मुंबई डायरी: १ (जून 2011)
कुछ दिन पहले हिन्दी की जानी मानी वैबसाईट मोहल्ला लाइव के सम्पादक अविनाश जी ने फेसबुक पे पिंग किया। न हैलो। न हाय। सीधे कहा उमेश मुम्बई डायरी लिखा करो। आईडिया मुझे अच्छा लगा। उस बात को हफ्ते से उपर हो आया था। कुछ लिख नहीं पाया। कुछ ऐसा नया और खास हो ही कहां रहां था। वही रोज घर से आफिस (बालाजी टेलीफिल्म्स) का काम निपटा रहा था। रोज वर्सोवा का एक चक्कर लग रहा था। हां कुछ महीनों से लगातार वर्सोवा आने जाने की वजह से वहां कुछ लोगों की शक्लें पहचान में आने लगी थी। वो भी मेरी ही तरह रोज़ वहां आते हैं। बीच में एक दिन एक लड़की को देखा। पीली सलवार कमीज में थी। लगभग चालीस मिनट तक अपने दोस्तों के साथ लहरों में बच्चों की तरह पागल सी खेलती रही। खूब हंसी और कूदी। फिर शायद किसी ने कहा चलो। वापस किनारे पे आई, एक पत्थर के नीचे से एक पौलीथीन निकाला। उससे एक काला लबादा। फिर उस बुरके को पहन लिया। उसके चेहरे का भाव और वो हंसी कहीं बिल्कुल गायब हो गई। वो हंसती खेलती लड़की अब काले लबादे में लिपटी एक गम्भीर लड़की में बदल गई थी। कुछ चीजें हमें कितना बदल देती हैं। जो हम हैं वो नहीं रहने देती। बांध देती हैं। किसी अदृश्य जेल की सलाखों के भीतर बंद कर देती हैं। कभी कभी धर्म ऐसी चीजों में से एक लगता है । एक ऐसी चीज़ जो आपको, आपके विचारों को, आपकी इच्छाओं को कितना नियंत्रित कर देती है, कितना जकड़ सा देती है।
खैर इन दिनों वर्सोवा के बारे में जाना कि वर्सोवा गांव दरअसल एक मछुआरों का गांव है। कोली समाज के लोग इस गांव में रहते हैं। अरब सागर इस बीच के सामने लहराता है। इसके नामकरण के पीछे की कहानी यही है कि छत्रपति शिवाजी इसी समुद्री किनारे पर अपनी नौसेना को युद्ध के बाद आराम करवाने के लिये लाया करते थे। वर्सोवा दरअसल वैसेवी का अपभ्रंश है और इस मराठी शब्द का मतलब ही है आराम करना। वर्सोवा गांव में तेरह गली हैं। पास ही एक वर्सोवा फोर्ट भी है। सुना है कि यहां काठवाड़ी समाज के भी कुछ सौ लोग रहते हैं। खैर शाम के वक्त आप मछुआरों की नावों को मछलियों की खोज में समुद्र के अनन्त विस्तार की ओर जाते देख सकते हैं। उस वक्त वहां का नजारा टेरेंस मलिक की फिल्म डेज आफ हैवन की याद दिला देता है।
बीच से अलग इस बीच नयी बात ये हुई थी कि एक दिन मन किया और नेट से लगभग 50 बेहतरीन सूफियाना सौंग्स डाउनलोड कर लिये थे। तब से घर में रोज अपने लैपटौप को स्पीकर से कनैक्ट कर बहुत तेज़ आवाज़ में इन गानों को सुनने लगा। इस भीड़ भरे शहर में अगर आप नये हों और कोई घर से ही की जा सकने वाली जौब कर रहे हों तो आप अकेलेपन को बहुत गहरे तक महसूस करने लगेंगे तय है। आप उस अकेलेपन में आज़ादी के निशान पाकर कई मर्तबा खुश जरुर होंगे, रोज़ रोज़ आफिस जाने के झंझट से मुक्त होते हुए आप खुद को खुशकिस्मत भी महसूस करने लगेंगे, लेकिन आपकी नये लोगों से दोस्ती बमुश्किल हो पायेगी और ये सचमुच थोड़ी चिन्ता की बात तो है ही। खैर मेरे साथ राहत की बात ये है कि कुछ दोस्त मुम्बई में हैं। कुछ जो अच्छे दोस्त से पुराने क्लासमेट भर हुए जा रहे हैं और कुछ जो पुराने क्लासमेट थे अच्छे दोस्तों में तब्दील हो रहे हैं। जिनके साथ रह रहा हूं वो भी पुराने दोस्त हैं। उम्मीद रहती है कि बाकि दोस्तों से हफ्ते, दो हफ्ते, महीने ….कभी न कभी तो मिलेंगे ही। कई बार उन्हें खो देने की आशंका से भी डर लगने लगता है। ये शहर आपको दोस्तों की कीमत बहुत अच्छी तरह समझा देता है। मम्मी, पापा, दीदी और भाईयों से बातें करना मलहम सा लगता है। दिन में एक बार ये मलहम लगाना जरुरी सा लगने लगा है। जिन्दगी के सबसे बेहतरीन लमहों में से एक होते हैं वो कुछ पल। और तब तब फोन किसी वरदान से कम नहीं लगता।
बीच में एक दिन मुम्बई में बारिश ने दस्तक दी। पिछले कुछ दिनों से गर्मी ज्यादा थी। बारिश ने गर्मी के निशान तक रफा दफा कर दिये। और मौसम को बेहद रुमानी बना दिया। दिन का तीन बज रहा था। बाहर बारिश थी, पत्ते भीग रहे थे, ज़मीन गीली हो रही थी और मिट्टी की एक सौंधी सी खुशबू ला रोज़ अपार्टमेन्ट के छटे माले से बाहर निकलने को मजबूर कर रही थी। मुम्बई के घरों की खासियत होती है
एक दीवार भर चौड़ी खिड़की। जिसके बाहर एक खूबसूरत रिमझिमाहट पसर रही थी।इस बरसात को बस देखकर ही मन कहां मानता। सोचा घर से निकलना चाहिये। कहीं भी। स्टेशन के लिये रिक्शा लिया। थोड़ी देर घूमकर सोचा कि कहां चला जाये। फिर बांद्रा का टिकट लिया और अपने फेवरेट बैंडस्टेंड की ओर रवाना हो गया। बैंडस्टेंड के पास लिंकिंग रोड में एक मार्केट है। सोचा कुछ खरीद ही लिया जाये। उतरा तो पता चला मार्केट लडकियों की है। लड़कों के कपड़े वहां मिलते ही नहीं। फिर भी एक आध टीशर्ट उस दुकान से खरीद ली जो अपवाद थी। अपवाद तो हर जगह होते ही हैं। खैर भूख लगी थी तो गीली भेल पार्सल करवाई और बैडस्टेंड के लिये फिर रिक्शा लिया। सी लिंक के पास बैंडस्टेंड के छोर पर एक उंची दीवार है वहां जाकर गीली भेल के पार्सल को खोला और उसे चाव से खाया। इस छोर से बैन्ड्रा वरली सीलिंक का बेहद खूबसूरत नजारा दिखाई देता है। लगभग 1600 करोड़ रुपये की लागत से बने इस समुद्री सेतु ने बैंड्रा से वरली पहुंचने में लगने वाले लगभग 45 मिनट के समय को सात मिनटों की दूरी बना दिया है। पुल यही तो एक अच्छा काम करते हैं। दूरियां बहुत कम कर देते हैं। काश कि रिश्तों के लिये भी ऐसे ही पुल होते। इस बीच वहां बैठे बैठे एक कौए और सीलिंक की एक तस्वीर अपने फोन में उतारी। ऐसी जगहों पर अक्सर लोग अकेले नहीं आते। कोई ऐसा अकेला दिखे तो अपना सा लगने लगता है। मुझे कोई नहीं दिखा। खैर फिर कुछ देर बैंडस्टेंड में घूमने के बाद वहीं किसी दूसरी जगह बैठकर सूफियाना गानों के उस कलैक्शन की अपनी प्लेलिस्ट को फोन पर चालू कर दिया। कानों में एक एक कर गीत बहने लगे। सामने एक विशाल समुद्र बह रहा था। कुछ देर बहने के इस सिलसिले के बाद एक मैसेज आया। लाईनअप फौर एपिसोड 234 मेल्ड। यानि कि मुझे घर वापस आना था और औफिस के काम पर जुट जाना था। खैर मैने तुरंत औटो लिया और वापस घर आकर काम पर जुट गया।
वापस आकर फेसबुक पे नीलेश मिस्रा की वाल पर एक लिंक मिला। 5 तारीख को बैंड काल्ड नाईन के पहले म्यूजिक एलबम का लौंच था। पांच तारीख कल ही थी। आज शाम फिर बारिश हो रही थी। बिना छाता लिये घर से निकला। भीगते हुए औटो लिया। औटो ने स्टेशन छोड़ा। लोवर परेल का एक रिटर्न टिकट हाथों में था। फोन के ड्राफट में ब्लूफ्रौग बार का पता सेव किया हुआ था। लोअर परेल पे ट्रेन से उतरा और ड्राफट मे पता देखा। स्टेशन से बाहर आकर एक आदमी से पूछा कि ब्लू फ्रौग बार कहां पे है। उसने बताया यहां से यहां फिर ऐसे। कुछ देर उससे बात हुई तो बोला वही बार ना जहां लड़कियां भी आती हैं। वहां तो सबकुछ होता है। मुझे सचमुच नहीं पता उसके सबकुछ का अर्थ क्या था। लेकिन ये सोचना बड़ा रोचक है कि मुम्बई के ज्यादातर लोग जो ऐसी हाई फाई कही जा सकने वाली जगहों पर नहीं जा पाते वो इन जगहों के बारे में किस किस तरह की फेन्टेसी में जीते होंगे। खासकर ऐसी जगहों के गार्ड ऐसी जगहों में आने वाले लोगों के बारे में क्या सोचते हैं ये जानना सचमुच किसी कहानी से कम नहीं होगा। खैर आज यहां फ्री एंट्री थी। सवा आठ बजे मैं बार में था। बार टैंडर्स की एक कतार के सामने खड़ा होकर मैने टाईम देखा। अभी लगभग एक घंटा शेष था। क्या किया जाये समझ नहीं आया। लोगों को देखा। हर कोई किसी न किसी के साथ था। सोचा कि मुझे भी किसी के साथ आना चाहिये था। कुछ लोगों को उसी बीच मैसेज किया। लोगों के जवाब आये कि इन्विटेशन के लिये शुक्रिया पर अभी आ नहीं पायेंगे। एक दोस्त जो आना चाहती थी बीमार थी। इस बीच नीलेश मिस्रा स्टेज के पास से आते दिखे। सोचा कि उनसे बात की जाये। पर वो तुरंत बिज़ी हो गये। कुछ और लोग उनसे बात करने में जुट गये। मैंने आकर एक टेबल पे कब्जा कर लिया। अब वहां से उठने में कब्जा खो देने का डर लगने लगा। और अपनी जगह से कब्जा खो देने का डर मुम्बई में रहने वालोें का सबसे बड़ा डर है यकीन मानिये।
खैर कुछ देर में नीलेश अकेले खड़े दिखाई दिये। उनसे जाके बात की। उन्होंने बताया कि ब्लू फ्रौग में अक्सर वैस्टर्न म्यूजिक के परफोरमेंस ही हुआ करते हैं। हमारा कन्सेप्ट यहां के लिये नया है। स्टोरीटेलिंग और म्यूजिक का ये मिक्सचर वैसे भी एक नया कौन्सेप्ट है। देखें कैसा रिस्पौंस रहता है। नीलेश कुछ देर अपने गले को आराम देना चाहते थे। उनसे ये एक बेहद छोटी मुलाकात थी। और शायद याद शहर का एक बहुत छोटा सा कोना भी। इतनी देर अकेले एक तरह से बोर होने के बाद उनसे उम्मीदें कुछ बड़ गई थी। खैर निर्धारित समय से कुछ देर बाद प्रोग्राम शुरु हुआ। पहेले फौर्मली नीलेश और उनके साथियों के डैब्यू म्यूजिक एलबम रिवाइन्ड को लौंच किया गया। संगीतकार विशाल डडलानी लौंच के लिये वहां मौजूद थे। पर उसके बाद वो नहीं दिखे। नीलेश ने एक कहानी कहनी शुरु की। कहानी क्या थी एक रिश्ते का सफर थी। जो बना, पला, बढ़ा, और एक दिन बिखर गया। फिर उसे जोड़ने की कोशिशें भी हुई। कुछ ऐसी ही थी वो कहानी। वो कहानी नीलेश की आवाज़ में एक सफर ही तो लग रही थी। इस सफर में जैसे ही एक पड़ाव आता शिल्पा राव की मीठी आवाज़ गूंजने लगती। कभी कभी नीलेश खुद भी गाने लगते। उनके साथ एक और वोकलिस्ट थे। वहां यादों के इडियट बौक्स में न जाने क्या क्या चल रहा था। कोई दर्जी दिल को रफू कर रहा था। और ये सब होते हुए बार में बैठे बहुत सारे लोग वाईन या बियर के नशे में घुल रही नीलेश की आवाज़ से पैदा हुए एक लिरिकल नशे में झूमने लगे थे। उनकी कहानी में शायद हर कोई अपनी कहानी तलाश रहा था।
एक प्यार जो शादी में बदला। फिर किसी बैंक का एक अकाउंट भर हो गया। जो तब तक चलता रहा जब तक लेन देन के गणित ने उसे प्रभावित नहीं किया। लेकिन जहां बैंक के जौंईंट अकाउंट जैसी चीजें रिश्ते में आई वहां जौईंट रहना मुश्किल हो गया। प्यार अकाउंटेंसी की ज्योग्रेफी में ऐसा फंसा कि हिस्ट्री हो गया। नीलेश कहानी कहते कहते स्टेज से बाहर आकर लोगों के बीच घूमने लगते। और ब्लू फ्रौग में समाई सारी आंखें उनका पीछा करने लगती। मेरी आब्जर्वेशन ने यही कहा कि वहां बैठे बहुत सारे लोग अपने अपने रिश्तों को खंगालने लगे थे। वो सोचने लगे थे कि नीलेश जो कह रहे हैं कहीं उनकी ही कहानी तो नहीं है। खैर कंसर्ट पूरा हुआ। और वैस्टर्न म्यूजिक को पसंद करने वाले लोगों ने हिन्दी में की गई इस किस्सागोई को भी भरपूर सराहा। मतलब ये कि हिन्दी की कहानियों को यदि इस तरह के किसी कलेवर में पेश किया जाये तो उनके लिये सम्भावना ज़रुर है। इसलिये बैंड काल्ड नाईन की ये पहल एक उम्मीद भी लगती है। लेकिन हिन्दी में गम्भीर मुद्दों पर लिखी कहानियां इसकी जद में शायद नहीं आ पायेंगी। उन कहानियों को अपने लिए अलग स्पेस तलाशना होगा। ऐसी जगहों पर सुनायी जाने वाली कहानियों में रुमानियत और प्यार का होना शायद लाजमी रहेगा। खैर फिर भी किस्सागोई का ये नया और मौडर्न तरीका अच्छी पहल तो है ही। इसमें कोई शक नहीं है।
कन्सर्ट पूरा हुआ। मैने वापसी की राह पर कदम रखे। मोबाईल से निकले सूफियाना कलाम फिर कानों में बहने लगे। रात के साढ़े ग्यारह बजे थे। ट्रेन अन्धेरी स्टेशन की तरफ वापस चल पड़ी थी। ट्रेन में इस वक्त बिल्कुल अलग तरह के लोग सफर कर रहे थे। जिनके नाक नक्श कपड़े और आत्मविश्वास कतई ब्लू फ्रौग में बैठे लोगों से मेल नहीं खाते थे। एक छोटा सा बच्चा ठीक मेरी सीट के सामने वाली सीट पर बैठा था। मुझे घूरे जा रहा था। उसका घूरना बहुत अच्छा लग रहा था। मैं जैसे ही उसे देखता वो नज़र फेर लेता। खिड़की से बाहर दूसरी पटरी पर दूसरी रेलगाडि़यों को भागता देखने लगता, शायद। मैं उससे बात करना चाहता था। पर वही हिचकिचाहट। मुझे कभी कभी लगता है कि लोग अजनबी क्यों होते हैं। क्यों हम जिससे चाहे उससे बिना हिचकिचाहट बात नहीं कर पाते। क्यों राह चलता कोई भी इन्सान एक इन्सान होने से पहले, दूसरी जगह से आया, दूसरी तरह से सोचने वाला, दूसरे का दोस्त या रिश्तेदार होता है। उसके बाहर इतनी परतें, इतने कवच होते हैं कि उन्हें भेदकर उस तक अपनी बात पहुंचाने में डर लगता है। या फिर डर लगता है इसलिये उनके बाहर ये परतें या कवच दिखाई देने लगते हैं।
कई बार अन्जान जगहों पर ऐसे ही अपने मोबाईल से खींची हुई तस्वीरों में अजनबियों को देखता हूं। सोचता हूं मैं भी तो कुछ लोगों की तस्वीर में अजनबी हूंगा शायद। इस शहर में कब तक अजनबी ही रहूंगा पता नहीं। गुमनामी से बहुत डर लगता है। हांलांकि अजनबी और गुमनाम होने के अपने कई फायदे भी हैं। फिर भी ज्यादा लम्बे समय तक आप अजनबी तो नहीं बने रह सकते। खैर ट्रेन में बैठे बैठे यही सब उल जुलूल सोचते हुए अनाउन्समेंट सुनाई दिया। पुढ़े स्टेशन अन्धेरी। जानी पहचानी जगह थी। अपने कमरे में जाने के लिये यहीं तो उतरना था। उतरा और फिर रिक्शे वाले ने घर पर छोड़ दिया। ये एक उस रात की बात थी जो अच्छी गुजरी। बहुत दिनों बाद कुछ नयापन सा लिये। कुछ नया सा होगा तो फिर लिखूंगा। देखें फिर कब कुछ नया सा होता है।
2 Comments
Praveen kumar
(May 17, 2014 - 11:54 pm)डायरी कि तारीख तो पीछे छूटी मालूम पड़ रही हैं, खुशबू तो आज के गुजरे हुए रास्तो की आ रही हैं . काफी दिनों बाद आप का blog पढने का टाइम मिला.
auspicee
(May 29, 2014 - 1:35 am)Miraculous Words !