Mumbai Diary 14 (19 October 2012)
(Mumbai Film Festival 2012)
एक और दिन मुम्बई फिल्म फेस्टिवल के नाम रहा। शुरुआत खराब थी। इतवार की सुबह सुबह सायान के सिनेमेक्स सिनेमाहौल में औडिटोरियम के बाहर 12 बजकर 45 मिनट पर लगने वाली फिल्म गॉड्स हौर्सेज़ बिना किसी पूर्व सूचना के कैंसल कर दी गई। स्क्रीनिंग हौल के बाहर दूर दूर से फिल्म देखने आने वाले लोग इन्तज़ार करते रहे पर वहां उन्हें बताने वाला भी कोई नहीं था कि फिल्म किस वजह से ऐसे अचानक टाल दी गई है। 60-62 साल की एक बुजुर्ग महिला जो उससे पहले दिन भी फिल्म देखने आई थी, निराश थी। कह रही थी कि इतने बड़े लेवल पे फेस्टिवल करवा तो दिया पर इतनी गैरत भी नहीं है कि कैंसल होने वाली फिल्म के बारे में पहले से जानकारी दे दें। वर्सोवा के सिनेमैक्स से आया एक लड़का 45 मिनट ट्रेन का सफर करके सायान पहुंचा और पूरे एक घन्टे से फिल्म का इन्तज़ार करता रहा। पर उसे किसी ने बताने की ज़ेहमत नहीं उठाई कि आज स्क्रीनिंग नही होगी। अपनी निराशा को आपस में बांटते कुछ सिनेप्रेमी खफा होकर लौटने के सिवाय कुछ कर भी नहीं सकते थे। मामी की ओर से उनका जवाब देने वाला वहां कोई नहीं था।
खैर भरपूर निराशा लिये मैं भी मजबूरन सीएसटी के आईनौक्स की तरफ रवाना हो गया। सीएसटी जाते हुए अचानक अपने चप्पलों पर नज़र पड़ी। चप्पल अंगूठे के पास पूरी तरह घिस गये थे। इतना कि अगूंठे की खाल गाहे बगाहे ज़मीन को छूने को बेताब हो रही थी। खैर सीएसटी पहुंचकर सबसे पहले अपन लिऐ नये चप्पल खरीदे। पुराने चप्पलों को वहीं एक दुकान में ऐसे छोड़ आया जैसे वो मेरे कभी थे ही नहीं। मुम्बई में फिल्में बनाने के लिये भले ही सालों जूते घिसने पड़ते हों पर फिल्में देखने के लिये भी कम से कम ऐसे फिल्म फेस्टिवल के दिनों चप्पल तो घिसने ही पड़ते हैं।
आईनौक्स पहुंचकर पता चला कि वहां हर फिल्म के लिये अलग से एंट्री पासेज़ लेना ज़रुरी है। अपने पास के लिये लम्बी लाईन में लगा। मुम्बई डाईमेन्शन की कैटेगरी में रखी गई 25 चुनिन्दा शौर्ट फिल्म्स को देखने का बड़ा मन था। पर काउंटर पे अपना नम्बर आने पर पता चला कि अभी फिल्म का पासवर्ड नहीं आया है इसलिये उसका पास नहीं मिल सकता। खैर लाईन में लगे हुए आगे पीछे खड़े लोगों की फुसफुसाहटों से पता लगा कि कैलीफोर्निया सोलो़ अच्छी फिल्म है, उसका पास ले लिया। मार्शल लैवी की ये फिल्म लौस एंजलिस में पिछले कई सालों से रहा रहे एक रौकस्टार रह चुके आदमी की कहानी है, जिसकी जिन्दगी में अब गिटार प्रासांगिक नहीं रहा। अब वो खेती करता है, सब्जियां बेचता है। तलाकशुदा है। शराब में डूबा रहता है। और एक दिन शराब पीकर गाड़ी चलाने के जुर्म में पकड़ा जाता है। उसे डिपोर्ट कर दिया जना है। अब उसके पास दो ही विकल्प हैं। या तो वो मोटी रकम देकर खुद को इस आरोप से बरी कर ले या फिर हमेशा के लिये अपने घर स्काटलैंड चला जाये। इस पैसे को जुटाने की मुहिम में कैसे दोस्त उसका साथ छोड़ देते हैं। कैसे उसकी पुरानी पत्नी मदद करने से मना कर देती है। फिल्म की कहानी इसी के इर्द गिर्द घूमती है। फिल्म के लीड रौबर्ट कार्लाइल की बेहतरीन अदाकारी फिल्म में जान फूंक देती है।
इस फिल्म के बाद फिर से मुम्बई डाईमेन्शन के एंट्री पास के बारे में पता किया। कायदे से एक घंटे पहले फिल्म के पास मिलने का नियम है, ऐसा कुछ देर पहले ही बताया गया था। इस एक घंटे की मियाद को अभी पन्द्रह मिनट ही हुए थे कि 260 सीटों से ज्यादा कैपेसिटी वाला आडिटोरियम हाउसफुल हो चुका था। क्या इन पन्द्रह मिनटों में 260 से उपर लोगों ने टिकिट ले लिया होगा? ये सवाल टिकिट ना मिलने से निराश हुई कई लोगों को परेशान कर रहा था और ये परेशानी उनकी आपसी बातचीत में साफ झलक रही थी। कहीं से फुसफसाती आवाज़ कानों में पहुंची- बड़े सेलिब्रिटी लोगों ने फोन पर पहले ही अपना जुगाड़ लगा लिया होगा। वरना इतनी जल्दी हाउसफुल का मतलब ही नहीं होता। खैर निराश होकर परवर्टिगो और उसके बाद लगने वाली फिल्म अदर विमेन्स लाईफ के एंट्री पास काउंटर से ले लिये।
परवर्टिगो एक डार्क कौमेडी है। एक टीवी मैकेनिक जिसे अपने वीडियो कैमरे से लागों की निज़ी जि़न्दगी में झांकने की लत है। कैसे इस लत के चलते उसे उसके घर से निकाल दिया जाता है। उसकी इस हरकत की वजह से उसे कहीं किराये पर घर नहीं मिलता। एक शख्स उसे किराये पर रखने को तैययार होता है। कैसे वो और उसकी पत्नी दोनों उसे अपनी पर्वर्ट आदतों के चलते एक जाल में फसाते हैं। इसी के आगे पीछे फिल्म का कथानक घूमता है। जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती चली जाती है वैसे वैसे कहानी नये मोड़ लेती चली जाती है। और हर मोड़ पर एक चौंकाने वाला ट्विस्ट आपका इन्तज़ार कर रहा होता है। फिल्म हिचकौक की फिल्मों खासकर वर्टिगो और स्टेंजर्स औन ए ट्रेन से बहुत ज्यादा प्रभावित है। रोमान पोलांसकी की फिल्मों का प्रभाव भी इस फिल्म में नज़र आता है। मुम्बई डाईमेंशन की पच्चीस शौर्ट फिल्में ना देख पाने का मलाल नहीं रह जाता इस फिल्म को देखने के बाद।
दिन की आंखिरी फिल्म थी अनादर वुमन्स लाईफ। ये फ्रेंच फिल्म रियलिस्टिक कतई नहीं है। एक 20-22 साल की लड़की अपने जन्मदिन के दिन अपनी पसंद के एक अमीर लड़के से हमबिस्तर होती है और जब वो जागती है तो देखती है कि वो अपने आम घर में ना होकर एक आलीशान बैडरुम के बिस्तर पर है। धीरे धीरे वोे अपने बारे में कई नई बातें जानती है। उसे पता चलता है कि इस नीद से उठने के बाद उसकी जिन्दगी किस हद तक बदल गई है। उसकी उम्र चालीस साल के आसपास हो चुकी है। उसका एक बेटा है। वो एक जानी-मानी बिजनेस वुमन हो चुकी है जिसके इन्टरव्यूज़ टीवी चैनल्स पर आ रहे हैं। लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आ रहा कि ये सब कब और कैसे हो गया। अपनी जिन्दगी के बारे में ये नई बातें जानते हुए उसे पता लगता है कि अपने पति के साथ उसका रिश्ता तलाक की कगार पर खड़ा है। अपने मां बाप से भी वो रिश्ता तोड़ चुकी है। इन पूरी घटनाओं के बदल जाने में वो कहीं नहीं है। इसीलिये ये बातें उसे बहुत साल रही हैं। धीरे धीरे कैसे वो इस पूरे बदलाव के साथ सामजस्य बैठाती है, कैसे अपने मां बाप के साथ बिगड़े रिश्तों को सुधारने की कोशिश करती है और कैसे अपने पति को वापस अपनी जिन्दगी में लाने की कोशिश करती है। इस सब के बीच दर्शकों को कई गुदगुदाने वाले पल देखने को मिलते हैं। कई रुलाने वाले लमहों से वो रुबरु होते हैं। फिल्म अनरियलिटिक और इल्लौजिकल होने के बावजूद भी जिस मेटाफर के साथ खेलती है वो आपको बांधे रखता है। फिल्म आपको एक भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक सफर पे अपने साथ लिये चलती है और एक दर्शक के तौर पर आपको उसके साथ चलना अच्छा ही लगता है।
तीनों फिल्में देख लेने के बाद रात के ग्यारह बज चुके थे। सुबह से बस नाश्ता ही किया था। बीच में बस दो बार चाय ज़रुर पीली थी। पर भूख बिल्कुल याद नहीं थी। दिमाग में बस तीनों फिल्मों के फ्रेम्स घूम रहे थे। लग रहा था कि इतनी दूर आना, पूरा दिन फिल्मों के नाम कर देना ज़ाया नहीं गया।
ट्रेन सीएसटी से कांजुरमार्ग की ओर रवाना हो चुकी थी। एक और फिल्मी दिन जि़न्दगी के सफर का हिस्सा बन चुका था।