मेरे घर की दीवारों पर अब राजस्थान की कुछ कठपुतलियां मुस्कुरा रही हैं. दक्षिण भारत की कुछ लकड़ी की चिड़ियाएं मूक चहचहा रही हैं. कुछ रंग-बिरंगे कागज़ के सिपाही मेरी दीवार से मुझे लिखता हुआ देख जाने क्या सोच रहे हैं. और वो एक जापानी मुस्कराहट मेरी आंखों के सामने अब भी नाच रही है.
सूरजकुंड मेले से लौटे दो दिन हो गए हैं पर कुछ है जो भीतर रह गया है. ‘देश की विविधता’ नाम की ये चीज़ जब राजनीतिक शब्दावलियों में प्रयोग होती है तो उसमें जाति, धर्म और न जाने कितने अलगाव-वादी विचार जुड़ जाते हैं लेकिन यही शब्दावली जब कला का रूप ले लेती है तो न जाने कितने रंग बिखेर देती है दुनिया में और दुनिया पहले से ज़्यादा खूबसूरत नज़र आने लगती है.
सूरजकुंड के मेले में देश ही नहीं दुनिया के न जाने कितने रंग बिखरे हुए थे. और उन्हीं के बीच में थी सुन्दर आंखों वाली वो जापानी महिला.
जापान की वो महिला एक छोटे से स्टाल में बैठी अपनी भाषा में कुछ लिख रही थी, लोग उसके इर्द-गिर्द जमा होते और वो उनमें से किसी को भी बुला लेती और उसे अपनी भाषा सिखाने लगती. कागज़ पर एक ब्रश से उतरते वो काले अक्षर एकदम भावहीन थे लेकिन उन्हें लिखना सिखाती उस औरत की देहभाषा को मैं अपने कैमरे से पकड़ने की कोशिश कर रहा था. साठ साल से ऊपर की वो औरत अपनी भाषा से कितना प्यार करती थी ये ब्रश के एक-एक स्ट्रोक पे ध्यानमग्न होकर निगाहें जमाये उस औरत के चेहरे के बदलते भावों को देखकर पता लग रहा था. और कोई जब उसकी भाषा को उस काले रंग के ज़रिये ठीक ठीक पकड़ लेता तो वो इतनी खुश हो जाती कि तालियां बजाने लगती.
कोंगो से आया वो शख्स भीड़ के किसी हिस्से में थिरकता, मुस्कुराता और लोगों के साथ फोटो खिंचाता. एक बायस्कोप वाला खुद मेले को बायस्कोप में दिखती चीजों की तरह देखता बच्चों को बायस्कोप की दुनिया से रूबरू कराता. सैकड़ों कलाकार थे उस मेले में जिनके बनाए खिलौने, चित्र, स्केचेज़, और रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजें देखके लगता था कि अनजान सी जगहों पर बैठे अजनबी लोग कितना कुछ रच रहे होते हैं, और यह रचा जाना ही तो है जो दुनिया को बेहतर बनाता है.
मेले के उस रंग को कैद करने का प्रयास करता ये वीडियो कोलाज देखिएगा. ये भी कमाल है कि कैमरे में कैद हो गई चीजें कई बार हमें आज़ाद करने में मदद करती हैं.
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