तो फिल्म शुरु होने में अभी बस थोड़ा सा वक्त था। पर जो सीट मिली सबसे आगे की थी। पूरा हौल खचाखच भरा था। बस रिजर्वड सीट खाली थी जिनपर शायद लेट से आने वाले बड़े लोगों का पहले से कब्जा था। खैर इस बीच एक अफवाह फैली की रिजर्वड सीट सभी के लिये खुल चुकी हैं। आगे की सीटों पर बैठे कई लोग मौके पर चैका लगाने की फिराक में पीछे की तरफ भागे। हम भी उनमें शामिल थे। पर पीछे पहुंचकर अफवाह की सच्चाई पता चल गई। लेकिन अफवाह का इतना तो फायदा हुआ कि जब पीछे की सीटस से वापस आये तो चौथे नम्बर वाली लाईन पर हमें दो खाली सीटें मिल गई जिन्हें हमने छेंक लिया। और शायद उन सीटों पर पहले बैठे लोगों को न माया मिली न राम की तर्ज पर सबसे आगे वाली सीटों पर जाकर बैठना पड़ा।

कुछ ही देर में मामी की पहली फिल्म स्क्रीन पर शुरु हो चुकी थी। रोबोट एन्ड फ्रेंक। फ्रेंक नाम के एक बूढ़े आदमी को उसका बेटा एक रोबोट गिफट करता है जिसे उसकी देखभाल करने के लिये प्रोग्राम किया गया है। पहले पहल तो फ्रेंक उस रोबोट से चिढ़ा हुआ है जिसे उसे उसके बच्चों ने अपने विकल्प के तौर पर उसके पास रखा गया है। फ्रेंक अब बूढ़ा हो चुका है। भूलने की आदत हो गई। वो अपने वक्त में एक हाईप्रोफाईल ज्वैल थीप रह चुका है। धीरे धीरे जब उसे लगता है कि गिफट में मिला वो रोबोट उसकी इन्सानों से ज्यादा परवाह करता है। कब खाना है, कब जगना है, कब अपने आप को व्यस्त रखने के लिये कोई एक्टिविटी करनी है। वो उसे वक्त पर हर चीज़ का रिमाईंडर देता है। अपनी मशीनी हद में रहकर ये रोबोट वो सब कुछ करता है जो अपने बाप से प्यार करने वाली सन्तान उसके लिये कर सकती है। यहां तक कि उसके लिये पार्टनर इन का्रईम की भूमिका भी निभाता है। उस रोबोट पर फ्रेंक की निर्भरता या कहे प्यार इतना बढ़ जाता है कि चोरी के इल्ज़ाम से खुद को बचाने के लिये जब रोबोट उसे अपनी मैमोरी डिलीट करने को कहता है तो फ्रेंक मना कर देता है। फिल्म का आंखिरी शौट फिल्म को किसी और लेवल पे पहुंचा देता है। फ्रेंक एक ओल्ड एज सेंटर में है और वहां वो देखता है कि उसके जैसे कई सारे बूढ़े आदमी अपने अपने केबिन में जा रहे हैं और उनके साथ कई सारे रोबोट भी। ये उस दौर की बात कहने वाली एक फयूचिरिस्टक फिल्म है जब शायद इन्सानी रिश्तों से बढ़कर मशीनी रिश्ते अहम हो जाएंगे। जब भावनाएं प्रोग्राम्ड हो जाएंगी।

फिल्म देखने के बाद तुरन्त यारी रोड में नीलेश मिस्रा जी के घर पर होने वाली मंडली को जौईन किया। अपनी अगली नयी कहानी पढ़ी। कहानी पर मंडली के सदस्यों की राय ली। मंडली बहुत दिनों बाद थी। तय था उसे देर तक चलना था। पर एक और फिल्म भी देखनी ही थी। मंडली से ब्रेक लेकर एक बार फिर सिनेमैक्स की ओर रुख कर लिया। दिन की ये आंखिरी फिल्म मामी की ओपनिंग फिल्म भी थी। सिल्वर लाईनिंग प्लेबुक। ब्रेडली कूपर और रौबर्ट डीनियरो की गज़ब की अदाकारी का मिस्रण इस फिल्म में देखने को मिला। एक मेंटल इन्स्टिटयूट से लौटा पैट अपने परिवार में अपने पिता और मां के साथ फिर से नौर्मल जि़न्दगी में लौटने की कोशिश करता है। सामजस्य बिठाने की इस कोशिश में उसके पिता यानि रौबर्ट डिनियरो के साथ जो उसकी नोकझोक है, जो प्यार है, जो असमानताएं हैं, और उस पूरी प्रक्रिया की अदाकारी में जो सहजता है उसे देखकर ऐसा लगता है कि परदे पर फिल्म नहीं कोई जि़न्दगी चल रही है। और फिर आती है टिफनी यानी जैनीफर लौरेन्स। जो सारे समीकरण बदल के रख देती है। जिसकी असामान्यता या कहें असहजता में एक खास तरह का आकर्षण है। कैसे उसके साथ पैट के रिश्ते पनपते हैं और कैसे पैट की पूर्व पत्नी दोनों के रिश्ते के बीच एक अदृश्य कड़ी का काम करती है, वो अल्हड़पन, वो जलन, वो जिद और अन्ततह वो जीत। फिल्म के अलग अलग हिस्सों में ये सारी भावनाएं फिल्म को एक अलग आयाम देती नज़र आती है। फिल्म दरअसल  काले बादलों से दिनों के बीच उस चांदनी लकीर ( सिल्वर लाइनिंग ) की खोज करती है जिससे बुरे दिनों को देखने का नज़रिया बदल जाता है.. हर बुरे वक्त का एक अच्छा पहलू भी होता है , पूरी फिल्म इसी बात को कितनी ख़ूबसूरती से कह जाती है..

फिल्म पूरी होने के बाद फिर से मंडली में शामिल होना था, सो हुए। रात के साढ़े तीन बजे यारी रोड से कांजुरमार्ग की तरफ रवाना हुए और रात के चार बजे के आसपास घर पहुंचना हुआ। एक लम्बा, थकान भरा पर संतोषजनक दिन।

मामी के तीसरे दिन घर के सबसे नजदीक के थियेटर सिनेमैक्स सायान में दो फिल्में देखी। पहली फिल्म द मैजिक औफ बैली आईल। एक उपन्यासकार मौर्गन फ्रीमन की कहानी जो गर्मियों में लिखने के लिये बैले आईलैंउ आ जाता है और वहां उसकी दोस्ती पड़ौस में रहने वाली एक सुन्दर तलाकशुदा महिला और उसकी तीन छोटी छोटी बच्चियों से होती है। उनमें से एक बच्ची उससे सीखना चाहती है कि इमैजिनेशन की कला आंखिर है क्या? बाहर से आये उस लेखक और उस छोटे से आईलैन्ड में रह रहे परिवार के बीच एक ऐसा जुड़ाव हो जाता है कि जब लेखक के वापस जाने का वक्त आता है तो उनमें से कोई उसे जाने नहीं देना चाहता। एक शान्त समुद्री किनारे पारिवारिक से माहौल में बने इन कोमल से रिश्तों की कहानी कहती ये फिल्म भी दिल को छू जाती है।    इस फिल्म के बाद सायान सिनेमैक्स के बाहर लगभग डेढ़ घंटे तक वहां लग रही अगली फिल्म स्टोरीज वी टैल का इन्तज़ार किया। पर फिल्म ने बुरी तरह निराश किया। इतना कि फिल्म पूरी देख पाने का हौसला कम से कम मैं तो नहीं कर पाया। इसलिये इस फिल्म के बारे में ज्यादा कहना भी मुझे मुफीद नहीं लगता। हांलाकि ये फिल्म मामी द्वारा भेजी गयी बीस सर्वस्रेष्ठ फिल्मों की लिस्ट में शामिल थी।

खैर अभी अभी घर का बना लज़ीज़ चिकन खाकर मुम्बई डायरी की ये किश्त लिख रहा हूं। उम्मीद है कि कल से 25 तारीख तक कुछ और बेहतरीन फिल्में देखने को मिलेंगी जिनके बारे में कुछ लिखने का मन होगा। और उन फिल्मों पर एक बेहद अनौपचाीिक सी प्रतिक्रिया लिये हुए होंगी कुछ और मुम्बई डायरीज़।

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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