हम एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं जहां पे आपको बोलने सुनने और यहां तक कि सोचने के लिए भी एक दायरा तय कर लेना होता है। क्या सोचें क्या कहें और क्या करें इस सब के इर्द गिर्द एक बड़ी लोहे की कांटेदार जंजीर लिपटी हुई है। एक छोटी सी भूल उस जंजीर को आपके मांसल शारीर के खून का प्यासा बना सकती है। और फिर एक दर्द आपके इर्द गिर्द किसी साये की तरह मडराने को बेताब खड़ा हो जायेगा। फिर आप तड़पते रहिये घुटते रहिये किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा यकीन मानिये। ये दुनिया है ही इतनी अजीब। इस दर्द से बचने के दो ही तरीके आपके पास हैं। या तो आप सोचने समझने और फलतह परेशान होने की संस्कृति में पूरी तरह से विश्वास रखना ही छोड़ दीजिये और भाड़ में जाये के इर्द गिर्द किसी सोच से दोस्ती कर लीजिये। फिर आप आराम कुर्सी में बैटकर जो हो रहा है उसका मजा ले सकेंगे।
या फिर दूसरा तरीका जरुरत से ज्यादा समझदारी बरतने का है। आपको पूरी तरह पोलिटिकली करेक्ट होना होगा। क्या बोलना है कहां बोलना है किससे क्या बोलने के क्या परिणाम होगे और ये परिणाम हमें आगे जाकर कहां फायदा पहुंचायेंगे। इस सारी जोड़ तोड़ की प्रकृया के बाद जो समझ आये वही करिये कहयिे यहां तक कि सोचिये और फिर देखिये कि कैसे दुनिया आपको अपना सबसे प्रिय साथी समझती है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका उस दुनिया के बारे में क्या नजरिया है। आपकी सारी भावनात्मक लगाव की कहानियां झूट का एक पुलिन्दा हैं अगर आपको इन कलाओं में निपुणता हासिल नहीं हैं।
क्या फर्क पड़ता है कि आप किसी के लिए एक निस्वार्थ अपनापा रखते हैं जिसके परिणाम के बारे में आप लगभग जानते हैं कि वहां एक शून्य मडरा रहा है और भविष्य की सारी सम्भावनाएं उस शून्य में कहीं डूब जाने की बेबसी को स्वीकार लगभग कर ही चुकी हैं। बावजूद इसके आपका लगाव कम नही होता और आप अपना सैकड़ों प्रतिशत वहां लुटा देने में विश्वास रखते हैं। यूं ही बिना किसी सम्भावना के। बिना किसी आशा के। हांलाकि यह आपको एक आत्मिक सन्तोष देता है। लेकिन सवाल आपके सन्तोष का नहीं है। सवाल है आपकी निपुणता का। एक व्यावहारिक निपुणता जो आपको दर्द के दायरे से दूर रखती है। वरना आपका अपना एक अलग दार्शनिक संसार आपके चारों ओर निराशा की एक परत चढ़ा देगा और आपके अन्दर कुछ आपको कचोटता रहेगा। क्योंकि जो आप पाना चाहेंगे उसे पाना तो दूर आपकी एक जरा सी बात आपको उससे दूर बहुत दूर ले जा चुकी होगी। ओर यहां फिर आप उसे लल्लुओं की तरह जरा सी ही बात मानकर आश्चर्य कर रहे होंगे कि ऐसा आंखिर हो क्या गया।
यहां मुझे जार्ज आर्वेल का लगभग सहमा सा देने वाला उपन्यास 1984 याद आ रहा है। जिसमें बिग ब्रदर की निगाहें हरवक्त आपको घूर रही हैं कि आप क्या कह रहे हैं क्या देख रहे हैं क्या सुन रहे हैं यहां तक कि क्या सोच और समझ रहे हैं। यदि यह सब एक निश्चित दायरे से बाहर हो रहा है कि तो आप एक दर्दनाक मौत के भागीदार हैं या यूं कहिये कि आपको कभी भी भाप बनाकर उड़ा दिया जाएगा।
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manvinder bhimber
(March 20, 2009 - 9:01 pm)aapne bahut sahi likha hai…gutan to hoti hi hai
sonia
(March 22, 2009 - 10:03 pm)i think its a very well crafted piece of work. i can feel the pain of the writer simply coz its written straight frm the heart
KK Yadav
(March 26, 2009 - 6:38 pm)Bahut khub Janab…Achha likh rahe hain..badhai !!>_______________________________>गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ”शब्द सृजन की ओर” पर पढें – गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!