खुश रहना हमारी नैतिक जिम्मेदारी ही है

Mumbai Diary : 3 (July 2011)

कभी कभी लगता है कि मैं एक तिनका हूं और ये शहर बारीक सा एक घोंसला। मेरी ही तरह तिनका तिनका लोग इससे जुड़ते जाते हैं, ठीक उसी तरह जैसे समय का कोई हिस्सा यथार्थ से जुड़ रहा होता है।

सुना है मुम्बई मुलाकातों से चलती है। कौन्टेक्ट्स यहां आपकी एक बहुत बड़ी पूंजी है। प्रोफेश्नल मीटिंग्स। पता नहीं क्यूं ये शब्द सुनने में बहुत अच्छा नहीं लगता। कभी कभी यहां हर कोई असुरक्षित नज़र आने लगता है। अगर नौकरी चली गई तो क्या होगा। बैंक अकाउंट में पैसे आने बंद हो गये तो क्या होगा। दिल्ली से तीन गुना मंहंगा किराया। मेंहंगा और पेट में अपच पैदा करने वाला बाहर का खाना। महीने की दस तारीख को बाई अपने पैसे मांगना शुरु कर देती है। मकान मालिक बिजली के बिल दिखाना शुरु कर देता है। केबल वाला और पेपर वाला डोर बेल बजाने लगता है। रिलायन्स वाले इन्टनेट के बिल भेजने लगते हैं। आदतें खराब कर ली हैं। बेस्ट की बसें वस्र्ट औप्शन नज़र आने लगा है। दिल्ली में कौलेज के दिनों में डीटीसी और ब्लूलाईन खलती नहीं थी। शुरु शुरु में स्टाफ चलाना गर्व की बात लगती थी। बाद बाद में कंडक्टरों की चिक चिक से कोफ्त होने लगी थी। यहां औटो का मीटर बहुत तेज़ भागता है। उस पर ये संकरी टूटी फूटी सड़कें और कभी खत्म न होने वाला ट्रेफिक जाम । सात महीने पहले मुम्बई आया था तो सुना था मैट्रो का काम चल रहा है। उस काम में अब तक कोई तरक्की मुझे तो नहीं दिखी है। उस वजह से सड़कें बीच बीच से बंद कर दी गई हैं। रुट डाईवर्ट करके आधा किलोमीटर की दूरी किलोमीटरों घूम के तय करनी पड़ रही है। कभी कभी इस लेट लतीफी केे पीछे बिल्डरों और ट्रांसपोर्ट माफियाओं का हाथ नजर आता है। सुना है अम्बानी की कम्पनी की छत्रछाया में मैट्रो का ये काम हो रहा है।

इस संकरे शहर की टूटी फूटी और अस्त व्यस्त सड़कें और उपर से गिरता पानी। यहां बारिश के पानी की कहानी भी बिल्कुल अलग है। जब मन किया बरस जाता है। जैसे आकाश की गोदी में बैठे बादलों के छोटे छोटे बच्चे बात बात पर रोने लगते हों। शैतान बच्चे। मुझे तो कई बार उनके ये आंसू बिल्कुल घडि़याली लगते हैं। खिड़की से बाहर दिखता मौसम का मिज़ाज़ लिफ्ट से नीचे पहुंचने तक बदल जाता है। ठीक इसी तरह लोगों की जिन्दगी भी चलती है यहां। खिड़की से दिखती सच्चाईयां दरवाजे लांघने तक बदल जाती हैं।

पिछले रोज़ मकान मालिक ने कह दिया है कि भैय्या घर खाली कर दो। जो दोस्त पहले से रह रहे थे उनकी लीज़ पूरी हो गई है। यहां इस घर में मन लगने लगा था। ठीक ठाक जगह थी। टहलते टहलते बीच की ब्रीज तक पहुंचा जा सकता था। प्राईम लोकेशन थी। अब अपनी फोनबुक में ब्रोकर्स के नम्बर्स दोस्तों से पूछ पूछ के एड करने पड़ रहे हैं। पच्चीस हज़ार के बज़ट में भी एक फर्निश्ड टू बीएचके मिलने को तैय्यार नहीं हैं। कितना महंगा है ये शहर। एक लाख सिक्यूरिटी। पचास हजार ब्रोकरेज। और एक महीने का किराया एडवांस। कभी कभी लगता है कि जब अपना कमाया सारा पैसा इन बिल्डरों और ब्रोकरों को ही दे देना है तो भैय्या घर जाकर मुफत का खाना, मुफत का रहना और साफ सुथरी ताजी हवा का बहना ही क्यों न महसूस कर लिया जाये। फिर लगता है अभी उम्र ही क्या है, इतने बड़े शहर में खुद के बूते कमा खा रहे हैं इतना ही क्या कम है। फिर मन एक सेल्फ एनालिसिस करने लगता है। क्या मैं वही कर रहा हूं जो करने आया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे सपने डाईल्यूट होने लगे हैं। इस शहर में पैसा बहुत है और सपनों से समझौता कर लेने की सम्भावनाएं भी बहुत हैं। फिर लगता है कि ड्रीम चेजिंग के इस खेल के साथ में जि़न्दगी भी तो जीनी है। और इसी बात पर सारे टेंशन न्योछावर कर देने का मन होता है।

खुश रहना भी तो आंखिर हमारी नैतिक जिम्मेदारी ही है। मन करता है एक दिन इस शहर में खुशी की महामारी फैल जाये। सारे लोग जल्दबाजी को प्याज के छिलकों के साथ अपने अपने कूड़ेदान में फेंक आयें और लहरों के किनारे गीली रेत पे बैठ के अपने पसंदीदा गीत गाने लगें। इत्मिनान को कपड़ों की तरह ओढ़ लें। फिर उस समुद्र में पानी की जगह अपनापन बहने लगे और जो भी उस समुद्र को बेहता हुआ देखे अपना हो जाये। अजनबी होने के सारे कंसेप्ट टूट कर रेत में बिखर जायें और अपनेपन की लहरें उस कंसेप्ट को अपने साथ बहाकर हमेशा हमेशा के लिये नेस्तनाबूूत कर दे। फिर ये शहर एक गांव में बदल जाये, एक दूसरे को अच्छी तरह जानने, समझने और तमाम असहमतियों के बावजूद एक दूसरे को दिल से चाहने वाला एक प्यारा सा गांव। हाय ये पागल खयाल। धत्त ऐसा कहां होता है।

इस बीच मुम्बई में अपने कुछ नये घर बनाने शुरु किये हैं। कुछ दोस्त हैं जिनके किराये के कमरों में साथ साथ रहना अच्छा लगता है। अक्सर वीकेन्ड्स में उन दोस्तों के घर आना जाना हो जाता है। साथ खाते, पीते, पकाते, बतियाते, गाते, बजाते घर की याद आने का सिलसिला थम ही जाता है। अच्छे और सच्चे दोस्त मुम्बई में आपकी बहुत बड़ी पूंजी होते हैं। वैसे ये बात एक सार्वभौमिक सत्य से कम नहीं है। जान पहचान को दोस्ती और फिर दोस्ती को रिश्ते में बदलना पता नहीं क्यूं अच्छा लगता है। लेकिन बात जब रिश्ते तक पहुंचने लगती है तो एक्सपैक्टेशन्स बढ़ जाती हैं। और इन एक्सपैक्टेशन्स से डर लगता है कभी कभी। उम्मीदें जब टूटती हैं तो बहुत गहरा दर्द देती हैं। खैर डरते डरते लोगों से रिश्ता बनाने की ये पहल जारी है। चलती रहेगी। बहुमंजिले मंकानों के इस शहर में देखें कि आगे कितने घर और बन पाते हैं।

इस बीच तहलका से जुड़े कुछ दोस्तों के साथ उनके म्यूजिक प्रोजेक्ट के सिलसिले में सेंटाकूंज वेस्ट की वेलिंगटन कोलोनी की ओर जाना हुआ। उस दिन सड़क के ट्रेफिक के बीच एक फुटपाथ के किनारे एक गेट खुला तो अन्दर मुम्बई एक बिल्कुल अलग रुप में नज़र आयी । खुली हरी भरी जगह। दूर दूर छिंटके सैकड़ों साल पुराने कुछ कुछ जर्जर घर। वहां एक चर्च था। ननें आती जाती दिख रही थी। लगा कि अचानक गाडि़यो के शोर शराबे के बीच कोई दरवाजा खुला हो और हम किसी दूसरी दुनियां में पहुंच गये हों। एक टूटे फूटे, एन्टीक से मकान के अहाते में बैंड परफोर्मेंस को मेरे दोस्तों ने डीएसएलआर से शूट किया। तहलका का ये प्रोजेक्ट दरअसल ऐसे बैड्स को मंच देने की कोशिश है जो बहुत जाने माने नहीं हैं। ताकि लोग ये जान सकें कि इस तरह के किसी शहर के किसी कोने में कुछ ऐसे उत्साही युवा भी हैं जो पूरे पैशन से गिटार, ड्रम, पियानो, वाईलिन वगैरह वगैरह की संगत अपने गीतों से बिठाकर संगीत की दुनियां को कुछ नया देने की कोशिश कर रहे हैं। उनके साथ बिताये वो चंद घंटे बड़े अच्छे लगे। लेकिन तभी बातों बातों में उन गीतों के बीच उन लोगों का जो दर्द दफन हुआ था वो भी निकल आया। उन्होंने बताया कि वो जिन घरों में सालों से रह रहे थे वो अब उनसे छीने जा रहे हैं। उनपर उन लोगों का मालिकाना हक नहीं है। उनके घरों को बिल्डरों ने खरीद लिया है। उन बिल्डरों के गार्ड अब इन घरों के बाहर पेहरा दे रहे हैं। और जल्द ही उन्हें ये घर छोड़कर जाना होगा। वरना वो अपने ही घरों से खदेड़ दिये जायेंगे। वो कहां जायेंगे वो खुद नहीं जानते। किसी से किसी का घर छीन लिया जाना कितना दर्दनाक होता होगा। मुम्बई जैसे शहर में जहां अक्सर लोग दूसरे के घरों के कमरों में रहते हैं वहां अपना एक घर होना भी किस्मत की बात है। उन लोगों से उनकी किस्मत छीन ली जायेगी।

किस्मत बनाना और बिगाड़ना इस शहर को अच्छी तरह आता है। वड़ापाव से जम्बोकिंग और जम्बोकिंग से डोमिनोज़ तक पहुंचना यहां मुश्किल नहीं है। लेकिन किसी फिल्म निर्देशक ने इस शहर के बारे में एक बहुत अच्छी बात कही थी कि मुम्बई के समुद्र में हर किसी के नाम की लहर कभी न कभी ज़रुर आती है। अगर आपने अपने नाम की लहर पकड़ ली तो आपकी चल पड़ी और छोड़ दी तो आपकी बाकी जिन्दगी फिर यहां वड़ा पाव है।

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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