Mumbai Diary 10 (May 2012)
डोंगरी टु दुबई का बुक लांच था। बेंड्रा की कार्टर रोड में समुद्री किनारे के पास औलिव नाम का वो बार। और उस बार का एक छोटा सा अहाता जिसके फर्श पर नदियों के किनारे पाये जाने वाले, पानी से घिसे मुलायम से कंकड़ बिछाये गये थे। जो दिख अच्छे रहे थे, पर उनपर चलने में एक असहजता महसूस हो रही थी। उस अहाते के बीच में एक पेड़ का कंकाल था, जिससे पत्तियां नदारद थी। उस सूखे नंगे पेड़ को सलेटी रंग से रंगकर उसकी डालियों में कुछ लालटेनें टांक दी गई थी। जैसे उस पेड़ से उसकी आत्मा छीन ली गई हो और उससे कहा गया हो कि तुम अब भी उतने ही अच्छे दिखो जितने तब दिखते थे जब तुम हरे भरे थे। उस अहाते में कुर्सियां बहुत कम थी और लोग बहुत ज्यादा। इसलिये जो जल्दी आया वो उन कुर्सियों पर हक जमाकर बैठ गया। किनारे एक 4-5 फीट उंची दीवार थी जिसके एक कोने पर मैने अपने लिये जगह बना ली।
कार्यक्रम शुरु होने ही वाला था। मेरे बगल में एक 60-70 साल के बुजुर्ग आकर खड़े हुए। चश्मे के पीछे से झांकती, इधर उधर तांकती उनकी आंखें कुछ तलाश रही थी। तभी पूरे अहाते में जैसे एक हलचल सी हुई। सारे पत्रकार पीछे की दिशा में मुड़े। कैमरों के फ्लैश जगमगाने लगे। बिल्कुल वैसा ही दृश्य आंखों के सामने था जैसा फिल्मों में दिखता है । जौन अब्राहम की सभा में एंट्री हो रही थी। एक हीरो मंच की ओर बढ़ रहा था। एक आदमी अब भी खुद को तिरस्कृत महसूस कर रहा था। कार्यक्रम शुरु हो चुका था। स्टेज के संचालक, गीतकार नीलेश मिस्रा डोंगरी टु दुबई के लेखक हुसैन ज़ैदी से उनकी किताब के बारे में सवाल कर रहे थे। इस किताब पर आधारित अपकमिंग फिल्म शूटआउट एट वडाला के निर्देशक संजय गुप्ता भी मंच पर मिस्रा जी के सवालों के जवाब दे रहे थे। मेरे बगल में खड़ा वो व्यक्ति बगलें झांकते हुए अब भी कुछ तलाश रहा था। कोई ऐसी अदृश्य चीज़ जो खो जाती है तो फिर ढ़ूंढ़े नहीं मिलती।
थोड़ी देर में फिर एक हलचल हुई। फिर कैमरे मुड़े। फिर फ्लैश चमके। इस बार अनिल कपूर पाश्र्व से आते दिखे। झक सफेद कमीज़ और छाती तक खुले बटन। अनिल मंच की ओर बढ़ रहे थे कि अचानक उनके कदम रुके। उस बूढ़े चेहरे पर उनकी नज़र गई। मुड़कर एक मुस्कुराहट उन्होंने उससे साझा की। उस आदमी से हाथ मिलाया। अपनी पहली मुलाकात का जि़क्र किया। मेरी दांई बांह से सटकर खड़ा वो आदमी मुस्कुराते हुए अनिल कपूर के सवालों के जवाब देता रहा और मेरी आखों के 6 इंच आगे अनिल कपूर का वो तेज़ भरा चेहरा आदर और सम्मान के भाव के साथ कुछ कुछ बोलता रहा। अनिल कपूर स्टेज पर लौटे और उस आदमी को पूरे सम्मान के साथ स्टेज पे बुलाया। एक अतिरिक्त कुर्सी स्टेज पर लाई गई। लोगों को पता चल चुका था कि वो आदमी वक्त के किसी हिस्से में ज़रुरी रहा होगा। और एक रिटायर्ड सीनियर पुलिस आफीसर के तौर पर शायद इस किताब में उसकी भी अहम भूमिका है। उस आदमी की तलाश शायद पूरी हो चुकी थी। वो अदृश्य चीज़ उसके सम्मान के रुप में उसे मिल चुकी थी। और मेरे लिये एक रील लाईफ हीरो, एक पुराने रियल लाईफ हीरो को सम्मान देकर एक नया रियल लाईफ हीरो बन चुका था। एक नायक जो बाकियों से अलग सम्मान देना भी जानता है।
मुम्बई की ट्रेनें मुझे छोटे शहर से बड़े शहर आये एक आम भारतीय नागरिक का समाजशास्त्र समझने की किसी गतिशील युक्ति सी लगती हैं। वहां उनके जजबे, उनकी जद्दोजहद, उम्मीदों, हताशाओं और यहां तक कि उनकी मनोवैज्ञानिक और मानसिक स्थिति तक का एक सतही अध्ययन किया जा सकता है। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बीच जीवन की कई इकाईयां और उन इकाईयों के कई पहलू निरन्तर गतिशील दिखाई देते हैं। वैस्टर्न, सेन्ट्रल और हार्बर लाईन से दिन रात गुजरती ये ट्रेनें न जाने कितनी भावनाओं के बहाव का एक जरिया बन गई हैं। जैसे हर दिन इन पटरियों के इर्द गिर्द लाखों जीवनों के अंश एक दूसरे में घुलकर अनन्त अदृश्य और अधूरी कहानियों का मिस्रण इन ट्रेनों में जमा कर रहे हों। तय है कि इनसे होकर गुजरे कई सफरनामों को लोग किसी न किसी वजह से याद रखेंगे। कई भावी लेखक, राजनेता, अभिनेत्रियां, बैंकर आंखों में उम्मीदें लिये आम आदमी की शक्ल में अपने अपने पुढ़े स्टेशन तक पहुंचेंगे। और कई बस रोज यूं ही, अपनी पूरी अधूरी यात्राएं करते आम आदमी की तरह शून्य में विलीन हो जायेंगे। जगजीत सिंह की गाई गज़ल की उन पंक्तियों सार्थक सी करती- उम्र जलवों में बसर हो, ये ज़रुरी तो नहीं। हर शबे ग़म की सहर हो, ये ज़रुरी तो नहीं।
दादर से मलाड के बीच का वो सफर लगभग बीस मिनटों का था। और इन बीस मिनटों में एक छोटी सी फिल्म सा था वो एक छोटा सा वाकया। सरसराती ट्रेन में माहौल गर्म था और उस सीट पर हालात शायद नाजुक। पार्श्व में यात्रिगणों के मुखारविन्दों से फिसल रही मां बहन की गालियां मौसम में बह रही गर्माहट की पुश्टि कर रही थी। भरी हुई ट्रेन में जगह बहुत कम थी लेकिन ट्रेन की एक पूरी सीट दो छोटे छोटे बच्चों और उनके जन्मदाताओं के द्वारा घेरी गर ली गई थी। भौगोलिक रुप से पास बैठे उन दो वयस्कों के हाव भाव उनके बीच पनप रही दूरियों को बयां कर रहे थे। किसी बात पर झगड़कर आये थे शायद। दोनों एक दूसरे से मुंह फेर कर बैठे रहने के बीच कभी अपने बच्चों की हरकतों तो कभी खिड़की के बाहर गुजरते वक्त में बदलती दुनिया को तिरछी निगाहों से निहारे जा रहे थे। ऐसे जैसे उस दुनिया की हर चीज़ से उन्हें भारी कोफ्त हो रही हो।
बीच बीच में एक दूसरे से आंखें चुराकर एक दूसरे को देखते हुए वो ऐसे लग रहे थे जैसे किसी चुम्बक के दोनों ध्रुव अपनी टूटन के उस आंखिरी क्षण का इन्तजार कर रहे हों जिसके बाद वो पलक झपकते ही या तो एक दूसरे से चिपक जाएंगे या फिर कभी पास ही नहीं आयेंगे। दोनों बच्चों को उनकी बचकानी हरकतों पर बारी बारी बेवजह डांटते हुए वो दोनों एक दूसरे के प्रति अपनी नाराजगी को शब्द दे रहे थे। तभी दोनों बच्चों में से एक के हाथ से पानी पीते हुए बोतल का ढक्कन सीट के नीचे गिरा। होंठों से गालों पर लुड़क आई पानी की बूंदों को पोछता बच्चा खिड़की की ओर दुबक गया। पत्नी बोतल का ढ़क्कन उठाने के लिये सीट पर खिसकी और पति और पत्नी के बीच का रिक्त स्थान जाता रहा। पति ने झुककर ढ़क्कन उठा लिया और पत्नी को देखकर ऐसे मुस्कुराया जैसे वो किसी अजनबी लड़की से पहली बार कोई मुस्कुराहट साझा करना चाहता हो। उसके चेहरे पर पहली ही मुलाकात में एक नवयुवती की मदद कर देने के बाद आने वाले गर्व के भाव ताज़ा ताज़ा मुस्कुराने लगे।
पत्नी ने भी अपने चेहरे पर एक ताजी मुस्कुराहट बिखेरकर दूरियों के गणित के सारे समीकरण एक पल में बदल दिये। फिर दोनों बच्चों की ओर देखकर उनकी बाल सुलभ हरकतों पर एक साथ मुस्कुराने लगे। बच्चों की हरकतों में अब कोई कोफ्त न बची थी। हवा शायद उतनी गर्म नहीं रह गई थी। नज़रें मिलाने में हो रही असहजता अब सिरे से गायब हो गई थी। पुढ़े स्टेशन गोरेगांव कहती हुई उस मशीनी आवाज़ की ओर ध्यान जाते ही वो बच्चों को लेकर अपनी सीट से उठ खड़े हुए। दूरियों को पाटकर नजदीक आया एक परिवार अपनी मंजिल आ जाने की खबर पा चुका था। और मुझे समझ आ रहा था कि नाराजगी कितनी अर्थहीन और क्षणभंगुर भावना़ है। एक ऐसी अनावश्यक झिल्ली जिसका होना बस तब तक ही मतलब रखता है जब तक उसके गैरज़रुरी होने का अहसास न हो जाये।
कल ही देर रात वर्सोवा के किनारे पथ्थरों पर बैठकर दोस्तों के साथ फिल्मों पर कुछ बातें हो रही थी। कि तभी गैंग्स आफ वासेपुर का जि़क्र आया। इतने में एक 30-32 साल के आदमी ने बगल में खड़े होकर पूछा… वासेपुर का ट्रेलर आ गया ना? हमने हामी भरी और पूछा आपने देखा? तो वो बोला मैंने तो पूरी फिल्म देख ली है। उसमें तिग्मांशू की जवानी का रोल मैने ही तो किया है। फिर परिचय हुआ तो महसूस हुआ कि रजत भगत नाम के उस शख्स की बातों में एक टीस थी कि वो पूरा रोल उन्हें नहीं मिल पाया। उसके लिये अब भी एक पहचान का संकट है और वो लगातार उस संकट से मुक्त होने के संघर्ष में जुटा है।
एक स्ट्रगलिंग एक्टर जिसे लोग तब जान पाते हैं जब वो खुद लोगों को बताता है कि वो पहले सात साल दिल्ली से थियेटर करके आया और अब 10 साल से मुम्बई में है। और स्टाईल से लेकर भिन्डी बाज़ार तक लगभग सात फिल्मों में काम कर चुका है। ऐसे लोगों को देखकर हमें क्या महसूस होता है ये बिल्कुल गैरज़रुरी है, ज़रुरी ये है कि उन्हें इस संघर्ष का हिस्सा होने में कितना मज़ा है। रात के अंधेरे में बहुत देर तक अकेले समन्दर की लहरों को निहारते रचत भगत जब इस संघर्ष को मजे़दार बताते हैं, तो मुझ जैसे नये लोगों का उत्साह कई गुना बढ़ जाता है।
2 Comments
rajeshwari
(July 3, 2014 - 4:57 am)आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ। आपके लेखन का अंदाज़ मन को छू गया। पढ़ते समय महसूस हुआ हम भी वहीँ कहीं आस पास हैं / थे। आगे भी ऐसे ही लिखते रहिये। आपको बहुत २ शुभकामनायें।
Gullak
(July 3, 2014 - 4:09 pm)धन्यवाद आपका राजेश्वरी जी … प्रयास जारी रहेगा 🙂