Mumbai Diary :6 ( October 2011)
देर शाम अंधेरी वैस्ट के रिहायशी इलाके मलाड की एक मीटिंग से लौटते हुए ओशीवारा के लोटस पैट्रोल पंप से गुजरने के दरमियान कुछ यूं होता है…..सड़क पर सरकती रफतार के बीच अचानक एक बत्ती जलती है, एक गाड़ी रुकती है, एक खिड़की दिखती है। कार के बांईं सीट पे बैठी वो, थोड़ी देर मुझे देखती है। फिर थोड़ी देर मैं भी उसे देखता हूं। हाये, फिर वो मुस्कुरा देती है। हम एक मुस्कुराहट साझा करते हैं। फिर बत्ती का रंग बदल जाता है। फिर कभी वो आगे चली जाती है। कभी मैं आगे चला जाता हूं। जाने से पहले वो अपने प्यारे से हाथ हिलाकर बाई बोल देती है। फिर हम दोनों ट्रेफिक में कहीं गुम हो जाते हैं। न जाने क्यों एक अजनबी से अहसास के छूट जाने सा कुछ महसूस होने लगता है। फिर अचानक किसी औटो के पीछे उस कार में वो फिर दिखायी देती है। उसका वही मुस्कुराता चेहरा। अपनेपन से भरे उंगलियों के इशारे से वो अपने पापा से मेरा एक मूक परिचय कराती है। उसके पापा मुझे देखते हैं। थोड़े से संकोच के साथ वो मुस्कुरा देते हैं। और उस छोटी सी बच्ची को बाई बोलने का इशारा करते हैं। बच्ची बाई कह देती है। फिर उसी ट्रेफिक में दोनों कहीं खो जाते हैं। फिर कभी नहीं मिलते। एक अहसास रह जाता है बस। उस मुस्कान की याद रह जाती है बस। उन आखों की मासूमियत रह जाती है, और उस उंगली का इशारा। इतना सा होता है वो परिचय।
लगता है कि काश रास्तों में मिली ये अहसासों की पगडंडियां इतनी संकरी, इतनी छोटी और इतनी क्षणभंगुर न होती। समय की दहलीज लांघकर यही छोटे छोटे अहसास, बड़ी बड़ी खुशियों के सोते से फूट पड़ते और तनहाई के उन खास लमहों में उनकी गर्म गीली सी छुअन फिर फिर महसूस होती। फिर फिर उनसे वही सुख मिल पाता जो उस छोटे से लमहे में मिला, उस छोटे से सफर की बहुत छोटी सी मूक मुलाकात के उन चंद अच्छे से लमहों के गुजरते वक्त।
इन दिनों सात बंग्ला के अविनाश अपार्टमेंट के उस कमरे में हर सोमवार को एक मंडली बैठती है। लेखकों की मंडे मंडली। विचारों के धागे काते चाते जाते हैं, खयाल बांचे जाते हैं और किस्से पहले गढ़े, फिर पढ़े जाते हैं। इस मंडली में शामिल होने वाले लोग ये मानते हैं कि किस्सागोई अपने में एक पूरी प्रक्रिया है… किसी विचार के पैदा होने से लेकर उसके एक भरी पूरी कहानी बन जाने तक की प्रक्रिया। बचपन में जब कभी कभी बहुत देर के लिये घर की बिजली चली जाती थी, तब उस अंधेरे में दीदी कहानियां सुनाने लगती थी। हम तीनों भाई उसकी बनाई शब्दों की दुनिया में कैसे खो जाते थे। छोटी छोटी घटनाएं कैसी बड़े बड़े रहस्यों सी लगती थी। कही गई चीज़ें हमारे दिमाग को देखी गई चीज़ों से कई गुना ज्यादा कल्पनाशील होने का मौका देती हैं।
छुटपन में जब गांव जाते थे तो रात की होली शुरु होने से ठीक पहले अंगीठी के चारों ओर बैठकर बूढ़े ताउजी या दादाजी की उम्र के लोगों से कहानियां सुनते थे। मुम्बई जैसे बड़े शहरों में उतना समय किसके पास रहता है कि बैठकर आपको कहानियां सुनाएं। यहां तो लगता है कि अब न वो किस्सागो कहीं रह गये हैं, न ही किस्सागोई के वो मीठे और रोमांचक लमहे। अक्सर एक ही घर में रहने वाले लोग शिफ्टों में काम करने की मजबूरी के चलते एक दूसरे से मिल तक नही पाते। बैठकर गप्पें मारना तक नसीब नहीं होता, किस्से सुनना सुनाना तो छोड़ ही दीजिये।
खैर हमारी खुशनसीबी ही है कि कम से कम काम के बहाने से सही किस्से गढ़ने और सुनने दोनों के मौके हमें मिल रहे हैं। नीलेश सर के उस कमरे में अदरक वाली चाय पीते हुए पैदा हो रही कहानियों को जल्द ही आप भी अपने अपने शहरों में, अपने अपने मोबाईल के एफएम या रेडियो पर सुन सकेंगे। रेडियो पर ही सही किस्सागोई के दिन आपको लौटाने की कवायद का हिस्सेदार होना एक खास अनुभव लगता है कभी कभी।
यहां मुम्बई में फिल्मों और टीवी की दुनियां में काम करने वाले लोगों के अपने अपने हिस्से में अपने अपने अनुभव हैं। जैसे दुनिया के दो अलग अलग हिस्से हों फिल्म और टीवी। कई दोस्त हैं जो बस फिल्म बनाना चाहते हैं। टीवी के लिये लिखना उनके लिये जैसे कोई तुच्छ काम हो। उन लोगों से बात करके लगता है कि टेलीविजन को कितना कम महत्वपूर्ण माध्यम मान चुके हैं हम लोग। एक ईडियट बाक्स जहां छपाई का काम होता है। कुछ भी लिखा और दिखा दिया जाता है। मालगुड़ी डेज़, हम लोग, नीम का पेड़, भारत एक खोज या फिर चंद्रकान्ता जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों की लौयल आडियन्स जैसे टीवी से दूर जा रही है। जैसे कोई मनोहर श्याम जोशी, कोई कमलेश्वर सरीखे लेखक रह ही नहीं गये हैं। पर शायद सच्चाई का असल पहलू दूसरा है।
एक मात्र दूरदर्शन था तब, अब तो चैनल ही चैनल हैं। सीरियल टीआरपी देता है तो सैकड़ों एपिसोडस तक खिंच जाता है। टीआरपी घटती है तो तुरंत बंद कर दिया जाता है। टीवी के लिये लिखने वाले 90 प्रतिशत लेखक घोस्ट राईटर हैं। जिन्हें न लिखने का कोई क्रेडिट मिलता है, न उनका नाम कोई जान पाता है। उन्हें दबा के पैसे मिल जाते हैं। उनकी घर और कार की ईएमआई समय पे बैंक में डिपौजिट हो जाती है। वो खुश हैं। ऐसे में उनकी दर्शकों के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रह जाती। गिने चुने लोग हैं जिन्हें क्रेडिट मिलता है। वो किसी प्रोडक्शन हाउस से एक साथ चार पांच सीरियल हथिया लेते हैं और फिर उन्हें सिंडिकेट कर देते हैं। इस तरह से यहां एक तरह की आउटसोर्सिंग ने जन्म ले लिया है। जिसमें लेखक कहीं गौण हो गया है। जो लिख रहा है वो वो नहीं है जिसका नाम दिख रहा है।
टीवी के स्तर के गिरने की दूसरी वजह ये है कि लगभग सारे सीरियल हफते में पांच दिन दिखाये जा रहे हैं। और इतना वक्त किसी चैनल या प्रोडक्शन हाउस के पास नहीं है कि एक सीरियल पर बारीकी से ध्यान दिया जा सके। एक बार कोई कंसेप्ट चैनल में अप्रूव हो गया तो फिर तुरंत काम शुरु। और जैसे ही सीरियल औन एयर हुआ, लेखक पर प्रेसर का पहाड़ टूट पड़ता है। जो लेखक सोचे वही लिखने की अनुमति हो तो भी शायद कुछ काम बने लेकिन चैनल का डंडा हर वक्त लेखक के सर पर होता है। चैनल के पास टीआरपी का जादुई फौर्मूला होता है, और ऐसे में लेखक उसी फौर्मूले में काम करने को मजबूर हो जाता है। फिर वक्त की ऐसी मारामारी कि रात भर में एक ऐपीसोड ना लिखा गया तो सुबह सुबह सेट पर माहौल गर्म हो जाता है। डाईरेक्टर से लेके एक्टर तक इन्तजार कर रहे होते हैं, और सब इतने प्रेसर में होते हैं कि आधे घंटे की देरी और लेखक का काम तमाम। गलती उनकी भी नहीं है। सेट, कौस्टयूम, प्रोप्स सब कुछ किराये का है। शिफट से एक घंटा ज्यादा शूटिंग चली तो दो शिफ्टों का पैसा भरो। तो ये सारी महिमा आंखिरकार पैसों की है। और काम सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने के लिये हो रहा है। हो भी क्यों ना। आखिरकार इन्डस्ट्री है। एक धंधा जिसमें जो भी होगा बिकने के लिये होगा।
फिल्म वालों की कहानी थोड़ी अलग है। ये कहानी अक्सर एक पैशियोनेट लेखक से एक पैशियोनेट प्रोडयूसर के टकरा जाने से शुरु होती है। लेखक अपना झोला झिमटा और अक्सर कुछ आईडियाज़ से भरे लैपटोप लिये मुम्बई चला आता है। यहां हर सीसीडी, हर बरिस्ता और हर कौस्टा कौफी की लगभग हर टेबल पर एक फिल्म बन रही होती है। लेखक उनमें से किसी एक फिल्म का हिस्सा हो जाता है। किसी प्रोडयूसर को कोई जल्दबाजी नहीं होती। लेकिन धीरे धीरे लेखक इस बात से परेशान होने लगता है कि वो साल दो साल से एक ही स्क्रिप्ट लिख रहा होता है। अपने पूरे क्रियेटिव जूस को अपनी स्क्रिप्ट में उड़ेल के जब वो प्रोडयूसर के पास लौटता है तो प्रोडयूसर को कुछ और चाहिये होता है। वो कहता है बाकि सब ठीक है, बस कहीं कुछ कमी है। और दिक्कत ये कि प्रोडयूसर को सच मुच नहीं पता होता कि वो कहीं कुछ जो कमी है, वो क्या है और कहां है। तो राईटर सालों लिखता चला जाता है। छोटा मोटा साईनिंग अमांउंट उसे दे दिया जाता है और कभी कभी ये कहानी अनंत तक खिंचती चली जाती है। कभी कभी फिल्म बनती ही नहीं। और लेखक आजिज आकर ईज़ीमनी कमाने के लिये टीवी का रुख कर लेता है। या फिर फ्रस्टेट होकर घर लौट जाता है। इस तरह ज्यादातर लोगों का पैशन मुम्बई के किसी छोटे से कमरे में पलता, रिसैशन के दौर से गुजरता, अकाल की सम्भावनाओं से डरता आंखिरकार दम तोड़ देता है।
लेकिन डरने, घबराने या नाउम्मीदी की बात इसलिये नहीं है क्योंकि मुम्बई को एक बार समझने के बाद यहां सम्भावनाएं अपार हैं। राह मुश्किल तो है… पर हज़ारों फिल्में बन भी तो रही हैं, सैकड़ों सीरियल चल भी तो रहे हैं… यहां एक नेटवर्क का हिस्सा होना जरुरी है। जिस दिन आप उस नेटवर्क का हिस्सा हो गये और अपनी इन्डिविजुएलिटी बर्करार रखते हुए वो दे पाने में कामयाब हो गये जो इन्डस्ट्री को चाहिये उस दिन आपकी गाड़ी फस्र्ट गियर में चल पड़ेगी। लेकिन गाड़ी स्टार्ट होने में वक्त तो लगता है।
खैर इस सब के बीच मुम्बई का विभीषण होने और मुम्बई को एक आउटसाईडर की नज़र से समझने का ये अहसास सच बताउं तो बड़ा अच्छा है। मैं लिखने के बहाने से मुम्बई को समझ रहा हूं ताकि आप पढ़ने के बहाने से मुम्बई को समझ सकें। और उम्मीद यही है कि इस मोहल्ले में हमारी मुलाकात इसी तरह होती रहेगी। देखें कब तक……