रानीखेत उत्तराखंड का एक खूबसूरत हिलस्टेशन है। पहाड़ों में घूमते हुए हर घुमक्कड़ के अपने क़िस्से होते हैं। लतिका जोशी पत्रकार हैं. उत्तराखंड से हैं. कहानियां और कविताएं भी लिखती हैं. आज पेश है रानीखेत और उसके आस-पास के इलाके में की गई उनकी पारिवारिक यात्रा के किस्से.
मेरे पति कहते हैं, पहाड़ों में जाकर मैं कोई और हो जाती हूं। पहाड़ों में रहने वाले मेरे दोस्त कहते हैं कि मैं दिल्ली आकर कोई और हो जाती हूं। मैं खुद भी ये कोई और हो जाने का अंतर महसूस करती हूं खुद मेँ। आप भी करते होंगे। यात्राएं इसीलिए मुझे पसंद हैं। ये हमें वो बना देती हैं जो हम असल में हैं और हमारे जानने वाले हमें कोई और समझने लगते हैं।
जब मुझसे कोई किसी जगह के बारे में पूछता है तो मेरे लिए ‘अच्छी जगह है’, कहकर जवाब देना मुश्किल हो जाता है। मैं जो हर जगह को हर मौसम के साथ देखना चाहती हूं। मैं कैसे बता पाऊंगी कि जिस जगह पर मैं गर्मियों में गई थी, उस जगह पर सर्दियों में जब कोई औऱ फूल खिलते होंगे, तो वो जगह कुछ और ही लगती होगी। इसलिए मैं आपको बस उस समय के बारे में बता सकती हूं, जब मैं गई थी। जगह के बारे में कितना ही बता दूंगी।
तो मैं समय के बारे में बताती हूं। ये समय था दिसंबर 2017। इस लेख को पढ़ने वालों को अभी ही बता दूं कि आपको मैं जगह का ब्यौरा शायद ठीक से ना दे पाऊं, लेकिन सितंबर के महीने में दिसंबर की ठंडी हवा के साथ कुछ देर घुमा जरूर आऊंगी।
हल्द्वानी से सफ़र की शुरुआत
शादी के बाद पति–पत्नी को एक साथ छुट्टी मिलना किसी वरदान से कम नहीं। तो हमें ये वरदान प्राप्त हुआ था। पहले हमारी प्लैनिंग थी, रानीखेत जाएंगे और फिर लौट आएंगे। लेकिन फिर लगा कि 5 दिन की छुट्टियां पूरी की पूरी रानीखेत में लुटाकर क्या कर लेंगे। अगर आप पहाड़प्रेमी हैं तो आपको मैं इन बातों में निष्ठुर लग रही हूंगी लेकिन ये पहाड़ मेरा घर थे। ये सब देखी हुई जगहें थी, यूपी से होने के नाते पति के लिए जरूर ये अलग तरह का अनुभव होने वाला था।
ये जो समय था ना , ये फेस्टिव सीजन था, अभी–अभी क्रिसमस निकला था, न्यू ईयर करीब था। ऐसे मैं पहाड़ों में सारे होटल, रेजॉर्ट बुक्ड थे। रानीखेत में हमें कहां रुकना था, ये तय था। सब सेट था लेकिन इंटरनेट पर कुछ सर्च करते हुए मुझे एक बहुत बड़े झरने के बारे में पता चला। बिरथी फॉल। बिरथी फॉल मुनस्यारी से 30 किलोमीटर पहले। मुनस्यारी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का एक गांव। झरना देखते ही मेरा मन किसी बच्चे की तरह मचल गया। उसी समय ये तय हुआ कि 1-2 दिन रानीखेत में रुकने के बाद बिरथी निकल पड़ेंगे , फिर मुनस्यारी जाएंगे और सीधे लौटेंगे अगले साल। अरे मेरा मतलब 1 जनवरी 2018 को।
पर समस्या एक ही थी, रुकेंगे कहां? हमने सारे होटल चेक किए, कहीं जगह नहीं मिली। पापा ने बताया कि वहां के टूरिस्ट रेस्ट हाउस में रुका जा सकता है। तुरंत फोन लगाया। खुशकिस्मती थी कि रूम मिल गया। अब सब कुछ सेट था। हमने तय किया था कि हलद्वानी से रानीखेत गाड़ी से नहीं बस से जाएंगे।
हल्द्वानी को गेट ऑफ कुमाऊं कहते हैं। हल्द्वानी से ज़्यादा पहाड़ों की उम्मीद ना रखें, हां पहाड़ यहां से दिखते हैं, पर ये शहर है। शहर जहां मॉल होते हैं, पीवीआर होते हैं, सारे ब्रैंड्स की चमाचम होती है। पहाड़ों की प्रजेंटेशन काठगोदाम से शुरू होती है। काठगोदाम यानी पहाड़ों का आखिर रेलवे स्टेशन। दिल्ली से सफर पर निकलेंगे तो ट्रेन आपको काठगोदाम रेलव स्टेशन पर ही छोड़ेगी। इसके आगे का सफर बस, कार या टैक्सी से करना होगा।
भीमताल से गुज़रना
सुबह 8 बजे हमने बस पकड़ी और हल्द्वानी के पेड़ों, दुकानों, मॉलों को एक–एक करके पीछे छोड़ते हुए भीमताल के खामोश किनारे से होते हुए रानीखेत की तरफ निकल पड़े।
भीमताल मुझे शांत लगता है बहुत। किसी पूर्व सज्जन प्रेमी की तरह। कि जैसे उसके पास में बैठे बिना बस उसे एक नज़र देखकर आप कहीं आगे बढ़ रहे हों, किसी और प्रेमी की ओर। ऐसे में वो मजबूरी समझता है, बस नम आंखों से विदा देता है। कहता है कि तुम्हारा लौटना भी यहीं से होगा, तब मिलोगी ना। बस आगे बढ़ती जाती है और मैं झांककर उसे देर तक देखती चली जाती हूं। उसी प्रेमिका की तरह, जो सोच चुकी है कि उसे क्या करना है, लेकिन मोहपाश भी नहीं तोड़ पा रही उससे।
और फिर भीमताल ओझल हो जाता है नज़रों से। मैं वादा करती हूं, हां लौटते हुए बैठूंगी तुम्हारे साथ…कुछ देर। तुमसे ढेर सारी बातें करूंगी। याद करूंगी कि तुम्हारे किनारों ने कई बार मुझे गले लगाया है। कई बार मेरे आंसू पोछे हैं। मैं ये सब भुला पाऊंगी भला!
पहाड़ विपरीत परिस्थितियों में जीना सिखाता है, पहाड़ी सीखते हैं
बस से यात्राओं का अनुभव एकदम अलग होता है और उस सफर में जो हमसफर मिलते हैं, उनकी नज़र से पहाड़ों को देखिए…यकीन मानिए आपको मुहब्बत हो जाएगी पहाड़ों से। किसी की खूबसूरती में खोकर मुहब्बत करना और बात है, उस मुहब्बत को तमाम दिक्कतों के साथ जीवन बना लेने वालों से मिलना और बात।
देखिए कि उनके माथों में जो रेखाओं के डिजायन बन गए हैं वो अपनी परतों में कितना कुछ समेटे हुए हैं। वो खुलकर हंसते हैं, उन्हें कोई लेना–देना नहीं, आप कौन हैं, क्या करते हैं, कहां से आए हैं, क्यों आए हैं…वो बस खूब सारे अफसाने और अनुभव अपने दिल में संजोए हुए हैं, पूछके तो देखिए।
देखिए उनकी आंखों में जो ये निश्छल मुस्कान है ना, ये आपसे कहती है, स्वागत है आपका…घूमिए और ले जाइए इन पहाड़ों को अपने साथ अपनी आंखों में छुपाकर। पहाड़ विपरीत परिस्थितियों में जीना सिखाता है, पहाड़ी सीखते हैं।
उनसे दोस्ती बढ़ेगी तो वो बताएंगे कि उनके झोले में एक टॉर्च हमेशा रहती है। रात को यूं वे कहीं निकलते नहीं पर अगर जाएं तो लाठी साथ में रखते हैं। वो आपको किस्से सुनाएंगे जंगली जानवरों के, रूहों के, भूतों के। आप सोच रहे होंगे मैं एक ही बस में कैसे उन लोगों से टकरा गई जिनके पास इतनी कहानियां थी।
आपको एक ट्रिक बताती हूं। मैं ये ट्रिक अक्सर आज़माती हूं, और ये हमेशा काम आती है। आप बस में बैठें या ट्रेन में, अगर चाहते हैं कि आपका सफर खूब मज़ेदार किस्सों में बीते तो भूतों की बात छेड़ दें। उनसे पूछें कि आपने कभी भूत देखा है? फिर देखिए….एक–एक करके किस्से निकलते चले जाएंगे, आप विस्मित होंगे, कमज़ोर दिल हों तो घबरा भी सकते हैं लेकिन वो लोग तब और भी दिलचस्प होते चले जाएंगे और उनकी बातें और भी मज़ेदार।
भूत और भगवान पर कोई भरोसा करे न करे, लेकिन ये बातें इतनी रसीली और रोचक होती हैं कि कोई इन्हें मिस नहीं कर सकता। अगली बार जरूर आज़मा के देखिएगा।
बस चल रही है और हवा भुट्टों की महक को चुरा लाई है
देखा इसीलिए मैं यात्रा के बारे में लिख नहीं पाती, मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या–क्या लिखूं और क्या–क्या छोड़ दूं। मैं ये लिखूं कि बस में बैठे एकदम ठेठ पहाड़ी दिखने वाले एक अंकल ने बताया कि वो आईआईटियन हैं और विदेश में मिली जॉब को पहाड़ों की शामों के लिए छोड़के आ गए। उस विदेशी लड़के के बारे में लिखूं जो कह रहा था कि अब उसका मन अपने देश जाने का नहीं होता। अब वो पहाड़ों को ही अपना घर, अपना देश मान चुका है।
या मैं ये सब कुछ भी नहीं लिखूं बस आपको खिड़की के बाहर दिखा दूं एक बार। दिखा दूं कि दिसंबर के महीने की एक सुबह में जब आप पहाड़ों की ओर बढ़ते हैं तब आपको नदियों से बादल उठते हुए दिखते हैं। या ये दिखाऊं कि कैसे चीड़ और देवदार के पेड़ इन बादलों के भंवर में फंस रहे हैं।
या ये दिखाऊं कि शॉल में लिपटे हुए बस में बैठी एक नई–नई शादीशुदा लड़की बार–बार शीशे खोलकर हाथों से धूप छूने की कोशिश कर रही हैं, मुझे हंसी आती है कि इतनी धूप से उसे कौन सी राहत मिल जाएगी। उसकी नज़र मुझ पर पड़ती हैं तो मुस्कुरा देती हैं। मुझे याद नहीं मैं कब बिना किसी बात के किसी अनजान की ओर देखकर कब मुस्कुराई थी इस तरह। कितना भरोसा और अपनापन है, कितनी एक्सेप्टेंस है यहां, इनकी नज़रों में।
खिड़की के बाहर सड़क के किनारे कुछ भुट्टे वाले बैठे हुए हैं, बिना किसी तामझाम के, उनके पास ले आऊं क्या आपको? देखिए तो उनके सामने कुछ लकड़ियां जल रही हैं और उस पर भुट्टे सिक रहे हैं। बस चल रही है और हवा भुट्टों की महक को चुरा लाई है मरे लिए। मेरा जी मचल उठता है। ‘भुट्टे खाने हैं यार…’मैं प्रसून (पति) से कहती हूं। वो मेरे नखरे अपनी भहों पर चढ़ाकर कहते हैं, यहां कैसे बस में? मैं मन मसोसकर कंधे पर सिर रखकर सो जाती हूं। और नींद तब खुलती है जब एक झटके के साथ रानीखेत स्टेशन पर बस रुकती है।
रानीखेत से पहली मुलाक़ात
बस रुकने के साथ अहसास हुआ कि पेट के चूहे अब कबड्डी खेलना छोड़के आंतों से लटक कर मुंह से बाहर निकलना चाहते हैं। दोपहर के 2 बज रहे थे और रानीखेत कभी धूप बरसा रहा था तो कभी ठंडी हवाओं से हाथ मिला रहा था। हमने सबसे पहले एक छोटे से रेस्टॉरेंट में जाकर खाना खाया। खाना सादा था लेकिन ठंड से कांपते हाथ जब अपने पेट में भाप दबाई हुई रोटी को तोड़ रहे था नो ता आएहाए…समझ नहीं आ रहा था इस गर्म रोटी से हाथ सेकूं या मुंह में डालकर भूख मिटाऊं।
एक बढ़िया सा लंच करने के बाद हम अपने होटल पहुंचे। मैं सोचती हूं उस जगह का नाम रानीखेत से बेहतर और क्या हो सकता है। रानीखेत मतलब रानी का खेत या बागीचा। जैसा नाम, वैसी ही खूबसूरत जगह। सामने से दिखती हिमालयी श्रृंखलाएं जैसे आपसे कह रही हो…बस कुछ देर और…फिर तुम यहां होगे…यहां मेरे पास। चीड़, देवदार और ओक के पेड़ों के बीचों–बीच हमेशा आगे बढ़ने के जुनून में चलता रास्ता और उस रास्ते का छोर पकड़कर आगे बढ़ते हम।
अभी 4 बजे थे और धूप पेड़ के सिरों पर लटककर हमें तरसा रही थी। चीड़–देवदार के जंगल जैसे ठंड को बढ़ावा दे रहे थे। कुमाऊं रेज़ीमेंट का मुख्यालय है यहां। यहां की आबोहवा में जो अनुशासन है, कौन जाने रेज़ीमेंट की ही संगत का असर हो। ये जगह जिनती हसीन है, उतनी ही सौम्य है। जैसे कोई यहीं के लिए तो निकला था, यही तो चाहता था। कसम है ऊपर वाले की…ऐसा हो नहीं सकता कि आप रानीखेत जाएं और दिल्ली की नौकरी छोड़ने के बारे में ना सोचें। ये जगह प्रेमी और वैरागी एक साथ बना देती है।
(यह वृत्तांत इससे पहले ‘ग्रासहॉपर’ पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है.)
जारी…
लतिका जोशी की रानीखेत यात्रा का दूसरा हिस्सा यहाँ पढ़ें
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1 Comment
Anil Verma
(November 11, 2018 - 12:38 pm)अल्मोड़ा की सिंगोड़ी से भी मीठा और कोसी की लहरों सा अल्हड़ लेखन। अगले भाग का बेसब्री से इन्तेजार रहेगा। लेखिका को अपने फॉलोवर्स की सुविधा को ध्यान में रखकर, फेसबुक में “फॉलो” का ऑप्शन रखना चाहिए था।