Mohan Rakesh Aakhiri chattan tak

मोहन राकेश की कन्याकुमारी यात्रा का वृत्तांत : 100वीं जयंती पर विशेष

मशहूर कथाकार और यात्रा वृत्तांत लेखक मोहन राकेश की आज सौवीं जयंती है। ‘बंद अंधेरे कमरे’, ‘आधे अधूरे’ जैसे नाटक, ‘आषाढ़ का एक दिन’ जैसा उपन्यास’ और ‘आख़री चट्टान तक’ जैसा यात्रा वृत्तांत और शानदार कहानियाँ रचने वाले मोहन राकेश हिंदी साहित्य का एक बड़ा नाम हैं। इस मौके पर उनकी किताब ‘आँखरी चट्टान तक’ (Mohan Rakesh Aakhiri chattan tak) से एक अंश यात्राकार पर  प्रस्तुत है।

 

कन्याकुमारी :  सुनहले सूर्योदय और सूर्यास्त की भूमि (Mohan Rakesh Aakhiri chattan tak)

केप होटल के आगे बने बाथ टैंक के बायीं तरफ़ समुद्र के अन्दर से उभरी स्याह चट्टानों में से एक पर खड़ा होकर मैं देर तक भारत के स्थल-भाग की आखिरी चट्टान को देखता रहा। पृष्ठभूमि में कन्याकुमारी के मन्दिर की लाल और सफ़ेद लकीरें चमक रही थीं। अरब सागर, हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी इन तीनों के संगम-स्थल-सी वह चट्टान, जिस पर कभी स्वामी विवेकानन्द ने समाधि लगायी थी, हर तरफ़ से पानीकी मार सहती हुई स्वयं भी समाधिस्थ-सी लग रही थी। हिन्द महासागर की ऊँची-ऊँची लहरें मेरे आस-पास की स्याह चट्टानों से टकरा रही थीं। बल खाती लहरें रास्ते की नुकीली चट्टानों से कटती हुई आती थीं जिससे उनके ऊपर चूरा बूँदों की जालियाँबन जाती थीं।

मैं देख रहा था और अपनी पूरी चेतना से महसूस कर रहा था- शक्ति का विस्तार, विस्तार की शक्ति। तीनों तरफ़ से क्षितिज तक पानी-पानी था, फिर भी सामने का क्षितिज, हिन्द महासागर का, अपेक्षया अधिक दूर और अधिक गहरा जान पड़ता था। लगता था कि उस ओर दूसरा छोर है ही नहीं। तीनों ओर के क्षितिज को आँखों में समेटता मैं कुछ देर भूला रहा कि मैं मैं हूँ। एक जीवित व्यक्ति, दूर से आया यात्री, एक दर्शक। उस दृश्य के बीच में जैसे दृश्य का एक हिस्सा बनकर खड़ा रहा- बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच एक छोटी-सी चट्टान जब अपना होश हुआ, तो देखा कि मेरी चट्टान भी तब तक बढ़ते पानी में काफ़ी घिर गई है। मेरा पूरा शरीर सिहर गया।

मैंने एक नज़र फिर सामने के उमड़ते विस्तार पर डाली और पास की एक सुरक्षित चट्टान पर कूद कर दूसरी चट्टानों पर से होता हुआ किनारे पर पहुँच गया। पच्छिमी क्षितिज में सूर्य धीरे-धीरे नीचे जा रहा था। मैं सूर्यास्त की दिशा में चलने लगा। दूर पच्छिमी तट-रेखा के एक मोड़ पर पीली रेत का एक ऊँचा टीला नज़र आ रहा था। सोचा उस टीले पर जाकर सूर्यास्त देखूँगा।

यात्रियों की कितनी ही टोलियाँ उस दिशा में जा रही थीं। हम लोग टीले पर पहुँच गये। यह वह ‘सैंडहिल’ थी जिसकी चर्चा मैं वहाँ पहुँचने के बाद से ही सुन रहा था। सैंडहिल पर बहुत से लोग थे। आठ-दस नवयुवतियाँ, छह-सात नवयुवक, दो-तीन गांधी टोपियों वाले व्यक्ति। वे शायद सूर्यास्त देख रहे थे। गवर्नमेन्ट गेस्ट हाउस के उन्हें सूर्यास्त के समय की  पिला रहे थे। उन लोगों के वहाँ होने से सैडहिल बहुत रंगीन हो उठी थी। कन्याकुमारी का सूर्यास्त देखने के लिए उन्होंने विशेष रुचि के साथ सुन्दर रंगों का रेशम पहना था। हवा समुद्र की तरह उस रेशम में भी लहरें पैदा कर रही थी।

 

सूर्यास्त का नजारा

Sunset in Kanyakumari

 

मिशनरी युवतियाँ वहाँ आकर थकी-सी एक तरफ़ बैठ गयीं-उस पूरे केनवस में एक तरफ़ छिटके हुए कुछ बिन्दुओं की तरह। उनसे कुछ दूर पर एक रंगहीन बिन्दु, मैं, ज़्यादा देर अपनी जगह स्थिर नहीं रह सका। सैंडहिल से सामने का पूरा विस्तार तो दिखायी दे रहा था, पर अरब सागर की तरफ़ एक और ऊँचा टीला था जो उधर के विस्तार को ओट में लिये था। सूर्यास्त पूरे विस्तार की पृष्ठभूमि में देखा जा सके, इसके लिए मैं कुछ देर सैंडहिल पर रुका रहकर आगे उस टीले की तरफ़ चल दिया। पर रेत पर अपने अकेले कदमों को घसीटता हुआ वहाँ पहुँचा, तो देखा कि उससे आगे उससे भी ऊँचा एक और टीला है।

जल्दी-जल्दी चलते हुए मैंने एक के बाद एक कई टीले पार किये। टाँगें थक रही थीं पर मन थकने को तैयार नहीं था। हर अगले टीले पर पहुँचने पर लगता था कि शायद अब एक ही टीला और है, उस पर पहुँचकर पच्छिमी क्षितिज का खुला विस्तार अवश्य नज़र आ जाएगा। और सचमुच एक टीले पर पहुँचकर वह खुला विस्तार सामने फैला दिखायी दे गया- वहाँ से दूर तक एक रेत की लम्बी ढलान थी, जैसे वह टीले से समुद्र में उतरने का रास्ता हो। सूर्य तब पानी से थोड़ा ही ऊपर था। अपने प्रयत्न की सार्थकता से संतुष्ट होकर मैं टीले पर बैठ गया ऐसे जैसे वह टीला संसार की सबसे ऊँची चोटी हो, और मैंने, सिर्फ़ मैंने, उस चोटी को पहली बार सर किया हो।

पीछे दायीं तरफ़ दूर-दूर हटकर नारियलों के झुरमुट नज़र आ रहे थे। गूँजती हुई तेज हवा से उनकी टहनियाँ ऊपर को उठ रही थीं। पच्छिमी तट के साथ-साथ सूखी पहाड़ियों की एक श्रृंखला दूर तक चली गई थी जो सामने फैली रेत के कारण बहुत रूखी, बीहड़ और वीरान लग रही थी। सूर्य पानी की सतह के पास पहुँच गया था। सुनहली किरणों ने पीली रेत को एक नया-सा रंग दे दिया था। उस रंग में रेत इस तरह चमक रही थी जैसे अभी-अभी उसका निर्माण करके उसे वहाँ उड़ेला गया हो।

मैंने उस रेत पर दूर तक बने अपने पैरों के निशानों को देखा। लगा जैसे रेत का कुँवारापन पहली बार उन निशानों से टूटा हो। इससे मन में एक सिहरन भी हुई, हल्की उदासी  भी घिर आई। सूर्य का गोला पानी की सतह से छू गया। पानी पर दूर तक सोना-ही-सोना घुल आया। पर वह रंग इतनी जल्दी-जल्दी बदल रहा था कि किसी एक क्षण के लिए उसे एक नाम दे सकना असम्भव था। सूर्य का गोला जैसे एक बेबसी में पानी के लावे में डूबता जा रहा था। धीरे-धीरे वह पूरा डूब गया और कुछ क्षण बीतने पर वह लहू भी धीरे-धीरे बैंजनी और बैंजनी से काला पड़ गया।

मैंने फिर एक बार मुड़कर दायीं तरफ़ पीछे देख लिया। नारियलों की टहनियाँ उसी तरह हवा में ऊपर उठी थीं। हवा उसी तरह गूँज रही थी पर पूरे दृश्य पर स्याही फैल गयी थी एक दूसरे से दूर खड़े झुरमुट, स्याह पड़कर, जैसे लगातार सिर धुन रहे थे और हाथ-पैर पटक रहे थे। मैं अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और मुट्ठियाँट्ट भींचता-खोलता कभी उस तरफ और कभी समुद्र की तरफ़ देखता रहा।

 

कितने ही अनाम रंग

अचानक खयाल आया कि मुझे वहाँ से लौटकर भी जाना है। इस खयाल से ही शरीर में कँपकँपी भर गई। दूर सैंडहिल की तरफ़ देखा। वहाँ स्याही में डूबे कुछ धुँधले रंग हिलते नज़र आ रहे थे। मैंने रंगों को पहचानने की कोशिश की, पर उतनी दूर से आकृतियों को अलग-अलग कर सकना सम्भव नहीं था। मेरे और उन रंगों के बीच स्याह पड़ती रेत के कितने ही टीले थे। मन में डर समाने लगा कि क्या अँधेरा होने से पहले मैं उन सब टीलों को पार करके जा सकूँगा? कुछ कदम उस तरफ़ बढ़ा भी पर लगा कि नहीं! उस रास्ते से जाऊँगा, तो शायद रेत में ही भटकता रह जाऊँगा। इसलिए सोचा बेहतर है नीचे समुद्र तट पर उतर जाऊँ- तट का रास्ता निश्चित रूप से केप होटल के सामने तक ले जाएगा।

निर्णय तुरन्त करना था, इसलिए बिना और सोचे मैं रेत पर बैठकर नीचे तट की तरफ़ फिसल गया। पर तट पर पहुँचकर फिर कुछ क्षण बढ़ते अँधेरे की बात भूला रहा। कारण था तट की रेत। यूँ पहले भी समुद्र तट पर कई-कई रंगों की रेत देखी थी। सुरमई, खाकी, पीली और लाल। मगर जैसे रंग उस रेत में थे, वैसे मैंने पहले कभी कहीं की रेत में नहीं देखे थे। कितने ही अनाम रंग थे वे, एक-एक इंच पर एक-दूसरे से अलग और एक-एक रंग कई-कई रंगों की झलक लिए हुए। काली घटा और घनी लाल आँधी को मिलाकर रेत के आकार में ढाल देने से रंगों के जितनी तरह के अलग-अलग सम्मिश्रण पाये जा सकते थे, वे सब यहाँ थे और उनके अतिरिक्त भी बहुत-से रंग थे।

मैंने कई अलग-अलग रंगों की रेत को हाथ में लेकर देखा और मसल कर नीचे गिर जाने दिया। जिन रंगो को हाथों से नहीं छू सका, उन्हें पैरों से मसल दिया। मन था कि किसी तरह हर रंग की थोड़ी-थोड़ी रेत अपने पास रख लूँ। पर उसका कोई उपाय नहीं था। यह सोचकर कि फिर किसी दिन आकर उस रेत को बटोरूँगा, मैं उदास मन से वहाँ से आगे चल दिया।

समुद्र में पानी बढ़ रहा था। तट की चौड़ाई धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। एक लहर मेरे पैरों को भिगो गई, तो सहसा मुझे खतरे का एहसास हुआ। मैं जल्दी-जल्दी चलने लगा। तट का सिर्फ़ तीन-तीन, चार-चार फुट हिस्सा पानी से बाहर था। लग रहा था कि जल्दी ही पानी उसे भी अपने अन्दर समा लेगा। एक बार सोचा कि खड़ी रेत से होकर फिर ऊपर चला जाऊँ। पर वह स्याह पड़ती रेत इस तरह दीवार की तरह उठी थी कि उस रास्ते जाने की कोशिश करना ही बेकार था। मेरे मन में खतरा बढ़ गया। मैं दौड़ने लगा। दो-एक और लहरें पैरों के नीचे तक आकर लौट गईं।

 

विवेकानन्द चट्टान’ पर

Kanyakumari pier

 

मैंने जूता उतारकर हाथ में ले लिया। एक ऊँची लहर से बचकर इस तरह दौड़ा जैसे सचमुच वह मुझे अपनी लपेट में लेने आ रही हो। सामने एक ऊँची चट्टान थी। वक्त पर अपने को सँभालने की कोशिश की, फिर उससे टकरा गया। बाहों पर हल्की खरोंच आ गई, पर ज़्यादा चोट नहीं लगी। चट्टान पानी के अन्दर तक चली गई थी-उसे बचाकर आगे जाने के लिए पानी में उतरना आवश्यक था। पर इस समय पानी की तरफ़ पाँव बढ़ाने का मेरा साहस नहीं हुआ। मैं चट्टान की नोकों पर पैर रखता किसी तरह उसके ऊपर पहुँच गया। सोचा नीचे खड़े रहने की अपेक्षा वह अधिक सुरक्षित होगा। पर ऊपर पहुँचकर लगा जैसे मेरे साथ मज़ाक किया गया हो।

चट्टान के उस तरफ तट का खुला फैलाव था – लगभग सौ फुट का। कितने ही लोग वहाँ टहल रहे थे। ऊपर सड़क पर जाने के लिए वहाँ से रास्ता भी बना था। मन से डर निकल जाने से मुझे अपने आप काफ़ी हल्का लगा और मैं चट्टान से नीचे कूद गया। रात केप होटल का लॉन। अँधेरे में हिन्द महासागर को काटती हुई स्याह लकीरें-एक पौधे की टहनियाँ। नीचे सड़क पर टार्च जलाता-बुझाता एक आदमी। दक्षिण-पूर्व के क्षितिज में

एक जहाज की मद्धिम-सी रोशनी। सूर्योदय। हम आठ आदमी ‘विवेकानन्द चट्टान’ पर बैठे थे। चट्टान तट से सौ-सवा-सौ गज आगे समुद्र के बीच जाकर है- वहाँ, जहाँ बंगाल की खाड़ी की भौगोलिक सीमा समाप्त होती है। मेरे अलावा तीन कन्याकुमारी के बेकार नवयुवक थे जिनमें से एक ग्रेजुएट था। चार मल्लाह थे जो एक छोटी-सी मछुआ नाव में हमें वहाँ लाए थे। नाव क्या थी, रबड़-पेड़ के तीन तनों को साथ जोड़ लिया गया था, बस।

नीचे की नुकीली चट्टानों और ऊपर की ऊँची-ऊँची लहरों से बचाते हुए मल्लाह नाव को उस तरफ़ ला रहे थे, तो मैंने आसमान की तरफ़ देखते हुए उतनी देर अपनी चेतना को स्थगित रखने की चेष्टा की थी, अपने अन्दर के डर को दिखावटी उदासीनता से ढके रखना चाहा था। पर जब चट्टान पर पहुँच गए, तो डर मेरी टाँगों में उतर गया क्योंकि वहाँ बैठे हुए भी वे हल्के-हल्के काँप रही थीं।

 

स्याह चट्टानों की ओट से सूर्योदय 

ग्रेजुएट नवयुवक मुझे बता रहा था कि कन्या-कुमारी की आठ हज़ार की आबादी में कम-से-कम चार-पाँच सौ शिक्षित नवयुवक ऐसे हैं जो बेकार हैं। उनमें से सौ के लगभग ग्रेजुएट हैं। उनका मुख्य धन्धा है नौकरियों के लिए अर्जियाँ देना और बैठकर आपस में बहस करना। वह खुद वहाँ फ़ोटो-एल्बम बेचता था। दूसरे नवयुवक भी उसी तरह के छोटे-मोटे काम करते थे। ‘‘हम लोग सीपियों का गूदा खाते हैं और दार्शनिक सिद्धान्तों पर बहस करते हैं’’, वह कह रहा था, ‘‘इस चट्टान से इतनी प्रेरणा तो हमें मिलती ही है।’’

पानी और आकाश में तरह-तरह के रंग झिलमिलाकर, छोटे-छोटे द्वीपों की तरह समुद्र में बिखरी स्याह चट्टानों की ओट से सूर्य उदित हो रहा था। घाट पर बहुत-से लोग उगते सूर्य को अर्घ्य देने के लिए एकत्रित थे। घाट से थोड़ा हटकर गवर्नमेंट गेस्ट हाउस के बैरे सरकारी मेहमानों को सूर्योदय के समय की कॉफ़ी पिला रहे थे। दो स्थानीय नवयुवतियाँ उन्हें अपनी टोकरियों से शंख मालाएँ दिखला रही थीं।

वे लोग दोनों काम साथ-साथ कर रहे थे-मालाओं का मोल-तोल और अपने बाइनाक्यूलर्स से सूर्यदर्शन। मेरा साथी अब मुहल्ले-मुहल्ले के हिसाब से मुझे बेकारी के आँकड़े बता रहा था। बहुत-से कडल-काक हमारे आस-पास तैर रहे थे-वहाँ की बेकारी की समस्या और सूर्योदय की विशेषता, इन दोनों से बे-लाग।

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