सड़क पर बसें रफ्तार से आ जा रही हैं। बस स्टॉप पर भीड़ तिलचट्टों के झुंड सी बिखरी है। एक बस आती है। रुकती है और उस पर लोग टूट पड़ते हैं। जैसे जल्दबाजी एक जरुरत हो जिसके पूरा न होने पर सम्भवतह जिन्दगी थम सी जाएगी। लोग इस भीड़ में खुद को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और हर किसी को निहायत तुच्छ मानते हुए किसी तरह बस में अपने लिए जगह बना लेना चाहते हैं। खींचातानी-धक्कामुक्की जगह बना लेने की इस कवायद का हिस्सा सी लगती है। बात बात पर एक दूसरे पर उलझते ये लोग मुझे बेहद निरीह से लगने लगते हैं। एक दूसरे से शरीरिक तौर पर कितने नजदीक पर असल मायने में कितने दूर हैं ये लोग एक दूसरे से। मैं खुद को इस भीड़ का हिस्सा नही मानना चाहता, जबकि चाहते ना चाहते मैं हूं। कुछ देर के लिए मैं भीड़ से अलग एक बाहरी व्यक्ति हो जाता हूं।
मेरे सामने एक फिल्म है। परदे पर एक सड़क। सड़क पर आती जाती गाड़ियां। लड़के, लडकियां, औरतें, आदमी, मजदूर और लाल रंग की टीशर्ट पहने कुछ गंदले से दिखते बच्चे। इन बच्चों के हाथों में अंग्रेजी की कुछ मैगजीन हैं जिन्हें पढ़ना ना उन्हें आता है, ना शायद कभी आ ही पायेगा। और इस विडम्बना पर चिन्ता करने का समय इस भीड़ में से किसी के पास नहीं है। उनकी चिन्ता का सबसे बड़ा विषय फिलहाल ट्रैफिक जाम है जो अगर ज्यादा बढ़ गया तो वो एक अपराधी बन जायेंगे। और अपराध होगा ‘लेट’ हो जाना। कोई आफिस में, कोई कालेज में, कोई कारखाने में तो कोई अपनी दुकान में पहुंचने के लिए लेट हो जायेगा। इस अपराध की सजा का दायरा बड़ा विस्तृत है। हल्की सी डांट से लेकर दिनभर की सेलरी काट लिये जाने तक, अपराध की सजा कुछ भी हो सकती है। और ये अपराध अगर गाहे बगाहे होता रहा तो किसी की नौकरी छीन ली जा सकती है। किसी के लिए बच्चे पालना दूभर हो सकता है। इस अपराध से बचने की चिन्ता बस में समय के साथ जूझ रहे हर शख्स के आधे बुझे, आधे मुरझाये चेहरों में देखी जा सकती है। माथे पर उभरी सिकन की लकीरों के बीच से उभर आती उन बूंदों में उनकी चिन्ता को तलाशा जा सकता है जिन्हें हम आप पसीना कहकर अपनी नाक सिकोड़ लेते है। जिससे बचने के लिए बाजार एक्स, डेनिम, ब्रूंची, लाकोस्ट और ना जाने कितने उत्पाद लगे हाथों खपा जाता है।
मेरे सामने खड़ी भीड़, जो बाहर का आदमी बनकर देखने पर मुझे बड़ी बेढंगी और बदतमीज मालूम होती है, अन्दर के आदमी की नजर से मुझे वो एक हद तक मजबूर नजर आने लगती है। ये दरवाजे पर लटक कर जाना, ये धक्कामुक्की उनकी जरुरत लगने लगती है। मैं डरा हुआ सा इस भीड़ को देखता रहता हूं। चाहकर भी खुद को इस भीड़ का हिस्सा नहीं मानना चाहता। नही मैं नहीं हूं इस भीड़ का हिस्सा। इतना असभ्य, इतना बदतमीज, इतना मजबूर। नही, नहीं, नहीं। मेरी अन्तरात्मा मुझे झकझोरने लगती है। मैं उधेड़बुन में हूं। उहापोह की स्थिति में। मैं भीड़ के अन्दर का आदमी हूं या बाहर का? आने वाले समय की उम्मीदें मुझे बाहर का आदमी होने का विश्वास दिलाती हैं। मैं खुद को इस विश्वास से सांत्वना देने लगता हूं। अचानक मुझे सामने एक दरवाजा दिखाई देने लगता है। दरवाजे के एक ओर मैं हूं दूसरी ओर वो भीड़। मेरी ओर के हिस्से में अंधेरा होने लगता है। भीड़ की ओर उजाला। दरवाजा धीरे धीरे बंद हो रहा है। मेरे सामने भीड़ में खड़े लोग धीरे धीरे ओझल हो रहे हैं। दरवाजे के उस पार मैं अकेला अजनबी सा खड़ा रह गया हूं। मैं एक कदम आगे बढ़ाता हूं। दरवाजे को कसकर पकड़ लेता हूं। दरवाजे के उस ओर झांकता हूं। मुझे फिर कुछ दिखाई देने लगता है।
सामने सड़क पर एक बस रुकती है। बेतरतीब भरी इस बस से एक सुन्दर सी लड़की भीड़ को पीछे छोड़ती सी उतरती है। उसके साफ चेहरे में न कोई सिकन है न डर। एक अजीब सा आत्मविश्वास छलकता सा उसके चेहरे से झांकता महसूस होता है मुझे। गोरी, छरहरी, लगभग 25 साल की लड़की। आंखों पर काला चश्मा। खुले हुए बाल। लड़की आगे बढ़ती है। मेरी ओर । मेरे सामने बंद होता सा दरवाजा कहीं गायब हो जाता है। लड़की पास आकर अचानक मेरा हाथ पकड़ लेती है। मेरे शरीर में एक अजीब सी सिहरन घुलने लगती है। एक अजीब सी अनुभूति। मैं उस चेहरे की ओर हिचकता सा देखता हूं। चश्मे के पीछे की आंखें मेरे चेहरे पे छपे हैरानी के भावों को पढ़ चुकी हैं ऐसा मुझे लगता है। लड़की मुस्कुराती है और फिर कुछ बोलती है। अदब से , आत्मविश्वास से लवरेज। मेरे कानों में एक मीठी सी आवाज घुलती है- “क्या आप मुझे नौएडा जाने वाली बस में चढ़ा देंगे ?” मैं एकटक उस काले चश्मे को देखता हूं. कुछ कह नहीं पाता. “अगर आपकी बस आ जाये तो प्लीज किसी और को कह दीजियेगा।” एक अधिकार भरा आग्रह, उसका। और जवाब में एक स्तब्ध सा मौन, मेरा। उस एक वाक्य से जैसे सब कुछ ठहर जाता है। सब कुछ सामान्य हो जाता है। मन की सारी उथल पुथल उस एक स्पर्श से कहीं गायब हो जाती है।
मैं उस चेहरे को एकबार फिर देखता हूं। इससे पहले मेरे सामने जो चेहरा था वो अचानक जैसे बदल जाता है। मेरी आत्मा के भीतर भावनाओं की एक लहर दौड़ने लगती है। एक पवित्र सी श्रद्धा का भाव। अपनत्व का एक मीठा सा बहाव। मैं इन हथेलियों की छुअन को अन्दर तक महसूस कर लेना चाहता हूं। उस गर्माहट को सहेज लेना चाहता हूं। वो आंखें मेरे चेहरे में अचानक उभर आई नमी की रेखा को नहीं देख सकती। न मुझे, न बस को, न भीड़ को। न उस डर को जो अभी मेरे अन्दर उस भीड़ को देखकर पैदा हुआ था। जो कुछ देर पहले अपने चरम पर था। जो अब हथेली की इस छुअन की गर्माहट में कहीं घुल सा गया है। एक पल को मेरा मन आत्मग्लानि से भर उठता है। और फिर मेरा डर काफूर हो जाता है। अब मैं फिर से भीड़ का हिस्सा हो गया हूं। मेरी घड़ी में साढ़े नौ बज रहा है। मुझे समय पे आफिस पहुचना है। भीड़ में मौजूद हर आदमी की तरह ट्रैफिक जाम मेरी भी समस्या है। मुझे भी डांट, सेलरी और नौकरी की चिन्ता है। मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा हूं जिस भीड़ का हिस्सा वो लड़की थी। जिसकी हथेलियों की गर्माहट को मैं अब भी महसूस कर सकता हूं।
मैं उस लड़की को नोएडा जाने वाली बस में चढ़ा कर अभी अभी उतरा हूं। उस बस के साथ मेरा डर भी धीरे धीरे आंखों से ओझल होता चला जा रहा है..
5 Comments
Ankur's Arena
(September 11, 2009 - 6:27 pm)इस कहानी में उमेश ने दिल्ली में जीवन एक पहलु को समझा है और रोज़ सुबह मिडिल क्लास भीड़ से एक दुसरे पर होने वाले अत्याचार को उनकी मजबूरियों से जोड़ा है, जो बहुत हद सही है. यह भी सही है कि उस भीड़ में हर माथे पर केवल शिकन और एक तरह का भय रहता ही है, और ये इस शहर की नियति बन चुका है कि यहाँ का जनमानस अपना सारा दिन इस कड़वाहट के साथ ही बिताये. हालाँकि मैं ये भी सोचता हूँ कि हम कोशिश करें तो हर शख्श में एक सुन्दर, आकर्षक और मोहिनी छवि देख सकते हैं. उनमें सम्मान और प्रेम की मीठी मिश्री घोली जा सकती है, पर अभी यह मुश्किल है शायद इसीलिए उमेश को भी अंत में अपना लेट होना, दफ्तर का प्रेशर और जीवन कि तमाम आपाधपियाँ याद आ गयीं.
उमेश, मुझे यकीन है उस वाकये ने तुम्हारे उस पूरे दिन को ज़रूर कुछ आसान और खूबसूरत बना दिया होगा!
मैं उम्मीद करता हूँ कि हर यात्री के थकान भरे जीवन में ऐसे पल आयें और चैन से उसका और उसकी वजह से सबका दिन मीठा गुज़रे…
आज तुम सोभाग्यशाली थे, तो तुम्हे मुबारक
Ankur's Arena
(September 11, 2009 - 6:27 pm)इस कहानी में उमेश ने दिल्ली में जीवन एक पहलु को समझा है और रोज़ सुबह मिडिल क्लास भीड़ से एक दुसरे पर होने वाले अत्याचार को उनकी मजबूरियों से जोड़ा है, जो बहुत हद सही है. यह भी सही है कि उस भीड़ में हर माथे पर केवल शिकन और एक तरह का भय रहता ही है, और ये इस शहर की नियति बन चुका है कि यहाँ का जनमानस अपना सारा दिन इस कड़वाहट के साथ ही बिताये. हालाँकि मैं ये भी सोचता हूँ कि हम कोशिश करें तो हर शख्श में एक सुन्दर, आकर्षक और मोहिनी छवि देख सकते हैं. उनमें सम्मान और प्रेम की मीठी मिश्री घोली जा सकती है, पर अभी यह मुश्किल है शायद इसीलिए उमेश को भी अंत में अपना लेट होना, दफ्तर का प्रेशर और जीवन कि तमाम आपाधपियाँ याद आ गयीं.
उमेश, मुझे यकीन है उस वाकये ने तुम्हारे उस पूरे दिन को ज़रूर कुछ आसान और खूबसूरत बना दिया होगा!
मैं उम्मीद करता हूँ कि हर यात्री के थकान भरे जीवन में ऐसे पल आयें और चैन से उसका और उसकी वजह से सबका दिन मीठा गुज़रे…
आज तुम सोभाग्यशाली थे, तो तुम्हे मुबारक
Ankur's Arena
(September 11, 2009 - 6:28 pm)इस कहानी में उमेश ने दिल्ली में जीवन एक पहलु को समझा है और रोज़ सुबह मिडिल क्लास भीड़ से एक दुसरे पर होने वाले अत्याचार को उनकी मजबूरियों से जोड़ा है, जो बहुत हद सही है. यह भी सही है कि उस भीड़ में हर माथे पर केवल शिकन और एक तरह का भय रहता ही है, और ये इस शहर की नियति बन चुका है कि यहाँ का जनमानस अपना सारा दिन इस कड़वाहट के साथ ही बिताये. हालाँकि मैं ये भी सोचता हूँ कि हम कोशिश करें तो हर शख्श में एक सुन्दर, आकर्षक और मोहिनी छवि देख सकते हैं. उनमें सम्मान और प्रेम की मीठी मिश्री घोली जा सकती है, पर अभी यह मुश्किल है शायद इसीलिए उमेश को भी अंत में अपना लेट होना, दफ्तर का प्रेशर और जीवन कि तमाम आपाधपियाँ याद आ गयीं.
उमेश, मुझे यकीन है उस वाकये ने तुम्हारे उस पूरे दिन को ज़रूर कुछ आसान और खूबसूरत बना दिया होगा!
मैं उम्मीद करता हूँ कि हर यात्री के थकान भरे जीवन में ऐसे पल आयें और चैन से उसका और उसकी वजह से सबका दिन मीठा गुज़रे…
आज तुम सोभाग्यशाली थे, तो तुम्हे मुबारक
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(September 11, 2009 - 6:28 pm)इस कहानी में उमेश ने दिल्ली में जीवन एक पहलु को समझा है और रोज़ सुबह मिडिल क्लास भीड़ से एक दुसरे पर होने वाले अत्याचार को उनकी मजबूरियों से जोड़ा है, जो बहुत हद सही है. यह भी सही है कि उस भीड़ में हर माथे पर केवल शिकन और एक तरह का भय रहता ही है, और ये इस शहर की नियति बन चुका है कि यहाँ का जनमानस अपना सारा दिन इस कड़वाहट के साथ ही बिताये. हालाँकि मैं ये भी सोचता हूँ कि हम कोशिश करें तो हर शख्श में एक सुन्दर, आकर्षक और मोहिनी छवि देख सकते हैं. उनमें सम्मान और प्रेम की मीठी मिश्री घोली जा सकती है, पर अभी यह मुश्किल है शायद इसीलिए उमेश को भी अंत में अपना लेट होना, दफ्तर का प्रेशर और जीवन कि तमाम आपाधपियाँ याद आ गयीं.
उमेश, मुझे यकीन है उस वाकये ने तुम्हारे उस पूरे दिन को ज़रूर कुछ आसान और खूबसूरत बना दिया होगा!
मैं उम्मीद करता हूँ कि हर यात्री के थकान भरे जीवन में ऐसे पल आयें और चैन से उसका और उसकी वजह से सबका दिन मीठा गुज़रे…
आज तुम सोभाग्यशाली थे, तो तुम्हे मुबारक
रंगनाथ सिंह
(September 11, 2009 - 11:20 pm)बहुत मर्मिक प्रसन्ग है. उमेश ने जो महसुस किया उसे बहुत सफ़ल रुप से प्रस्तुत किया है. बधायी…