अनु सिंह चौधरी :
आदित पहाड़ की एक चोटी पर खड़ा है। अभी-अभी ठीक दस मिनट पहले मैंने उस चोटी से नीचे झाँकने की ज़ुर्रत की थी। बड़े-बड़े नुकीले पत्थरों से बना हुआ पहाड़ का वो हिस्सा कई छोटी छोटी पहाड़ियों में बँटता हुआ नीचे मुक्तेश्वर की खाई में कहाँ जाकर मिलता है, चोटी से आप ये नहीं देख सकते। नीचे दूर तक पसरी मुक्तेश्वर की गहरी खाई है, गाँव हैं, घर है कहीं कहीं और हरियाली को चूमते बादल हैं। हमें यहाँ तक लेकर आए हमारे ड्राईवर खेमराज साब का दावा है कि मुक्तेश्वर वैली उत्तराखंड की सबसे बड़ी, सबसे खुली हुई वैली है। मैं एक बार फिर नीचे झाँककर देखती हूँ। वाकई, ये जगह खुलकर साँस लेती-सी लगती है! हालाँकि जिस तेज़ी से पर्यटन के व्यवसाय के लिए पहाड़ कट रहे हैं और गाँव गायब हो रहे हैं, उतनी ही तेज़ी से ये वैली सिकुड़ती जा रही है।
ध्यान वापस आदित की ओर है जो अभी भी पहाड़ की चोटी पर खड़ा अपने ट्रेनरों के निर्देश को ध्यान से सुन रहा है। नीचे की खाई और आदित के बीच का फ़ासला देखकर मेरा कलेजा मुँह को आ जाता है। धड़कनों की आवाज़ तेज़ होते-होते चेहरे पर पसरने लगती हैं। मेरे भीतर से कोई चीख-चीखकर कहने को बेताब है, “बेटा, उतर जाओ वहाँ से। कोई ज़रूरत नहीं है एडवेंचर करने की। रैपलिंग या रॉक क्लाइम्बिंग नहीं करोगे तो दुनिया इधर की उधर थोड़े न हो जाएगी?”
मुझे सुहैल शर्मा की याद आ जाती है जो 2015 के एवरेस्ट एवलांच में मौत को छूकर आया था, और फिर निकल गया था अगली ही टोली के साथ एवरेस्ट की चोटी छूकर आने की ख़ातिर। मैं सुहैल से काठमांडू में मिली थी, नेपाल भूकंप के दौरान। पूछा था मैंने उससे कि पहाड़ों से ख़तरे मोल लेने की ये कौन-सी आदत है? उसने मुझे एक सिर्फ़ एक जवाब दिया था, “मैं एवरेस्ट की चोटी पर खड़ा होकर एक हाथ में अपने पापा की तस्वीर और दूसरे में तिरंगा लिए एक फ़ोटो ऑप चाहता हूँ बस।” मैं जवाब की अगली कड़ियों का इंतज़ार करती रही थी। बड़ी देर से समझ आया था कि सुहैल का जवाब ख़त्म हो गया था। वो वाकई बस इसी एक लम्हे के लिए अपनी जान हथेली पर लिए एवरेस्ट को नापने निकला था। पागल कहीं का!
लेकिन आदित – दस साल का आदित – इस रॉक क्लाइम्बिंग के लिए क्यों निकला था? मैं क्यों बुत बैठे उसे वो करते हुए देख रही थी जो वो करना चाहता था? मैं चीख-चीखकर उसे मना क्यों नहीं कर रही थी? जहाँ मेरा बेटा खड़ा था वहाँ से नीचे जाने पर किसी इंसानी जिस्म का क्या हाल हो सकता था, मेरे लिए ये सोच भी वर्जित थी। लेकिन मन का क्या है?! वर्जनाएँ तोड़-तोड़कर शंकाओं के लिए नई-नई ज़मीनें तलाश करता रहता है ये मन!
आदित उतनी देर में रस्सियों में बँधा हुआ पहाड़ से नीचे उतरने लगा था। पत्थर पर पाँव रखकर नब्बे डिग्री पर अपने शरीर को झुलाता हुआ, संभल संभल कर हवा में लटके अपने शरीर के लिए पैरों से अपने लिए ज़मीन तलाश करता हुआ… पहाड़ की चोटी और सत्तर फीट नीचे तक के उसके सफ़र के बीच दो इंस्ट्रक्टर उसकी हौसला अफ़्ज़ाई कर रहे थे, एक ऊपर से और एक नीचे से। मैं वहाँ से अलग होकर बैठी थी, करीब पचास फीट दूर, चुपचाप उसके एक-एक कदम के साथ अपनी साँस-साँस गिनती हुई।
दूर कहीं से किसी के गाने की आवाज़ आ रही थी। जहाँ हम थे वहाँ सैलानी मुक्तेश्वर घाटी का 220डिग्री नज़ारा देखने के लिए आते हैं। खुले हुए दिनों में नंदादेवी भी दिखाई पड़ती हैं वहाँ से, लेकिन उस दिन घने बादलों और धूप के बीच की लुकाछिपी थी। सैलानियों का आना शुरू हो गया था। गानेवाला गाइड उनके मनोरंजन के लिए कभी मोहम्मद रफी तो कभी सुरेश वाडेकर की घटिया नकल उतार रहा था। कुमार सानू तक आते-आते उसको झेलना आसान हो गया था। जितनी बार वो होSSSओSSS का आलाप लेता, उतनी बार मुझे इस बात का डर लगने लगता कि कहीं आदित का ध्यान उसकी बेसुरी आवाज़ से तो नहीं भटक जाएगा।
लेकिन ऊपर बढ़ती सैलानियों की भीड़ से बेपरवाह आदित जितनी सहजता से धीरे-धीरे नीचे उतरता चला गया था, उतनी ही आसानी से ऊपर चढ़ने की शुरुआत भी कर दी थी उसने। उसके इंस्ट्रक्टर और ऊँची आवाज़ में उसे निर्देश देने लगे थे, मेरे बगल में बैठी आद्या की जकड़ मेरे हाथ पर मज़बूत होती चली गई थी। आदित के बाद इस एडवेंचर के लिए आद्या को उतरना था।
आदित के ऊपर पहुँचते ही बिना देर किए मैंने आद्या को पहाड़ की ओर धकेल दिया। अब जाओ, तुम भी कर लो अपनी ज़िद पूरी! भीड़ बढ़ती जा रही थी। पता नहीं कहाँ से गुजराती टूरिस्टों का एक पूरा जखीरा उस पहाड़ पर उतर आया था। जिन रस्सियों को दूर ले जाकर पेड़ों में बाँधा गया था, और जिनके सहारे बच्चे उतर रहे थे, उन रस्सियों को लोग आते-जाते उठा-उठाकर देखते। किनारे से चलने की ज़ेहमत किसी को गवारा नहीं थी। इंस्ट्रक्टर चिल्लाते रहे, लेकिन लोग उन्हीं रस्सियों के आर-पार आते-जाते रहे। मुझे डर था कि कहीं रस्सियाँ ढीली होकर बच्चों को नुकसान न पहुँचा दे। तबतक आद्या के कमर में रस्सियाँ बँध चुकी थी और अब पहाड़ की चोटी पर खड़ी होने की बारी उसकी थी।
मैं जहाँ थी, वहीं बैठी रही। बस दो बार चीखकर लोगों पर रस्सियाँ छूते ही बरसी थी। उससे ज़्यादा योगदान मेरा था नहीं। बच्चे अपना डर एडवेंचर करते हुए निकाल रहे थे, मेरे लिए उनको देखकर अपना जिगर संभाले रखने का काम ही बहुत था।
आद्या के पैर काँप रहे थे। चोटी से उतरते हुए उसके कदम डगमगाने लगे थे। उसके चेहरे पर डर साफ़ दिखाई दे रहा था। भीड़ बढ़ गई थी और आस-पास पहाड़ों से झाँकती हुई, आद्या को देखती हुई गुजराती पब्लिक की लाइव कमेन्ट्री भी चालू हो गई थी। “देख न, छोरी को देख… क्या कर रही है!” “अरे रस्सी बँधी हुई है।” “तो क्या हुआ?” “आप माँ हो उसकी?” मेरे बगल में एक अधेड़ अंकल आकर खड़े हो गए। मैंने कुछ कहा नहीं, सिर्फ़ सिर हिला दिया। “इसमें क्या मज़ा मिल रहा है आपको, हैं? बच्चों को ऐसे नीचे उतार दिया? कुछ हो-हवा गया तो?” मैं चुपचाप आद्या को देख रही थी। उसके पैर अभी भी काँप रहे थे। अपनी बहुमूल्य राय मुझसे बाँट लेने के बाद अंकल पहले आद्या का, और फिर मुक्तेश्वर घाटी का वीडियो लेने में मसरूफ़ हो गए। मेरे जी में एक बार को आया कि उनके हाथ से फ़ोन खींचकर नीचे पहाड़ों के बीच कहीं फेंक दूँ!
आद्या मुश्किल से दस फीट भी नहीं उतर पाई थी। या तो वो डर गई थी, या फिर लोगों की इतनी बड़ी भीड़ देखकर इतनी नर्वस हो गई थी कि उसे इंस्ट्रक्टरों के निर्देश ठीक से समझ नहीं आ रहा था। वजह जो भी हो, वो डर के बार-बार रस्सी छोड़ देती थी और उसका शरीर पहाड़ से टकराते हुए झूल जाता था। मैं चीख भी नहीं सकती थी। तमाशा देखनेवालों की भीड़ ने वो ज़िम्मा उठा लिया था।
इतनी देर में आद्या को देखने की ख़ातिर आदित उसी बड़े से पत्थर के कोने से झाँकने लगा जहाँ से रैपलिंग की शुरुआत होती थी। मैंने दूर से देखा कि उसका आधा शरीर पहाड़ से लटका हुआ है और वो वहीं से अपनी बहन का हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। भीड़ की रनिंग कमेंट्री की झल्लाहट थी और आद्या की डर का डर भी था, मैं ज़ोर से आदित पर चिल्लाई। आदित ने सहमकर अपना शरीर पत्थर के पीछे खींच लिया और दूर कोने में जाकर बैठ गया। बिना आदित पर ध्यान दिए मैंने चिल्लाकर आद्या से कहा कि अगर उसका एडवेंचर करने का मन नहीं है तो वो वापस आ सकती है। “यू हैव ट्राइड वेल आदू। वापस आने का मन हो तो बोलो,” मैंने कहा।
आद्या ने मेरी नहीं सुनी और धीरे-धीरे पहाड़ उतरती रही। नाराज़ होकर बैठ उसके भाई ने नहीं देखा कि कैसे अचानक आद्या के पैर बड़े भरोसे के साथ पत्थरों के कोने तलाशते हुए अपने लिए ग्रिप ढूंढ रहे हैं और फिर कैसे उन्हीं ग्रिप को खोजते हुए वो वापस ऊपर चढ़ने लगी है। बल्कि क्लाइम्बिंग का सफर उसने बड़ी तेज़ी से तय किया। चीखने-चिल्लाने वाली भीड़ अब आद्या के लिए तालियाँ बजा रही थी। लोग साँस रोके पत्थरों के पीछे से झुक-झुककर उसके ऊपर आने का इंतज़ार कर रहे थे। कुछ लोगों ने तो ऊपर से ही उसके लिए ग्रिप ढूँढने का काम शुरू कर दिया था। “बच्ची, बाएँ देखो बाएँ…” “तुम्हारे पैर के दस इंच नीचे… हाँ हाँ बस उधर ही उधर ही…” “अपना शरीर ऊपर खिसकाओ… न न… रस्सी दाएँ से नहीं, बाएँ से पकड़ो…!”
कुछ लोगों के शोरगुल का असर था, कुछ आद्या के भीतर लौट आया आत्मविश्वास था – आद्या बड़ी तेज़ी से ऊपर चढ़ते हुए वापस पहाड़ की चोटी पर जा खड़ी हुई। लोग उसके लिए तालियाँ बजा रहे थे, चियर कर रहे थे। कोने में आदित मुँह फुलाए आँसू बहा रहा था। मैं उसको चढ़ते देखते हुए इतनी मशगूल हो गई कि उसकी तस्वीरें लेना ही भूल गई!
आदित पहले उतरा था, डरा भी नहीं था, बहादुरी से एडवेंचर किया था उसने। जबकि आद्या डर रही थी। उसका पूरा शरीर काँप रहा था। वो तो आद्या से ज़्यादा बहादुर था। लेकिन इतने सारे लोगों ने उसके लिए तालियाँ तो बजाईं नहीं। ऊपर से मम्मा की डाँट पड़ी सो अलग।
मैंने दोनों बच्चों को गले लगाया। आदित को दो मिट्ठू ज़्यादा मिले – एक उसकी बहादुरी के लिए, और एक माफ़ी के तौर पर। गुजराती सैलानियों की टीम बिखरकर चौली की जाली की ओर बढ़ने लगी थी। लेकिन नाना-नानी, बाबा-दादी, काका-काकी की उम्र के लोग आते-जाते बच्चों के सिर पर हाथ फिरा रहे थे। आद्या के कंधों को ज़्यादा शाबाशियाँ मिलीं। आदित के सिर पर हाथ फिराने के लिए लोगों को मैं और बच्चों के इंस्ट्रक्टर, दोनों को याद दिलाना पड़ता था।
और इस एडवेंचर ने मुझे – आदित और आद्या की मम्मा को ज़िन्दगी के दो-चार सबक हाथ-ओ-हाथ दे दिए।
- हममें से अधिकांश लोग चोटी पर बैठे हुए खाई की ओर देख रहे होते हैँ। छलाँग लगाकर गहराई को नापने की हिम्मत जो रखता है, क़ायनात उसी के हिस्से में हैरानियाँ और चमत्कार रखती है।
- लीप एंड द नेट विल अपियर। कूदो और ये यकीन रखो आसमानों के पास तुम्हारी हिफ़ाज़त के लिए रस्सियों के जाल फेंकने का हुनर है। ऑल्वेज़ हैव फेथ।
- डर जीतना बड़ा होता है, उस पर जीत उतनी ही बड़ी होती है।
- तुम्हारी किस्मत कभी आदित की तरह होगी कि तुम्हारी बहादुरियों और जज्बे से ज़्यादा आद्या-सी कोशिशों पर तालियाँ बजेंगी, तारीफ़ें मिलेंगी। लेकिन पहाड़ नापने की हिम्मत न हम तालियों के लिए करते हैं न तारीफ़ों के लिए। वो हिम्मत हम अपने लिए करते हैं, ख़ुद गिरते संभलते हैं। तालियाँ और वाहवाहियाँ फ्रिंज बेनेफ़िट हो सकती हैं, लक्ष्य नहीं। लक्ष्य तो चिड़िया की आँख है। सॉरी, पहाड़ की वो चोटी, जिसपर सही सलामत लौट जाना है।
- तुम्हें गिरते-सँभलते देखकर किनारों पर से चीख-चीखकर सलाह देने वाले बहुत मिलेंगे। तुम्हारे गिरने पर वो कहेंगे, “हम न कहते थे?” तुम्हारी जीत पर कहेंगे, “हमें तो इसके दम-खम का पहले से अंदाज़ा था!” जहाँ खड़े हैं वहाँ से उनके वश में इतना ही है बस। उनकी परवाह न करना, उनसे ख़ुद को बचाए रखना इस दुनिया का सबसे दुरूह मेडिटेशन है।
- ज़िन्दगी की गहराईयों और ऊँचाईयों को नापने-पहचानने का काम हम अपने लिए करते हैं, किसी के सामने कुछ प्रूव करने के लिए नहीं। हम ख़तरे अपने लिए उठाते हैं। अपने डर अपने लिए बचाए रखते हैं और अपने लिए उनपर फ़तह हासिल करते हैं। (सुहैल मर के लौट आने के बाद भी एवरेस्ट पर चढ़ाई के लिए क्यों निकल पड़ा था, अचानक ये बात मुझे समझ आ गई थी!)
- और आख़िरी बात – मुझे अब लगातार ब्लॉग लिखना शुरू कर देना चाहिए। यूँ लग रहा है कि जैसे मैंने अपनी किसी प्यारी सहेली से दिल की बात कह दी हो!