ईमानदारी केवल उत्तराखंड की ही बपौती नहीं है : भाग-1

विनीत फुलेरा :

उत्तराखंड के पहाड़ों से ताल्लुक़ रखने वाले विनीत फुलेरा ने ‘यात्राकार’ के लिए ये यात्रा वृत्तांत भेजा है।इस वृत्तांत की लेखन शैली को पकड़ पाने के लिए कहीं कहीं आपको कुमाऊनी हिंदी की बहुत हल्की सी समझ की  ज़रूरत होगी। अगर आपने मनोहर श्याम जोशी को पढ़ा हो तो इस शैली से आपका तार्रूफ़ पहले ही हो चुका होगा। तो पेश है विनीत की बाइक यात्रा की ये कहानी। 

फटफटिया से उत्तरप्रदेश की तरफ को निकल गया हो इस बार, बहुत दिनों से मन उचाट सा था। मैंने अपने अंतर्मन से पूछा कुछ दिन अवकाश के लिए तो उसने इस बार एकदम से स्वीकृति दे दी, जाओ एक हफ्ते के लिए घूमकर आओ। पृथ्वी ‘लक्ष्मी’ राज सिंह दा को पिछले साल जाते हुवे देखा था तो इस बार मैंने भी मन बना ही लिया। निकलने के पिछले रोज Doi Pandey जी को ट्रेन पकड़वाने में मदद कर पाया तो अगले ही दिन उनके साथ लखनऊ में चाय पीने का मौका भी मिल गया। और शुरू हो गया डोईयाट। मन था अकेला निकलने का, लेकिन “यू पी का इलाका है” का हव्वा था मन में इसलिये पीछे बैठे हुवे साथी की तलाश पूरन डंगवाल के रूप में पूरी हुई। शाम को दो बजे भीमताल शॉप से निकलकर सीधा बरेली होते हुवे शाहजहांपुर तक पहुँच पाया था उस दिन। 9 बज चुके थे । रेलवे स्टेशन के सामने ताज होटल में कमरा लेकर बाइक खड़ी कर पैदल निकल पड़े शहर घूमने। पास ही एक चौक पर जाकर पता चला की पं राम प्रसाद बिस्मिल और असफाक उल्ला खां जो 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड में पकड़े गए और 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी की सजा पाकर देश की आजादी के लिए शहीद हुवे, वो मतवाले भी इसी शाहजहांपुर से ही थे। उनको नमन कर हम कमरे पर आ गए। पृथ्वी दा का फोन आया कि हम भी लखनऊ ही हैं मिलते हुवे जाना होगा आपको। फिर डोई पांडे जी ने बताया कि उनकी आपस में बात हो गयी है और हमको उनसे कहाँ पर से मिलना है।

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सुबह का नाश्ता सीतापुर में एक बड़े से परांठे के रूप में करने के बाद लखनऊ में प्रवेश करते ही डोई भाई मिल गए अपनी बाइक में और पॉलिटेक्निक चौराहे पर पृथ्वी दा के भी मिलने के बाद सभी चल पड़े लखनऊ-फ़ैजाबाद बाईपास रोड पर बाराबंकी की तरफ। एक ढाँबे पर बैठकर डोई भाई ने जो चाय पिलाई कुल्हड़ में आहा, और खीर भी तो थी। खूब गप्पे शप्पें हुई। पृथ्वी दा ने आगे की यात्रा के लिए हिदायतें और आशीष देकर विदा किया। फैजाबाद होते हुवे अयोध्या पहुंचे दिन में 1 बजे। पथिक निवास लॉज में कमरा लेकर अयोध्या भ्रमण को निकल पड़े। रामलला से ही शुरुवात की तो गेट पर फोन, पर्स, से लेकर सुपारी, पैन, कागज़ सब कुछ वहीँ छोड़कर अंदर जाना हुवा। कई सुरक्षा घेरों को पार कर पहुंचे एक पिंजरे नुमा गोल गोल घूमे जाली लगे बेरिकेटिंग वाले रास्ते में जहां पर लगभग आधा किलोमीटर चलकर एक जगह पर टेंट के अंदर रखे हुवे रामलला की मूर्ती जैसी कुछ दो सेकण्ड के लिए दिखाकर फिर से उतना ही चलने के बाद गेट से बाहर छोड़ दिया। बाहर प्रसाद सामग्री के साथ साथ एक सी डी बहुत बेचीं जा रही थी उधर और बाकायदा हर दूकान पर स्क्रीन पर वो वीडियो चला कर दिखाया जा रहा था। रुक कर देखा पता चला वो मस्जिद ढहाते समय का कार सेवकों का वीडियो है। आगे जाकर घाट और उनकी दुर्दशा देखी, पिछली बार की पृथ्वी जी की अयोध्या यात्रा से कमाए हुवे रिश्ते करीम भाई से हमें भी मिलने का मौका मिला। करीम भाई के पुत्र कासिम भाई परिवार के साथ वहां रहते हैं और सालों से खड़ाऊ बनाते आ रहे हैं। पृथ्वी दा के निर्देश पर उनसे करीम भाई की बात करवाई फ़ोन पर और खड़ाऊं लेकर करीम भाई की डायरी पर अपना नाम फोन नम्बर अंकित कर हम आगे बढे। सुबह चार बजे सुल्तानपुर होते हुवे बदलापुर-जौनपुर होते वाराणसी सुबह 10 बजे पहुचे। जौनपुर के पास रोड बहुत ख़राब थी। वाराणसी रेलवे स्टेशन(कैंट स्टेशन) के पास राजेंद्र लॉज में कमरा लेकर अस्सी घाट की तरफ पैदल निकल पड़े। काशी विश्वनाथ मंदिर से लगी हुई मस्जिद और रानी लक्ष्मीबाई जन्मस्थान देखने के बाद अस्सी घाट पर बाढ़ के साथ आये हुवे मिटटी और मलवे को पानी के पाइपों से वापस नदी में डालते हुवे लोगों को देखा। मोदी जी ने गोद लिया है ना बनारस? एक बनारसी पान मुह में दबाकर इस पुराने शहर को तसल्ली से देखा। अगला दिन चार बजे बनारस-इलाहाबाद हाइवे से शुरू हुवा और हम 8 बजे इलाहबाद संगम पर थे। किनारे पर कीचड़ में धंसे गणेश जी जो गणेश चतुर्थी पर विसर्जित किये गए होंगे, उनको ऐसे लावारिश पढ़ा देखकर अच्छा नहीं लगा। उनकी तस्वीर लेकर हम चित्रकूट को रवाना हुवे।
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ईमानदारी केवल उत्तराखंड की ही बपौती नहीं है, इस बात को बहुत नजदीक से महसूस किया जब इलाहाबाद से चित्रकूट की तरफ को हम चले। कोई तीस पैंतीस किलोमीटर चलकर जब बहुत भूख लगने लगी तो रास्ते में ढाबे की खोज में नजरें दाएं बाएं घूमने लगी लेकिन उस तरफ को मीलों तक कोई होटल ढाबा नहीं नजर आया। कुछ आगे एक दो चाय पानी की दुकानें दिखी। लेकिन वो केवल चाय और समोसा की दुकान थी, उनसे पूछा की हमें परांठा या कुछ और खाने को नहीं मिल पायेगा तो उन्होंने बताया कि अब तो काफी दूर दूर तक ऐसे कोई होटल नहीं हैं, हमारी परेशानी समझकर उन लोगों ने इधर उधर से व्यवस्थाएं कर किसी तरह पूड़ी सब्जी बनाने की व्यवस्था की अपना सारा बाकि काम छोड़कर। पूरा परिवार जुट गया। दो बेटियां और दंपति, उनकी दुकान पर बैठे स्थानीय लोग भी उनकी मदद करने लगे हाथ बंटाने में। बातों बातों में जब उन्हें पता चला की हम उत्तराखंड से हैं तो उन्हें लगा हम हरिद्वार से हैं, वो उत्तराखंड मतलब हरिद्वार से समझते थे। उनके पास खाना खिलाने को थाली बर्तन नहीं थे ये हम समझ गये जब उन्होंने पूछा की आप यहीं पर खाएंगे या पैक करके ले जाएंगे। हमने खाना पैक करवा लिया। और जब उनसे पूछा गया कि कितने पैसे हुवे तो बड़ा संकोच करते हुवे बहुत ही कम केवल चाय पानी के बराबर पैसा उन्होंने बताया। हमारे यह कहने पर कि -अरे, आपने बहुत मेहनत की हमारे वास्ते और पैसे आप बहुत कम ले रहे हैं वे बोले हमें इस से ज्यादा नहीं पच पावेगा।

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रामनगर एक वहाँ भी पड़ता है चित्रकूट से पहले। भगवान राम एक रात वहाँ भी रुके थे। इसी जगह पर एक खूबसूरत सा तालाब है और चंदेल वंश का बना एक खंडित मंदिर भी है जिसे ओरंगजेब ने तुड़वाया था और अब भारतीय पुरातत्व विभाग फिर से उन टुकड़ों को जोड़कर पुनरुत्थान कार्य करवा रहा है। जब दूर से उस जगह पर नजर पडी तो पीछे से आते हुवे साइकिल सवार से हमने पुछा ये कौन जगह है? साहब पूर्व प्रधान निकले। उन्होंने पूछा कहाँ से आय रहे हैं?

उत्तराखंड बताने पर बोले चलो हम लोग आप लोग के खाने को प्रबंध करते है, आप लोग खटिया पर जाकर बैठें उल्लंग को, उहाँ पर ही हमारा घर होवत है, उसके बाद हुवाँ को घूमके आओ भय्या, बहुत ही श्रेष्ठ जगेह है जिहां आप आये हैं। हमने हाथ जोड़े, बोले खाना तो हम खा कर आये हैं। बस घूमना है। वहाँ पर asi की तरफ से शुक्ला जी देखरेख करते हैं उस जगह की। तालाब में नहाने की हिम्मत हम नहीं जुटा पाये लेकिन वहाँ पर स्थित प्राचीन कुआं हमारे लिए गर्मी से निजात दिलाने में मददगार साबित हुवा। पानी निकलने वाली बाल्टी टूटी हुवी थी तो शुक्ला जी ने अपनी बाल्टी देकर नहाने की व्यवस्था की।

जारी…

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विनीत फुलेरा

विनीत फुलेरा उत्तराखंड से ताल्लुक़ रखते हैं। पेशे से ओप्टीशियन हैं और अपनी नज़रें भी खुली रखते हैं। घूमते हैं और घूमी हुई जगहों को नज़रों में क़ैद कर लेते हैं और फिर लफ़्ज़ों के सुपुर्द कर देते हैं।

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