दिल्ली की बसों में एक और बड़ा दर्दनाक वाकया हुआ। बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इस हादसे में 3 रुपये की टिकट नहीं रही । दिल्ली में बसों के किराये बढ़ गये। पांच का टिकट दस का हो गया और दस का पन्द्रह में बदल गया। सात की बिसात भी अब नहीं रही। इस घटना का सीधा असर यहां ब्लाग पढ़ रहे आप हम लोगों में से बहुत कम पर होगा। हमें शायद ये घटना बहुत दर्दनाक ना लगे। पर बस में चढ़ने वाला एक बड़ा तबका दिल्ली में मजदूरी कर रहे लोगों का है। वो लोग जिनके गन्दे से कपड़ों से जब बदबू आ रही होती है तो कुछ नाकें अपना मुंह सिकोड़ लेती हैं। जिनको बस का कन्डक्टर हिकारत भरी नजरों से देख आगे बढ़ जाने का डांटता हुआ सा आदेश दे देता है। और जो पांच की जगह तीन रुपये की टिकट में अपना काम चला रहे होते हैं क्योंकि ऐसा करके वो अपने किसी छोटे से बच्चे की किताबों या कपड़ों की संख्या में थोड़ा इजाफा कर लेने के सपने देख रहे होते हैं। पर शीला आंटी की सरकार ने बसों का किराया बढ़ाकर तीन रुपये के टिकट की मौत की घोषणा कर दी।
और इस तरह के कई मजदूरों की रोजी रोटी का एक बड़ा हिस्सा छीन लिया। कई किताबों कई कपड़ों के सपने जमीदोज हो गये। और ये इसलिये हुआ कि शीला आंटी की सरकार चाहती है कि कौमनवेल्थ खेलों में हमारी बसें चकाचक दिखें। उन्होंने घोषणा की है कि हर बस पर बीस हजार रुपल्ली का खर्चा किया जायेगा। उसे सजाने सवारने के खातिर। बस में सफर करने वाला वो मजदूर सकते में है। उसे कुछ कहते नहीं बन रहा। उसकी कमाई उसका मेहनताना जस का तस है। टिकट बढ़ गया। उसे रोज जाना आना है अपनी फैक्ट्री, अपने आफिस, अपनी जेल में। वह कैसे आ जा पायेगा शीला आंटी की सरकार की फिक्र से ये बात परे है। केवल किराये ही बढ़ाये होते तो बात और थी होलाकि तब भी जायज नहीं थी, पर जुल्म की इन्तहां और भी है। टिकट की दूरी की मियाद भी कम कर दी गई है।
माने ये कि अब तीन किलोमीटर पर पांच रुपये की टिकट देनी होगी। जबकि पहले चार किलोमीटर पर तीन की टिकट थी। पिचहत्तर रुपये के स्टूडेन्ट पास को सीधे चार सौ रुपये पर पहुंचा दिया है। खैर डीटीसी तो इस फैसले से अपनी खूब कमाई कर ही लेगी। बावजूद इसके कि आम मजदूर वर्ग जिसकी कमाई महीने के कुछ हजारों में है उसके महीने का आने जाने का खर्च हजारों में पहुच जायेगा और इन कुछ हजारों में से कुछ और कट जायेंगे, कुछ कपड़े लत्ते, कुछ किताबें, खाने की कुछ चीजें भी। क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं है सिवाय पैदल चलने के। जो दिल्ली जैसे दूरियों वाले शहर में नामुमकिन है।
इस लेख को पढ़कर कोई सोच सकता है कि कैसी पांच दस रुपयों की टुच्ची अदनी सी बात पर बहस खड़ी की जा रही है पर ये दिल्ली के उस तबके की दिल्ली सरकार को आह है जिसके लिये ये टुच्ची सी बात बड़ी अहमियत रखती है। वो वर्ग सचमुच परेशान है। आप बस में सफर कीजिये तो आप आह भरे उन शब्दों को सुन पाएंगे। ब्लू लाईन कन्डक्टर्स जैसे अचानक से मालिकाना अन्दाज में आ गये हैं। ये वर्ग चौंकता हुआ कहता है क्या बात कर रहे हो हम तो हमेशा पांच रुपये देते थे दस कहां से हो गया। कन्डक्टर बड़े रौब में आकर कह देता है चल भई उतर ले और दिल्ली सरकार से पूछ के आ। ऊपर से ऑर्डर हैं। कुछ उतर ही जाते हैं और कुछ मरे मन से दस का नोट कन्डक्टर की तरफ बढ़ा देते हैं।
ये ऊपर से ऑर्डर होने की कहानी होने का एन्टी क्लाईमेक्स हमारे देश में अक्सर दुखान्त ही होता है। पर तीन के टिकट की ये मौत आजकल निम्न वर्गीय चेहरे की सिकन में बसों से चढ़ते उतरते देखने को मिल रही है। उनकी फुसफुसाहट में छुपी मजबूरियों को सुनने वाला यहां कोई नहीं है। उन्हें कहने का हक किसी ने दिया नहीं है। कहने को ये शहर दिल्ली है सियासत का केन्द्र पर इस दिल्ली में सियासत किस चालाकी से निम्नवर्ग का गला गला घोंटे जा रही है तीन के टिकट की मौत इसकी बानगी है। शीला आंटी या उनके नीतिकारों तक ये बात पहुचनी ही चाहिये कि पीएसयू का दस प्रतिशत सो कौल्ड आम आदमी को दे देने के फैसले से आम आदमी को खुश करने की गलतफहमी में न रहें। क्योंकि आम आदमी का स्तर इस देश में अभी और नीचे है जो फलाईओवरों के नीचे या यमुना किनारे बनी झुग्गियों में रह रहा है। जहां तक भले ही लालबत्ती की गाड़ियों से झांकने पर नजर ना जाती हो पर चुनावों में वोट वहां से भी आते हैं। वो अनाम सा रहने वाला आम आदमी जो दिल्ली की काया पलटने में गजब की भूमिका निभा रहा है उसके लिये तीन के टिकट की मौत बड़ी खबर है बावजूद इसके कि उस खबर की इतनी औकात नहीं है कि वो ब्रेकिंग न्यूज बन सके।