Mumbai Diary : 15 ( 24 October 20112)
Mumbai Film Festival 2012
पिछले पांच दिनों से मुम्बई के पांच अलग अलग थियेटरों का पीछा किया है। हर थियेटर जैसे एक ट्रेन सा हो और फिल्म शुरु होने का वक्त जैसे किसी सफर के शुरु होने का वक्त हो। रोज कई ऐसे ही सफर तय किये हैं इन दिनों में। सुबह उठना, घर से निकलने के पहले ज़रुरी काम निपटाना, रेलवे स्टेशन की तरफ भागना, चलती हुई टेन में मुम्बई फिल्म फेस्टिवल के कैटलौक पर डौट पेन से टिक करके सम्भावित अच्छी फिल्मों की लिस्ट बनाना, टिकट खिड़कियों से उस फिल्म का पास लेना, वक्त पर पहुंचने के लिये थियेटर की तरफ भागना और फिर थियेटर में लगभग दो घंटे तक उस फिल्म के पैदा किये हुए संसार को जीना।
इस फिल्म फेस्टिवल ने कुछ दिनों के लिये दिनचर्या को बिल्कुल बदल दिया है। और ऐसा मुम्बई में मौजूद कई सिनेप्रेमियों के साथ हुआ है। जब आपके सामने दो सौ से ज्यादा चुनिंदा फिल्मों की लिस्ट हो और आपके पास उनमें से बस बीस पच्चीस देख पाने का मौका हो तो लगता है काश दिन बड़े हो जाते और उन बड़े हुए दिनों में कुछ और ज्यादा फिल्में मामी की समय सारिणी में शामिल हो पाती। जैसे कई सारी अशर्फियां आपके सामने रख दी गई हो और कह दिया गया हो- समेट लो जितना समेटना है।
चेरी : पॉर्न इंडस्ट्री में काम करने वाली लड़कियों की कहानी
कल एक कहानी पूरी करके शाम के 5 बजकर 30 मिनट वाली फिल्म देखने के लिये सायान रवाना हुआ। शेमलैस देखने का मन था पर पहुंचते पहुंचते देर हो चुकी थी। इसलिये दूसरी स्क्रीन पर बस अभी अभी शुरु हुई फिल्म चेरी देखने बैठ गया। आने से पहले सोचा था कि इसके बाद दिन की आंखिरी एक और फिल्म देखी जाएगा। पर न जाने क्यों चेरी आधी छोड़कर हौल से लौट आया। मन उचट सा गया, दूसरी फिल्म देखने का खयाल दूसरे दिन तक के लिये टाल दिया। चेरी एक टीनेएजर लड़की की कहानी है जो किसी तरह सेन्फ्रेंसिसको आकर पोर्नोग्राफी के व्यवसाय में आ जाती है।
फिल्म में पोर्नोग्राफी की दुनिया में काम करने वाली लड़कियों की जि़न्दगी को दिखाने की कोशिश की गई है पर फिल्म आपको कहीं ईंगेज नहीं कर पाती। कोई ऐसी नई बात नहीं कहती या दिखाती जिससे आपको इस व्यवसाय में काम करने वाले लागों की मनोवैज्ञानिक स्थिति की ज़रा भी झलक मिले। एक बेहद कमज़ोर फिल्म। उस फिल्म को सिनेमा हौल में देखते हुए बड़ा असहज सा महसूस होता रहा। आधी फिल्म से लौटकर कुछ देर यूं ही सायान के आसपास की अजनबी गलियों में भटकने का मन हुआ। नुक्कड़ की दुकान पर चाय पी और घर लौट आया।
आमोर : बेहतरीन अदाकारी और निर्देशन का जादुई कमाल
फेस्टिवल का पांचवा दिन अच्छी फिल्में देखने के लिहाज से सबसे बेहतर रहा। एनसीपीए के जमशेद बाहा थियेटर में 3 बजकर 30 मिनट से माईकल हैनेके की फिल्म आमोर देखनी शुरु की। इस फिल्म को कई लोगों ने रिकमन्ड किया था। लगभग 1100 लोगों की कैपेसिटी वाले इस थियेटर में मुश्किल से कोई सीट खाली थी। मुम्बई फिल्म फेस्टिवल की इस फिल्म का बड़े दिनों से बेसबरी से इन्तज़ार था। और फिल्म देखने के बाद लगा कि वो इन्तज़ार, वो बेसबरी बिल्कुल जायज़ थी। महज एक अपार्टमेंट में सेट इस पूरी फिल्म के केन्द्र में 80 साल का एक बुजुर्ग दंपति है। दोनों रिटायर्ड म्यूजिक टीचर हैं। उम्र के लगभग आंखिरी पड़ाव में प्यार के अहसास को कितनी खूबसूरती से महसूसा, जिया और निभाया जा सकता है इस फिल्म में इसकी बेहतरीन नुमाईश होती है।
वो उम्र जब प्यार में कोई दैहिक या शायद काफी हद तक मनोवैज्ञानिक जिज्ञासाएं नहीं रह जाती, जहां शायद बड़ी बड़ी ख्वाहिशें दम तोड़ चुकी होती हैं, या उनकी ज़रुरत ही नहीं रह जाती, जहां उम्र बचपने की ओर लौटने लगती है, छोटी सी बातों से खुशी की लहरें दौड़ जाती है, या कोई छोटा सा अहसास दिल दुखा जाता है, खीझ होने लगती है, आत्मसम्मान को ठेस पहुंच जाती है, जि़न्दगी के सबसे नाजुक मोड़ में आंखिरी सांसें लेती जि़न्दगी। और उस उम्र में जब आप शारीरिक रुप से असहाय हो जाएं, खुद के शरीर के अंग आपका साथ छोड़ने लगे, ऐसे में आपके पास कोई हो, जो आपके एक एक अहसास की कद्र करने के लिये जि़न्दा हो, एक एक इच्छा और ज़रुरत का खयाल रखने के लिये खुद को समर्पित कर चुका हो। आमोर इन सारे अहसासों की बहुत ही गहराई से पड़ताल करती है, इस हद तक कि आपको एक एक संवाद, एक एक ध्वनि और यहां तक कि एक एक सन्नाटा खुद से जोड़ लेता है।
बेहतरीन अदाकारी और निर्देशन का जादुई कमाल ही है कि फिल्म के किरदार जैसा महूसस कर रहे होते हैं आप उस अहसास के बिल्कुल करीब पहुंच जाते हैं। फिल्म इस हद तक खुद से आपको जोड़ लेती है कि आपको किसी कहानी की दरकार नहीं रह जाती। साउन्ड डिज़ाईन से लेकर सिनेमैटोग्रेफी तक सब कुछ बेहद सधा हुआ और खूबसूरत। हैनेके की इस फिल्म में बार बार एक कबूतर अर्पाअमेंट में आता है। निसंदेह आमोर को देखना मुम्बई फिल्म फेस्टिवल के सबसे खूबसूरत अनुभवों में एक रहा।
पांच अध्याय : प्रियांशु और दिया मिर्ज़ा की कुछ हटकर फ़िल्म
आमोर के बाद आईनौक्स में प्रोतिम दास गुप्ता की बंगाली फिल्म पांच अध्याय के लिये जा रहा था कि थियेटर के ठीक बाहर किसी ने पीछे से पीठ में हाथ रखकर आवाज़ लगाई। पीछे मुड़ के देखा अजय ब्रहमात्मज जी सामने थे। उन्होंने भी पांच अध्याय का पास लिया था। फिल्म के निर्देशक प्रोतिम दास गुप्ता अजय जी से मिले तो उन्होंने मुझे भी उनसे मिलवा दिया। आडिटोरियम में जाते ही प्रियांशु अजय जी से मिले । कुछ देर बात चला कि प्रियांशु ही इस फिल्म के लीड हैं। कभी तुम बिन में उन्हें देखा था। फिल्म शुरु होने से पहले एक बार फिर यश चोपड़ा जी के निधन पर दो मिनट का मौन रखा गया। प्रियांशु और दिया मिर्ज़ा फिल्म के लीड हैं। फिल्म पांच हिस्सों में बंटी है। ये हिस्से दरअसल एक रिश्ते के पांच हिस्से हैं। एक दूसरे को प्यार करने वाले दो लोगों के रिश्ते को वक्त में आगे पीछे जाकर पांच अलग अलग परतों में देखने की एक कोशिश।
प्रोतिम की ये फिल्म ऐसी नहीं हैं जो कि गहराई तक छाप छोड़ जाये। जिसे आप शायद लम्बे समय तक याद रखें। पर अगर आप बालिवुड मसाला और आर्ट फिल्मों के बीच के किसी जौनर में यकीन रखते हैं तो बिना किसी इरिटेशन के आप इस फिल्म को पूरा देख सकते हैं। एक निर्देशक के रुप में प्रोतिम की भी ये पहली फिल्म है, और एक एक्टेस के रुप में दिया मीर्जा की पहली रीजनल फिल्म। पांच अध्याय में प्यार की मासूमियत तो है पर एक रिश्ते का डाईसेक्शन करते वक्त फिल्म उतनी मेच्योर नहीं लगती। फिल्म बीच बीच में आपको कुछ अच्छे मूमेन्टस ज़रुर देती है, पर कुल मिलाकर प्यार, तकरार और आंखिर में बहुत प्रिडिक्टेबल क्लाईमेक्स की वजह से दिल में गहरे तक नहीं उतर पाती। कहीं सतह पर कुछ अच्छे अनुभव छोड़कर निकल जाती है।
अजय जी और मैं दोनों थियेटर से निकले तो पानी के गिरने की तेज़ तेज़ आवाज़ें आ रही थी। लगा कि कूलिंग मशीन की आवाज़ होगी पर जैसे ही आईनौक्स के बाहर निकले बारिश की तेज़ तेज़ बूंदें गिर रही थी। ऐसी सरप्राईज करती बारिशें कभी कभी अच्छी लगती हैं। मिटटी की सौधी महक दिल खुश कर जाती है। लेकिन इस वक्त हमें आईनौक्स से कुछ दूर एनसीपीए पहुंचना था। पर बारिश थी कि रुक ही नहीं रही थी। अजय जी ने कहा चलो चले चलते हैं ज़रा भीग ही तो जाएंगे। लगा कि जब मुझसे कई ज्यादा उम्रदराज होने के बावजूद उन्हें भीगने का कोई डर नहीं है तो फिर मुझे क्यों। अब तक बारिश हल्की हो चुकी थी। हल्की हल्की बारिश में भीगते हुए हम जमशेद बावा थियेटर पहुंचे जहां इलैक्टिक चिल्डन नाम की वो फिल्म बस अभी अभी शुरु हो चुकी थी।
इलैक्ट्रिक चिल्डन : अच्छे सिनेमाई अनुभवों में एक
इलैक्ट्रिक चिल्डन में एक मां अपने टीनेजर बच्चों को कहानिया सुनाया करती है, एक दिन उसकी लड़की को पता चलता है कि वो प्रेग्नेंट है। इसी बीच वो एक औडियो टेप सुनती है और उसे महसूस होता है कि उस टेप में जिसकी आवाज़ उसने सुनी है वही उसके पेट में पल रहे बच्चे का पिता है। उस अजनबी, अनजान आदमी को वो भगवान का कोई दूत समझकर उसकी खोज में घर से भागकर एक शहर की ओर निकल जाती है। शहर में उसकी मुलाकात उसी की उम्र के लड़के लड़कियों के एक गु्रप से होती है। कैसे वो और उसका भाई शहर में इस ग्रुप के साथ घुलते मिलते हैं, कैसे लड़की अपने बच्चे के पिता की जगह अपने पिता को खोज लेती है, घर लौटती है तो वहां उसकी शादी करने का प्रयास किया जाता है और आखिरकार कैसे शहर से उस गु्रप में मौजूद लड़का, जो उसे पसंद करता है, कस्बे में आकर शादी के इस जंजाल से निकालकर उसे अपने साथ ले जाता है। फिल्म में ह्यूमर का भरपूर पुट है और उसे अच्छे तरीके से निभाया गया है, इसीलिये पूरी फिल्म देखने में मज़ा आता है। नरेशन के टूल के रुप में आडियो टेप को अच्छी तरह से फिल्म में प्रयोग किया गया है। मुम्बई फिल्म फेस्टिवल के अच्छे सिनेमाई अनुभवों में एक रही ये फिल्म।
फिल्म से लौटते वक्त रात का लगभग साड़े दस बच चुका था। एनसीपीए से कोई टैक्सी नहीं मिल रही थी। अजय जी और मैं समन्दर किनारे मरीन डाईव पर कुछ आगे चले आये थे। राह चलते अजय जी ने बताया कि अपने संघर्ष के दिनों में यहां से एक ही दिन में कई बार सीएसटी तक पैदल चलना पड़ता था। तब जेब में टैक्सी तो दूर बस तक के पैसे नहीं होते थे। अजय जी की बातों से लगा कि इसी तरह छोटी दूरियां तय करते करते हम कितनी बड़ी दूरियां तय कर लेते हैं हमें पता ही नहीं चलता। ट्राईडेन्ट होटल के बाहर टैक्सी वाले बड़ी दूरियों की सवारियों का इन्तज़ार कर रहे थे। और हमें किसी ऐऐ टैक्सी वाले का इन्तज़ार करते कुछ और आगे चले आये जो हमें हमारी छोटी दूरियों तक पहुंचा दे। खैर अजय जी को रास्ते पे डौप करके मैं सीएसटी चला आया। वहां कुछ देर खड़े होकर चाय पी, एक समोसा खाया। अपनी अपनी साईकिल पे अन्डे की भुजिया और पाव बेचते कई लोग थे वहां। अपने अपने काम से लौटे थके हारे लोग जितनी चाव से भुजिया और पाव खा रहे थे उन्हें देखते हुए एक खयाल आया कि क्या ये लोग अपनी जिन्दगी को ईतनी चाव से जी पाते होंगे। ऐसे ही छोटे छोटे चाव से जिये जाने वाले पल जिन्दगी को खूबसूरत बनाते हैं शायद।
कुछ देर बाद स्टेशन पर मुझे अपने लम्बे सफर के लिये टेन मिल चुकी थी। एक छोटा सफर पीछे छूट चुका था। और इन दोनों घटनाओं से अलग एक और लम्बा सफर आगे इन्तज़ार कर रहा था।