हम ईदगाह पढ़ते बड़े हुए। और जब जब हामिद के चिमटे ने उसकी दादी की आंखें को खुशी से सराबोर कर दिया हमें लगा कि ईद आ गई। और आज फिर जब ईद आई है हमें हामिद की दादी याद हो आई है। उसी चिमटे उन्हीं खुशी भरे आंसुवों के साथ। जामिया में पढ़ते उसे समझते मुझे पांच साल हो आये हैं। पर जामिया को मैने कभी उस रुप नहीं समझा जिस रुप में मीडिया अक्सर हमें समझाता रहा है। मुझे जब जब मोहन चंद्र शर्मा से हमदर्दी हुई तब तब मुझे ये भी लगा कि मैं एक जामिया का छात्र हूं और क्योंकि मैं अपने देश के खिलाफ दहशतगर्दी भरी निगाहों से नहीं देख सकता मेरा जामिया का कोई भाई भी मेरी ही तरह जामिया का एक छात्र है। कम से कम जामिया का छात्र होना उसे दहशतगर्द नहीं बना सकता। जैसा कि मीडिया अपरोक्ष रुप से कहता रहा। कम से कम दीपक चैरसिया मार्का मीडिया तो यह हिमाकत करता रहा।
इन पांच सालों में मैंने रोजे में कमजोर पड़ती अपने दोस्तों की आंखों को बड़ी गौर से देखा और मुझे हमेशा लगता रहा कि मेरी मां की आंखें इससे जुदा नहीं लगती रही थी जब वो अपनी गोद में मेरे सोने का इन्तजार करती थी। सुबह की सेहरी में क्या खाया शाम ढ़लते ये बताते हुए इफतार करने का इन्तजार मैने उन आंखें में देखा है इन पांच सालों में और मुझे हमेशा उस इन्तजार में एक अजीब सा संयम नजर आया है। उस सिंवई का स्वाद आज भी भुलाये नहीं भूलता जिसे जेएनयू की एक सेमीनार में कटटरपंथियों के विषवमन के ठीक बाद मैने खाया था और उन कट्टरपंथियों पर मुझे दिल से बड़ी हमदर्दी हुई थी कि काश उन्होंने ये सेवंई खाई होती। काश उन्हें इसका स्वाद पता चल पाता।
आज मैं जामिया में गुजरे इन पांच सालों का तहे दिल से शुक्रिया करना चाहता हूं क्योंकि कम से कम मैं अपनी आने वाली पीढ़ियों को वो संस्कार नहीं दुंगा जो गोविन्दपुरी के उस चौदह साल के बच्चे को शायद उसके मां बाप ने दिये थे जिसकी वजह से उसने मुझे बड़ी हिकारत से देखा था और कहा था आप जामिया में पड़ते हो मेरे भाई का एडमिशन भी वहां हो गया था लेकिन हमने उसे वहां नहीं भेजा। उसने न ज्यादा कहने की जरुरत समझाी न मैने ज्यादा सुनने की। पर समझ दोनो ही गये थे कि उस बात के मायने क्या थे। आज ईद है और इस ईद को मैं इतनी गहराई से महसूस कर पा रहा हूं तो इसकी वजह है जामिया। ईद के इस मौके पर चंद पंक्तियां उन सभी के लिए जो इसकी खुशी को महसूस करना चाहते हैं हामिद की दादी की आंखों की चमक लिये हुए
लो आ गई ये रात,
कई रोज़ कई रोजों के बाद,
कितने लमहों से इन्तजार था,
वो चांद आज आया है,
कितनी हसरतों की खुशी,
इस चांद में नुमाया है,
कितनी मीठी है इसकी परछाई,
जैसे दिलकश सी कोई रुबाई,
वो सुबहो सेहरी वो शामे इफतार,
कितनी शिददत कितना इन्तजार,
गर्माहट से गले मिलने की,
बड़ी उम्मीद है आज,
आओ खुशी समेट लें,
कि ईद है आज.
0 Comments
संगीता पुरी
(September 21, 2009 - 5:43 am)पढकर अच्छा लगा .. ईद मुबारक !!
संगीता पुरी
(September 21, 2009 - 6:01 am)पढकर अच्छा लगा .. ईद मुबारक !!
likho apna vichar
(September 22, 2009 - 2:37 am)दोस्त उमेश पढ़ तो तुम्हारे ब्लॉग को पिछले दिनों से रहा हूँ पर कमेन्ट नही करने दिया इस कमबख्त ब्लॉग ने ,खैर खुश हूँ दो बातों को लेकर कि आज कमेन्ट कर प् रहा हूँ , दूसरा तुम्हारी पोस्ट को लेकर ,”मज़हब नही सिखाता आपस में बैर करना ” पर ये हमारे देश की विडंबना ही है कि हमने मज़हबी दीवार बहुत ऊंची बना रखी है हमारे समाज में |
ईद मुबारक
विकास ज़ुत्शी
http://www.likhoapnavicha.blogspot.com
aahuti
(September 22, 2009 - 4:21 pm)ईद पर मै भी जाती हूँ.रोजा इफ्तार भी किया . अच्छा लगता है. सोचती हूँ.होली मिलन कब किसी चमन मिया के द्वारा होगा ? यदि ऐसा होने लगे तो ….?