1.
अगस्त क्रान्ति राजधानी मुंबई सेन्ट्रल के प्लेटफाॅर्म एक से चल पड़ी थी। मम्मी खिड़की के बाहर भागती हुई दुनिया को देख रही थी और पापा अभी अभी आये मिड डे अखबार को पलट रहे थे। हमारी तीन सीटों में से एक सीट 8 नम्बर की थी जो उस कोच के दूसरे छोर पर थी। मैं उस सीट को देखने के लिये जाकर वापस लौटा तो देखा कि एक 45-46 साल का लगने वाला, उचले चेहरे पर नज़र के चश्मे पहना वो अजनबी आदमी पापा को कुछ बताये जा रहा था।
“सुबस -सुबह गरम पानी के साथ सुआलीन ज़रुर चूंसिये। दिन में तीन बार सुआलीन से शुरु कीजिये। कितनी बार से ? हां तीन बार से। बाद में धीरे धीरे दो फिर एक। ऐसा एक साल तक कीजिये फिर देखिये आप मेरे जैसे हट्टे- कट्टे हो जाएंगे।“
मैं चुपचाप उसके बगल में आकर बैठ गया। फिर उस आदमी ने मेरी ओर देखकर कहा
“आप बेटे हैं इनके ?“
मैने हां में सर हिला दिया। फिर एक बार पापा की तरफ देखा। वो सचमुच बहुत पतले हो गये थे। पिछले एक साल में उनका वजन काफी कम हो गया था
“43 किलो ? सर क्या कर रहे हैं आप अपने साथ ?“
मुम्बई में हीरानंदानी अस्पताल के डाक्टर ने उन्हें देखकर यही कहा था। फिर सारे टेस्ट। सोनोग्राफी, एन्जियोग्राफी, एक्सरे, न्यूरोलोजिक टैस्ट और न जाने कौन-कौन से टेस्ट जिनके नाम भी पहली बार सुने थे। आंखिर में सारी रिपोर्ट नाॅर्मल ही आई। बस विटामिन डी हद से ज्यादा कम हो गया था। डाक्टर ने कुछ सप्लीमेंट दिये थे। दूध, दही, पनीर, रागी और खूब सारा खाना खाने की ढ़ेर सारी नसीहतें बटोरकर पापा, मम्मी और मेरे साथ आज मुंबई से वापस लौट रहे थे।
“बेटा पापा को जो नुस्खा बताया है अगर वो मान लें तो मेरी गारंटी है वो बिल्कुल अच्छे हो जाएंगे। मैं इसलिये कह रहा हूं क्यूंकि इस तरीके ने मुझे नया जीवन दिया है। मैं आपके पापा से भी दुबला हो गया था। मेरे पत्नी, बच्चे सब मान चुके थे कि मैं अब नहीं बचूंगा। उस ऊपर वाले ने मुझे दूसरा जीवन दिया है। इसलिये अब जो भी मिलता है मैं उसे ये बताता हूं। बेटा पापा जब ठीक हो जांएं तो मुझे दुआ मत देना, उस ऊपर वाले को देना।“
“मुझे हमेशा अच्छे लोग ही क्यों मिलते हैं ?“
मैने मन ही मन सोचा और चश्मे के पीछे जैसे सुकून के किसी सोफे पे बैठी उन दो छोटी-छोटी आंखों में झांककर देखा। अच्छाई की चमक आंखों को कितना ताज़ा बना देती है।
“बेटा कहां गये थे आप ? वहां सीट है क्या आपकी ?“
“हां अंकल। दो सीट यहां पर है और एक 8 नम्बर पर।“
“ठीक है मैं चला जाता हूं वहां, अकेला ही हूं।“
पापा की उम्र के उस आदमी को सीट छोड़कर जाने को आंखिर कैसे कह सकता था मैं।
“नहीं अंकल आप क्यों परेशान होंगे ?“
मेरे कन्धे पर उस अजनबी का हाथ पड़ा तो जैसे अपनेपन की गर्माहट पूरे शरीर में फैल गई।
“बेटा आपने कहा क्या मुझसे जाने को ? मैने ही कहा ना ? परेशानी होती तो मैं क्यों कहता ?“
उस आदमी ने मुझसे ऐसे कहा जैसे मैं 7 साल का कोई बच्चा हूं। 27 की उम्र में इस तरह बच्चा बनना एक सुकून सा दे गया।
वो आदमी झुका। और सीट के नीचे से अपना बैग निकालते लगा।
“मैं पहुंचा देता हूं अंकल बैग।“
मैने झट से बैग की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा।
“बेटा अभी इतना कमज़ोर नहीं हुआ हूं। आप सब जैसे लोगों की दुआ ने मुझ जैसे मरणासन्न हो गये आदमी को फिर से हट्टा-कट्टा बना दिया।“
कहकर वो आदमी आगे बढ़ गया। वही मुस्कुराहट चेहरे पे लिये।
“आप बस पापा का ध्यान रखोगे। प्रोमिस ?“
“प्रोमिस अंकल।“
“और जब पापा ठीक हो जाएंगे तो दुआ किसे दोगे ?“
“आपको।“ मैने मुस्कुराकर कहा।
“नहीं। ऊपर वाले को।“
उस आदमी ने ये कहकर आंख बंद करके एक बार ऊपर की तरफ देखा। उस अदृश्य ताकत की तरफ जो लोगों को उस आदमी जैसे बने रहने का जज्बा देती है।
पापा कुछ देर एकदम चुप से बैठे उस आदमी को जाता हुआ देखते रहे। फिर एक छोटी सी मुस्कुराहट उनके होंठों पर तैरने लगी। मम्मी पापा की तरफ देख रही थी। उसकी आंखों में चिन्ता थी। पापा सचमुच बहुत पतले हो गये थे।
2.
थोड़ी ही देर में अंधेरी स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो मेरे बगल में यही कोई 50 साल से ऊपर की वो महिला लंगड़ाती सी अपना बैग किसी तरह खींचते-संभालते हुए आई। एक राहत की सांस लेने के बाद उसने मम्मी की ओर देखकर बड़े प्यार से कहा
“एक्सक्यूज़मी दिस इज़ माई सीट।“
मम्मी ने मेरी ओर देखा। मैने उन्हें अपनी सीट पर आने का इशारा किया। मम्मी मेरी जगह बैठ गई और मैं खिसककर सीट के बाकी बचे खाली हिस्से में सिमट गया।
“बेटा कैन यू प्लीज़ पुट दिस इन अपर सीट ? मेरे घुटने में दर्द है।“
कहते हुए उस महिला ने मुझे अपना एक हैंडबैग थमा दिया। मैने हैंडबैग ऊपर वाली बर्थ में रखा और अपनी जगह पर बैठ गया।
सीट पर कुछ सहज होकर उस महिला ने किसी को फोन किया
“या फाइनली आई हैव रीच्ड बेटा। डोन्ट वरी हां। नो नो ट्रेन इज़ अबाउट टु लीव। अरे देखो चल पड़ी। “
ट्रेन अंधेरी स्टेशन को छोड़कर सरराती हुई आगे बढ़ गई।
कुछ देर फोन पर बात करने के बाद उस महिला ने फोन को खिड़की से लगे उस छोटे से टेबल पर रखा। और अपने घुटनों को मोड़कर सीट पर बैठने की कोशिश की। ऐसा करते हुए उनके चेहरे पर एक हल्के दर्द का उभार सा दिखाई दिया। कुछ ही देर में चेहरे से अभी-अभी विदा लेकर गई मुस्कुराहट लौट आई और उनके चेहरे पर एक बेचैनी दौड़ने लगी जैसे कुछ देर और खामोश रहीं तो उन्हें कुछ हो जाएगा।
“मुम्बई का ट्रेफिक बड़ा खराब है मेरी ट्रेन तो आज मिस ही हो जाती“
उन्होंने हम में से किसी एक को सम्बोधित किया। मम्मी और पापा मुस्कुरा दिये। मैने उनसे सहमति जताते हुए कहा
“हां हम लोग भी दो घंटा पहले निकल गये थे। यहां के ट्रेफिक का कोई भरोसा नहीं है।“
“मेरी बेटी रहती है मुम्बई में। वो छोड़ने आई थी। पर गाड़ी आगे ही न बढ़े। पार्किंग के चक्कर में फंसती तो पक्का छूट जानी थी गाड़ी। मैने खुद ही बैग लादा और किसी तरह लास्ट मिनट में ट्रेन पकड़ ली।“
ऐसा कहते हुए उनके चेहरे पर एक गहरी संतुष्टि के भाव चमक उठे।
“वैसे लास्ट टाइम में ट्रेन पकड़ना इज़ सच अ फन।“
वो अधेड़ सी लगने वाली औरत जैसे अचानक बच्ची हो गई थी।
इस ट्रेफिक जाम की चर्चा को थामती हुई ट्रेन बोरीवली स्टेशन पर एक बार फिर रुक चुकी थी। लगभग 45 साल की एक महिला अपनी सीट खोजते हुए बोगी में आई। फोन पर देखकर एक बार सीट कन्फर्म की। कुली ने बैग सीट के नीचे धकेल दिया।
“बेटा कैन यू प्लीज हैंग दिस बैग देयर ?“
उस महिला ने खिड़की के ऊपर लगे हैंगर की तरफ इशारा करके अपना हैंडबैग मेरी ओर बढ़ा दिया
“आज तो तेरी बैंड बजने वाली है बेटा, बूढ़ों के बीच फस गया है…. सारा काम आज तुझे ही करना पड़ेगा“
65 साल की उस औरत ने मेरी ओर शरारत भरी निगाहों से देखकर कहा।
मैं भी मुस्कुरा दिया।
“नहीं कोई बात नहीं। कौन सा पत्थर तोड़ने हैं ?“
मैने मुस्कुराकर कहा
“ही विल गेट विशेज़ नो ?“
अभी-अभी आई उस औरत ने मेरी ओर देखा। उसकी आंखों में करीने से काज़ल लगा हुआ था। होंठों पे हल्के गुलाबी रंग की लिपस्टिक थी। उसकी मुस्कान बहुत खूबसूरत लग रही थी।
“आपको भी कोई प्रोब्लम है पैरों में ?“
64 साल वाली महिला ने अभी-अभी अपनी सीट पर सहज हुई इस महिला से पूछा
“माई नीज़ आर गौन“
कहते हुए जैसे उनके घुटनों का दर्द ज़बान पे आ गया हो
“अरे आई हैव सेम प्रोब्लम। डाॅक्टर ने कहा है कि रुयूमेटाॅइड आर्थराइटिस है। नी रिप्लेस करनी होगी।“
“ओह। सेम टू सेम। मुझसे भी यही कहा है। कहां दिखाया आपने ?“
“अपोलो में“
“अच्छा ? मैने रामलाल में दिखाया“
“कितना चार्ज बता रहे थे ?“
“दे सेड 6 लाख एक घुटने का। मेरे दोनों ही खराब हैं। कभी-कभी लगता है करवा ही लूं आॅपरेशन। पैसे खर्च होंगे पर एक ही बार में सारा टेंशन खत्म।“
अपने घुटने के दर्द के बारे में बातें करती हुई वो दोनों औरतें ऐसी लग रही थी जैसे दो पुरानी सहेलियां बहुत दिनों बाद अचानक इस रेल के डब्बे में मिली हों और अपने स्कूल के पुराने किस्सों को याद कर रही हों
“हां सोच तो मैं भी रही हूं। इसलिये पैसे सेव कर रही हूं आजकल“
तकरीबन 45 साल की वो महिला ये कहते हुए कुछ उदास सी हो गई
“योर गुडनेम?“ दूसरी महिला ने पूछा
“रेखा मिश्रा“
“आइ एम पूनम जुनेजा“
कुलीन परिवारों से संबंधित उन दोनों महिलाओं ने हाथ मिलाकर एक दूसरे की दोस्ती स्वीकार कर ली। मैने मम्मी की ओर देखा। उनके अन्दर का संकोच दिल्ली वाली उन दोनों महिलाओं की अंग्रेजियत देखकर शायद और बढ़ गया था। वो अपनी जगह पर सिमटी उस किताब के पन्ने पलटने लगी। जिन्दगी के कई लमहे उन किताबों की तरह ही होते हैं जिन्हें पलटा तो जाता है पर पढ़ा कभी नहीं जाता।
ट्रेन जैसे-जैसे सरक रही थी रेखा मिस्रा और पूनम जुनेजा के घुटनों का दर्द उन दोनों की दोस्ती की कड़ी को मज़बूत कर रहा था।
अभी अभी आयी नाश्ते की ट्रे में से सौस का पैकेट मेरी ओर बढ़ाते हुए पूनम आंटी ने कहा
“बेटा ये काट दोगे ? मुझसे तो हो ही नहीं रहा“
मैने पैकेट लिया और उंगलियों से फाड़ने की कोशिश की और फिर हारकर कहा
“हाथ से नहीं हो पाएगा“
“जैसे उनका पैकेट फाड़ा था वैसे मेरा भी मुंह से फाड़ दो… कोई बात नहीं“
उन्होंने मम्मी की ओर मुस्कुराकर देखते हुए कहा, मुझे उनका ये अपनापन अच्छा लगा।
“हां वैसे भी जूठा तो बस सांप का होता है।“
मैने मुस्कुराते हुए कहा। और पैकेट फाड़कर उन्हें दे दिया।
“मेरा भी “
रेखा आंटी ने भी मेरी ओर अपना पैकेट बढ़ा दिया
मैने बिना किसी परेशानी के उन्हें भी अपने दांतों से पैकेट फाड़कर दे दिया
“बड़ा स्वीट बच्चा है आपका“
रेखा आंटी ने पूनम आंटी से कहा
“मेरा नहीं है। उनका है।“
कहकर पूनम आंटी ने मम्मी की ओर इशारा किया। मम्मी ये सुनकर बस मुस्कुरा दी।
“अच्छा मुझे लगा आपका बेटा है।“
थोड़ा सकुचाते हुए रेखा आंटी ने कहा और फिर पूनम आंटी से बतियाने में मशगूल हो गई।
जैसे-जैसे ट्रेन आगे बढ़ती जा रही थी घुटने के दर्द की वो कहानी कई और दर्द बयां करने लगी थी।
“डा. ने सीढि़यां चढ़ने को मना किया है। पर घर सेकन्ड फ्लोर पे है। सारे काम तो खुद ही करने होते हैं। दिन के तीन चार चक्कर तो लग ही जाते हैं।“
रेखा आंटी के चेहरे पे ये कहते हुए जैसे उनका अकेलापन बिखर गया था
“क्यों आपके हज़बैंड ? बच्चे ?“
पूनम आंटी ने थोड़ा संकोच से पूछा
“कोई नहीं है। आई एम अ डाइवोर्सी“
रेखा आंटी ने अपनी उदासी को एक बहुत मद्धम सी मुस्कुराहट में छुपाने की कोशिश की
“तो कहीं और घर ले लो ना। या फिर ये वाला घर रेंट पे दे दो और कोई लिफ्ट वाला घर किराये पे ले लो।“
पूनम आंटी ने एक आसान लग रहा समाधान दिया
“अरे नहीं। वहां से कहां जाउंगी। पिछले 25 साल से अकेली रह रही हूं वहां। बाहर निकलती हूं तो दस पहचाने चेहरे निकल आते हैं। अगल-बगल के बच्चे ही बार-बार पूछ लेते हैं कैसे हों आंटी तो दिल को बड़ी राहत मिल जाती है। अकेला होना उतना खलता नहीं है। वहां से कहीं और चली गई तो कोई पूछेगा भी नहीं। थोड़ा दर्द सहके ही सही सीढि़यां चढ़ लूंगी पर वहां से कहीं और जाने की सोच भी नहीं सकती।“
रेखा आंटी के उदास चेहरे में जैसे चिन्ताओं का एक अनन्त था जो उनके खूबसूरत चेहरे में बार बार छिप जाने की कोशिश करता। जैसे छोटे बच्चे किसी छोटी सी दीवार के पीछे छिप जाते हैं और उन्हें लगता है कि कोई उन्हें देख नहीं पा रहा।
“तो आप एक काम किया करो। लिस्ट बना लो। दिन में बस एक चक्कर जाओ नीचे।“
पूनम आंटी ने एक दूसरा समाधान दिया
“कहां होता है जी ऐसा। दो-तीन चक्कर तो लग ही जाते हैं। अब कभी बाकि सब ले आई, साबुन की टिक्की भूल गई। उसके बिना तो काम नहीं चलता। कभी तेल ही भूल गई। खाना कैसे बनेगा ? चक्कर तो लग ही जाते हैं।“
रेखा आंटी थोड़ा और निराश हो गई।
“तो अभी मुंबई कैसे ?“
पूनम आंटी बच्चों की तरह सवाल पर सवाल करती जा रही थी।
“मुंबई में बेटा है। पता नहीं कैसे बड़े सालों बाद याद आ गई उसको। फोन करके कहने लगा मम्मी आ जाओ कुछ समय के लिये। दादी का साथ हो जाएगा। मुम्बई में दादी और वो बस दोनों ही लोग रहते हैं। आई डोन्ट लाइक माई मदर इन लाॅ“
“पर बुढ़ापे में कुछ तो साथ चाहिये ही कर लो थोड़ा एडजस्ट“
रेखा आंटी फिर मुस्कुरा दी। वही उदासी में ढ़ली हुई बंरंग मुस्कुराहट।
“आई नो। नहीं होगा। परसों की ही बात है। अन्दर कमरे में घुटन हो रही थी तो बालकनी का दरवाज़ा खोल दिया मैने। बाहर से इतनी अच्छी हवा आ रही थी। पूरा नेश्नल पार्क दिखता है उस बालकनी से। जैसे ही सास को पता चला। बड़बड़ाते हुए आ गई। तुरंत दरवाज़ा बंद करवा दिया। और डांटने लगी कि खबरदार जो अबसे दरवाज़ा खोला। 45 साल की हूं मैं। जिन्दगी भर अकेले रही हूं। सोचिये इतनी छोटी बात पर रोकटोक होगी तो कैसे रह पाउंगी साथ में। घुट के मर नहीं जाउंगी ?“
पूनम आंटी के पास कोई जवाब नहीं था इसका। कुछ सवालों के जवाब दरअसल बने ही नहीं होते। लेकिन उन्हें खोजने में पूरी जि़न्दगी निकल जाती है।
“यहां दिल्ली में जब अच्छा मौसम होता है तो अकेले छत पर कुर्सी बिछाकर बैठ जाती हूं। कान में इयरफोन डालके गाने सुनती रहती हूं। वहां इतनी आज़ादी कौन देगा मुझे ? पूरी जिन्दगी इसी इन्डिपेडेन्स के लिये तो जी है। अब इसे कैसे छोड़ दूं।“
पूनम आंटी अब भी इस सवाल का हल खोजने की कोशिश कर रही थी।
“तो एक काम करो जौब करलो आप। और मुंबई में ही रहो। बेटे के पास भी रहोगी और सास की रोकटोक भी नहीं होगी।“
रेखा आंटी को जैसे-जैसे नये हल मिलते जा रहे थे वो और उलझती जा रही थी। क्योंकि कई बार हमारी अपनी परेशानियों के लिये दूसरों सुझाये हल इतने अधूरे होते हैं कि वो हमें और उलझाने लगते हैं।
“मैं यही सोच के आई थी। इतना बड़ा घर है। एक कमरा ही तो चाहिये था। जौब करके और दिल्ली का घर किराये पे लगा के जो पैसे जमा हो जाते उनसे घुटनों का आॅपरेशन भी आसानी से हो जाता। पर सास को जैसे ही पता लगा कि मैं नौकरी भी करना चाहती हूं उसने साफ मना कर दिया। बोली कि बिना नौकरी के रहना है तो रह ले पर यहां रहकर नौकरी करने की सोचना भी मत। इतनी बंदिशों में कहां रह पाउंगी। बंदिशों में रह पाती तो तलाक ही क्यूं लेती ?“
“तो क्यों लिया तलाक आपने ? आपके एक्स अब क्या करते हैं ?“
रेखा आंटी अब अतीत के गलियारे में जाने को मजबूर थी। एक तरह से उन्हें अच्छा भी लग रहा था कि पुराने ज़ख्म कुरेदते हुए ही सही कोई उस अतीत के बारे में बात तो कर रहा। दर्द और दुख बांटते समय कुछ हल्के से हो जाते हैं।
“हैदराबाद के सबसे बड़े रईसों में नाम है उनका। दो कोठी हैं वहां। नई-नई शादी हुई थी तो सास ने बहुत परेशान किया। छोटी सी गलती होती तो कान पकड़कर उठक-बैठक करवाती थी मुझसे। कुछ साल सहा पर कब तक सहती ? पति से कहा कि नौकरी करनी है मुझे। दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन कोई उठक-बैठक करने के लिये तो की नहीं थी मैने। पति ने सपोर्ट नहीं किया। बोले नौकरी करनी है तो करले पर हमारे घर में रहकर नहीं।“
मैं, मम्मी, पापा और पूनम आंटी सब टकटकी लगाये रेखा आंटी की उन आंखों में न जाने क्या तलाश रहे थे जिन्हें दर्द भी नम नहीं कर पा रहा था। शायद बहुत रोती होंगी तनहाई में। इतना कि आंखें पत्थर हो गई थी अब। एक तराशा हुआ पत्थर जो कठोर होकर भी खूबसूरत था।
“तो क्या करती ? तलाक ही आॅप्शन था। दिल्ली में दो घर थे उनके। कानूनन उन्हें एक घर मेरे नाम करना पड़ा। जबसे गई हूं कभी हाल तक नहीं पूछा। ऐसा भी पत्थर कोई कैसे हो सकता है ?“
कुछ देर उस डब्बे में सन्नाटा रहा फिर पूनम आंटी ने उस सन्नाटे को अपनी बातों से रफू कर दिया
“अरे कहां टेंशन ले रही हैं आप। मस्त रहिये। बच्चे होते हैं तब भी कहां उन्हें टाइम हो पाता है आजकल। पिछली बार क्या हुआ ना मैं गई थी अपनी बेटी के पास मुंबई। अब 4 दिन से वेट कर रही हूं। वो फ्री होगी तो कहीं चलेंगे। पर वो फ्री ही ना हो। मैं घर में बोर। पांचवे दिन मैने इन्टरनेट पे गोआ की टिकिट बुक की। बैग पैक किया और चल दी। रास्ते से बेटी को फोन किया कि मैं गोआ जा रही हूं तुझे टाइम हुआ तो आ जाना। बेटी को तो टाइम हुआ नहीं लेकिन आपको बता रही हूं पूरे पांच दिन गोआ में अकेले ऐश की है मैनेै। अब कोई है नहीं तो मुंह फुलाकर बैठे तो नहीं रह सकते ना ?“
“मुझे भी सीखना है इन्टरनेट।“
रेखा आंटी को जैसे कोई रास्ता मिल गया हो। फिर मेरी तरफ देख के बोली
“बेटा वो टेबलेट कहते हैं ना, उसमें चल जाता है इन्टरनेट ?“
“हां आंटी मस्त चलता है।“
मैने मुस्कुराते हुए कहा
“हां कैफे में जाके चला तो लेती हूं मैं इन्टरनेट, लेकिन अपने पास हो तो बात ही अलग है।“
“आप फेसबुक पे हो ?“
पूनम आंटी ने चहकते हुए पूछा
“हां कभी बनाया तो था अपना अकाउंट। पर खोलके देखा नहीं फिर कभी। अब देखूंगी फिर से।“
“ठीक है चैट किया करेंगे हम। डोन्ट वरी। लाइफ इज़ गुड। चार दिन बचे हैं मस्ती से काट लो यार।“
पूनम आंटी की इस छोटी सी बात ने जैसे मलहम का काम किया था। रेखा आंटी के चेहरे पर बिखरी हुई उदासी कुछ देर के लिये कहीं खो सी गई थी।
3)
बैरा रात का खाना ले आया था। मुझे फिर से उनके आचार के पैकेट खोलने थे। अपने दांतों से। हांलाकि मुझे अपनी इस नई ड्यूटी से कोई भी परेशानी नहीं थी। अब इन दोनों अजनबियों की जिन्दगी में इतनी गहराई तक शामिल हो जाने के बाद तो कतई नहीं।
खाने-पीने के बाद काफी देर तक पूनम आंटी अपने ट्रेकिंग के किस्से सुनाती रही। उनकी बातों में कश्मीर की बर्फ पिघल रही थी, वैली आॅफ फ्लावर्स के फूलों का रंग बिखर रहा था, मुन्स्यारी की ठंड से कंपकंपाते शब्द थे और हम सब के लिये उनकी इन बातों के अलग-अलग मायने थे।
मैं सोच रहा था कि आंटी इतनी उम्रदराज़ होकर भी कहां-कहां घूम आती हैं। कितने अनुभव हैं उनके पास बताने को। मम्मी शायद सोच रही थी कि औरतें ऐसी भी होती हैं क्या ? इतनी फक्कड़ ? इतनी घुमक्कड़। पापा को भी वो औरत शायद किसी अजूबे सी लग रही थी। तभी तो वो चुपचाप बैठे घंटों से उन्हें सुने जा रहे थे। और रेखा आंटी उनमें अपने लिये सम्भावनाएं खोज रही थी शायद। कि ऐसा भी हुआ ही जा सकता है। सोचने से सबकुछ बदल ही तो जाता है। परेशानियों के हल शायद उन्हीं परेशानियों को देखने के किसी एक खास नज़रिये में छिपे होते हैं। हमें उस नज़रिये से देख पाने का हुनर चाहिये होता है शायद।
सुबह जब ट्रेन दिल्ली के करीब पहुंची तो रेखा आंटी और पूनम आंटी ने एक दूसरे से नम्बर शेयर किये।
ट्रेन से उतरकर मुझे रेखा आंटी के लिये कुली करना था। उन्होंने बताया था
“पिछली बार ना कुली ने 100 की जगह 200 रुपये ले लिये मुझसे। क्या करती देने पड़े। अब उससे कैसे उलझती। बेटा बुरा न मानो तो तुम करवा देना इस बार कुली।“
उनके चेहरे पर लाचारी थी। जो आग्रह की शकल में उनके होंठों से सटी मुस्कुराहट के ठीक बगल में बैठी थी।
ट्रेन से उतरने के बाद 110 रुपये में उनके लिये कुली तय किया। उन्होंने एक बार पीछे मुड़कर देखा, मुस्कुराई। मैने देखा कि उनकी आंखों का काज़ल टस से मस नहीं हुआ था। वो कुली के पीछे-पीछे हल्की सी लंग्ड़ाती हुई प्लेटफार्म पर कहीं दूर जा रही थी। यात्रियों की भीड़ में गुम होती सी। पूनम आंटी भी हाथों के इशारे से बाय बोलकर दूसरी तरफ चल दी।
हम सब एक दूसरे के जीवन में अपनी-अपनी यात्राओं को अधूरा छोड़कर अपने-अपने जीवन की दूसरी यात्राओं पर निकल पड़े। कुछ यात्राएं शुरु तो होती हैं पर कभी खत्म नहीं होती। कुछ यात्री कहानियां बनकर हमारी जि़न्दगी में कहीं न होते हुए भी हमारी जिन्दगी से हमेशा-हमेशा के लिये जुड़ जाते हैं।
कहीं दूर वो अंकल भी जाते हुए दिख रहे थे जिन्होंने पापा को अपनी जिन्दगी को बदल देने वाला वो नुस्खा दिया था। उन्होंने उस वक्त मुझे पीछे मुड़़कर नहीं देखा।
इस कहानी के खत्म होने के ठीक बाद उन्होंने अभी-अभी मुझे पीछे मुड़कर देखा है। रेखा आंटी अपने सेकंड फ्लोर की सीढि़या चढ़ रही हैं। और पूनम आंटी किसी पहाड़ की चोटी पर खड़ी दूर किसी पंछी को उड़ता हुआ देख रही हैं। अब हम सब इस कहानी के अलावा एक दूसरे के जीवन में कहीं नहीं हैं।