किशोर चंद्र पाटनी, उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में गोरंगचौड़ नाम की जगह पर राजनीति विज्ञान के प्रवक्ता हैं. उनकी एक किताब आ रही है – ‘गोरंग देस से गंगोत्री’. यात्रा पर आधारित इस किताब के अंश हमें भेजे हैं लेखक और शिक्षक महेश पुनेठा ने. तो पहले पेश किताब पर लिखी गई महेश पुनेठा जी की एक टिप्पणी और फिर किताब से एक छोटा सा हिस्सा.
यह बहुत कम दिखाई देता है कि कोई पहली बार अपने अनुभव लिखने शुरू करे और कुछ समय बाद ही वे अनुभव एक किताब के रूप में सामने आ जाए। लेकिन यह सच कर दिखाया हमारे शिक्षक मित्र किशोर चंद्र पाटनी ने, जिन्होंने एक यात्रा के बहाने अपने अनुभव को संजोकर एक किताब का रूप दे डाला। यह किताब प्रकाशित होकर आ चुकी है ,जिसका शीर्षक है – गोरंग देस से गंगोत्री।
यह किताब लिखी तो एक यात्रा वृतांत के रूप में गई है लेकिन जिस तरह से छोटे-छोटे किस्सों को इसमें बुना गया है उससे किताब विविधवर्णी हो चली है। इसमें केवल देखी गयी जगहों के चित्र ही नहीं बल्कि अपने बचपन से जुडी स्मृतियों को भी शामिल किया गया है। साथ ही लेखक द्वारा पढ़ी गयी अनेक किताबों के प्रसंग और कवितायेँ भी उल्लिखित की गयी हैं। इस किताब की सबसे रोचक बात मुझे जो लगती है वह यह है कि इस किताब के केंद्र में एक ऐसे ऐसे शिक्षक के प्रेम की कहानी है जो अपनी पहली नियुक्ति स्थल से इतना प्रेम करते हैं कि 40 साल के बाद केवल उस स्थल के दर्शन करने के लिए वहां जा पहुंचते हैं।
आपने किसी व्यक्ति के प्रति लगाव की कहानियां तो बहुत सुनी होंगी लेकिन ऐसा शायद ही कभी सुना हो। यह अपने आप में अद्भुत है। लेखक ने अपने पिताजी के इस लगाव को केंद्र में रखते हुए यह यात्रा वृतांत लिखा है, जिसमें वह केवल अपनी इस यात्रा का वर्णन ही नहीं करते हैं ,बल्कि उस बहाने 40 साल के अंतराल की कहानी और उस दौरान आए तमाम तरह के परिवर्तनों को भी दर्ज करते हैं। साथ ही छोटे-छोटे किस्सों को इस तरह अपने वर्णन में शामिल करते हैं की यह बहुत रोचक बन जाता है।
महेश पुनेठा
अब किताब से एक अंश
जिस मुखबा के मैने सैकडों किस्से पिताजी से सुने थे , आज वह मेरे सामने था। मुखबा के गाँव के बीच में स्थित गंगा का मन्दिर दूर से ही दिखाई दे रहा था। मुझे पिताजी की बतायी हुई पुरानी बातें याद आने लगी। पिताजी जब गंगा के प्रति मुखबा के लोगों के रिश्ते का वर्णन करते हैं तो ऐसा लगता है कि जैसे गंगा किसी घर की एकलौती संतान है। मुखबा हर्षिल से लगभग 2 किमी दूर एक गाँव है। मुखबा में शीतकाल के दौरान माँ गंगा की पूजा की जाती है। प्रतिवर्ष दीपावली के बाद गंगोत्री में मुख्य मंदिर के कपाट शीतकाल के लिए बन्द हो जाते हैं। गंगा की भोग प्रतिमा को मुखबा गाँव के मंदिर में रखा जाता है। गंगा के साथ ही अन्नपूर्णा की मूर्ति पूजा भी यहीें पर होती है। हर साल अक्षय तृतीया के दिन गंगोत्री धाम के कपाट खोलने की परम्परा है। अक्षय तृतीया के पहले दिन मुखबा गाँव के स्त्री-पुरूष, वृद्ध और बच्चे माँ गंगा की विदाई में दूर तक शामिल होते हैं। पिताजी पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि गाँव की वृद्ध महिलाएँ गंगा से विदा लेते समय जोर -जोर से रोने लगती थीं। ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे वे अपनी बेटी को विदा कर रही हों। वह दृश्य प्रेम और बिछोह के कारण गमगीन हो जाता था। वास्तव में मुखबा के लोग गंगा को अपनी बेटी ही मानते हैं। मुखबा में गंगोत्री धाम के पंडे सेमवाल और राणा लोग रहते हैं। ये पंडे लोग 6 महीने गंगोत्री में तथा 6 महीने मुखबा में गंगा की पूजा करते हैं।
मुखबा गाँव हर्षिल की अपेक्षा अच्छी जगह बसा है। इस जगह सूरज की किरणें सुबह से शाम तक बनी रहती हैं। यहाँ एक संस्मरण याद आ रहा है कि हमारे गाँव में भी जाड़ों में सूरज को बादलों से घिरे रहने पर बहुत जाड़ा होता है। अन्य दिनों में भी हमारे घर पर सूरज की किरणें देर से आती हैं।
घर के सामने दिखाई देने वाली पंचचूली पर्वतमाला से ठंडी हवा सीधे हमारे घर पर दस्तक देती है। अधिक ठंड लगने पर पिताजी मुखबा निवासी अपने शिष्य परमानन्द द्वारा गाये जाने वाले गीत के मुखडे़ ”हर्षिल की ठंडी हवा, मुखबा को घाम ” को गुनगुनाते रहते हैं। दरअसल मुखबा में तो जाड़े के दिनों में अच्छी धूप रहती है परन्तु हर्षिल में धूप देर से आती है और जल्दी चली जाती है। पिताजी को मुखबा गाँव के ठीक उपर की पहाड़ी में उस समय में एक पिकनिक के आयोजन की भी बहुत याद है। वे बताते हैं कि उस जगह स्कूल के बच्चों के साथ ही स्टाफ के अन्य लोग भी पिकनिक में शामिल हुए थे। वहीं पर सबके लिए खाना बनाया गया। छात्रों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।
उस पहाड़ी के ऊपरी भाग में भीमगंगा के पास ब्रह्मकमल होते हैं। ब्रह्मकमल को वहाँ बहुत पवित्र माना जाता था। वहाँ के लोग विशेष अवसरों पर ब्रह्मकमल को पूजा पाठ में चढ़ाने के लिए तोड़कर लाते थे। कभी कभी उनके छात्र भी विद्यालय में ब्रह्मकमल ले आते थे। ये फूल बहुत ही सुगन्धित होते हैं। मुखबा में सितम्बर के महीने में नागदेवता की पूजा का उत्सव मनाया जाता था। यह मेला 2 या 3 दिन तक आयोजित होता था। बड़े -बड़े बर्तनों में दूध व दही इकट्ठा किया जाता था। इसे प्रसाद के रूप में सब लोगों में बाँटते थे। हरेला काटकर विशेष अतिथियों के कानों में रखा जाता था। भोजपत्र के उपर हलुवा और पूरी प्रसाद के रूप में बाँटा जाता था। मेहमानों का विशेष खयाल रखा जाता था। गाँव के लोग मेहमानों को बुलाकर अपने घरों में भोजन करने का आग्रह करते थे । उस गाँव में अतिथि देवो भवः की मान्यता थी। जिस घर में अधिक मेहमान जाकर भोजन ग्रहण करते थे उस घर के लोग अपने आप को धन्य समझते थे। उत्सव में लोकगीत व नृत्य के कार्यक्रमों की धूम रहती थी। मुखबा में धारचूला एवं मुनस्यारी की तरह ही गंदरायण और जम्बू बहुतायत में होता है। इन जड़ी बूटियों का नाम यहाँ क्रमशः चोरा और लादू है। पिताजी का कहना है कि वहाँ पर चाय में अक्सर चोरा डाला जाता था। ठंड से बचने के लिए ऐसी जड़ी – बूटियों का प्रयोग अक्सर प्रत्येक प्रकार के भोजन में होता था।
मुखबा के दशरथ पंडा नाम के एक काश्तकार ने सेव की एक नयी प्रजाति को विकसित किया है। इस सेव का नाम भी दशरथ वैरायटी सेव रखा गया है। इस प्रजाति का सेव बहुत छोटा तथा स्वादिष्ट होता है। मुखबा के बारे में पिताजी ने एक बात और बतायी थी कि वहाँ लोगों के घरों में अनाज भंडारण के लिए लकड़ी से बना एक कोठार होता है। यह कोठार घर से बाहर कुछ दूरी पर होता है। जमीन के भीतर सीढियों से नीचे उतरकर एक कमरा होता है। इस कमरे के दरवाजे में साँकल पर एक डोरी लगी होती है। डोरी का एक हिस्सा घर के भीतर बँधा रहता है। किसी जानवर या चोरों के दरवाजा खेालने पर उसमें बँधी घंटी बजती है। घंटी की आवाज से घर के लोगों को जानवर के आने का पता चल जाता है। पिताजी ने ऐसा कोठार श्री प्रताप सिंह राणा जी के घर में देखा था। राणा जी भी हर्षिल के विद्यालय में अध्यापक थे। मुखबा के एक और अन्य अध्यापक श्री पारेश्वर प्रसाद सेमवाल भी हर्षिल में कार्यरत थे।
आज मुखबा में रहने वाले सभी पंडे कुछ दिनों बाद शुरू होने वाली चारधाम यात्रा की तैयारियों में लगे हुए हैं। गंगा का स्थान आज भी उनकी बेटी के ही रूप में है। लेकिन आज उसके स्वरूप में अन्तर है। आज गंगा उनके लिए आजिविका का साधन है। गंगोत्री मंदिर व्यवस्था कमेटी में राजनीतिक दलों का भी हस्तक्षेप है। व्यवसायिकरण के दौर में गंगा के साथ कई प्रयोग किये गये हैं। गंगा के साथ इस छोटी सी यात्रा को करते हुए मुझे अभय मिश्र और पंकज रामेन्दु द्वारा लिखी गयी ”दर दर गंगे ” पुस्तक में पढ़ी कहानियां याद आ गयीं। लेखक द्वय ने अपनी किताब में गंगा के सफर में आने वाले प्रत्येक शहर में गंगा के रूप का सजीव चित्रण किया है।
चिन्यालीसौण से लेाहारी नागपाला तक आने पर गंगा का जलस्तर मुझे बहुत कम दिखाई दिया। मैने गंगा के जिस विशाल रूप की कल्पना की थी उसके लिए मुझे निराश होना पडा़। वैसे इस क्षेत्र में विद्युत उत्पादन के लिए कई परियोजनाएं स्थापित की गयी हैं। पर एक बात मुझे अच्छी लगी कि झाला से धराली और मुखबा के पास तक गंगा के चैडे़ पाट प्राकृतिक रूप में हैं। यहाँ पर नदी भले ही छोटी हो पर उसके विस्तार के लिए पूरी जगह है। एक बात और कि यहाँ पर नदी से रेत, रोडी़ का अतिदोहन नहीं किया गया है। मैने गंगा के रूप को हरिद्वार, इलाहाबाद , बनारस आदि स्थानों में भी देखा है। लेकिन मुखबा के पास गंगा के पवित्र रूप को देखकर मन खुश हो गया। स्थानीय लोग गंगा के जिस स्वरूप को कभी मैदानी भागों में जाकर देखते होंगे तो वे बड़े दुखी होते होंगे।
मुझे यहाँ के लोगों के लिए गंगा की बिगड़ती दशा पर कवि वीरेन डंगवाल द्वारा लिखी गयी कविता गंगा स्तवन का यह अंश याद आ गया।
“मुखबा में हिचकियां
लेती सी दीखती है
अतिशीतलन हरे जल वाली गंगा
बादलों की ओट हो चला गोमुख का चितकबरा शिखर
जा बेटी ,
जा, वहीं अब तेरा घर होना है मरने तक।
चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना
गाद कीच तेल तेजाबी रंग -सभी पी लेना
ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुईं
देखना वे ढोंग के महोत्सव
सरल मन जिन्हें आबाद करते हैं अपने प्यार से
बहती जाना शांत चित्त सहलाते दुलारते
वक्ष पर आ बैठे जल पक्षियों की पांत को”
2 Comments
Anil Verma
(November 11, 2018 - 12:54 pm)बहुत ही सुन्दर लेखन। इस किताब को खरीदने की इच्छा हुई लेकिन इंटरनेट पर कहीं भी नहीं मिली
Pradeep Chauhan
(July 11, 2019 - 2:18 pm)bahut sundar lekhan….Ye kitab kahan se mil sakti hai, online kahin bhi nahi mili…