दार्जिलिंग मेरे बचपन का स्विट्ज़रलैंड है : भाग-1

प्रतीक्षा रम्या कोलकाता में रहती हैं. पत्रकारिता की छात्रा रही हैं. उन्होंने कोलकाता से दार्जिलिंग की अपनी यात्रा की कहानी विस्तार से हमें लिख भेजी है. आज पेश है इस यात्रा वृत्तांत का पहला भाग.

हमारे जीवन में यात्रा का बहुत महत्त्व होता है। अगर आप भी मेरी तरह ये मानते हैं कि यात्रा अपनी आत्मा के साथ टूट चुकी लड़ी को दुबारा जोड़ने का माध्यम होता  है, तो शायद मेरा ये यात्रा संस्मरण आपके दिल तक पहुँच जाए। बदलाव की ज़रूरत हर किसी को महसूस होती है।जीव को भी और निर्जीव को भी। कमरे में एक कोने में रखे फूलदान को जब एक नया कोना मिल जाता है तो ऐसा लगता है मानो फूलदान और उसमे लगा गुलदस्ता दोनों चहक उठते हैं। पहले की तुलना में और खूबसूरत दिखने लगते हैं और उनके इस ख़ूबसूरती में कमरे की आत्मा भी पूरी तरह रंग जाती है। बस इसी तरह अपनी आत्मा में  नए सिरे से जान फूंकने की ज़रूरत हम इंसानों को भी पड़ती है। और इसके लिए यात्रा पर जाने से बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं होता।

मेरे लिए यात्रा का अर्थ प्रकृति के दैवीय रूप की गोद में जाना है। ऐसा शायद इसलिए भी है क्यूंकि मेरी पैदाइश समतल ज़मीन वाले भूभाग की है जहाँ आरामदायक जीवन की सारी सुविधाएँ तो हैं, बस नहीं है तो वो झील,झरने,पहाड़ और वादियां जो प्रकृति के  गर्भ से पैदा होते हैं। सच कहूं तो हम समतल भूभाग वालों के लिए पहाड़ और नदियों से घिरा शहर स्विटज़रलैंड के जैसा ही होता है। कहते हैं न कि जो चीज़ हमारे पास नहीं होती है और जो चीज़ हम अर्जित करते हैं, हमारे जीवन में उसकी बहुत महत्ता  होती है। मेरे लिए पहाड़ों को छू कर आती उन्मुक्त खिलखिलाती हवाओं के एहसास को ज़हन में समेटना अर्जित करने जैसा ही है। बिलकुल पहली नौकरी की पहली कमाई की तरह। जो हवाएं पहाड़ों की ऊंचाई और वादियों के गहरे सन्नाटे को छू कर हम तक आती हैं उनमें कोई गुमान नहीं होता। मुझे नहीं मालूम कि क्यों नहीं होता। मैंने समझने की बहुत कोशिश की। पर फ़िर  यही लगा कि कुछ जवाबों की ख़ूबसूरती उनके अनसुलझे रह जाने में ही होती है।क्यूंकि उन्हें सिर्फ आत्मा की गहराई से महसूस किया जा सकता है। शब्दों में पिरोने से शायद उनका सौंदर्य सिमित हो जाता है।

चार साल हो गए मुझे कोलकाता में रहते हुए और सच में कितना अजीब है न कि चार साल लग गए मुझे कोलकाता के सबसे नज़दीकी हिल स्टेशन दार्जीलिंग जाने में। वो जगह जहाँ घूमने का ख्वाब मैंने बचपन से देखा। जो बचपन से मेरे लिए मेरा स्विट्ज़रलैंड रहा। हर बार प्लान बनाती थी और हर बार वो प्लान किसी कॉपी के पिछले पन्ने तक सिमट कर रह जाता था। पर इस बार संजोग बना और अगस्त के आखिरी हफ्ते में मेरा दार्जीलिंग जाने का प्लान बन गया। जिसने भी सुना उसने मुझे इस वक़्त न जाने की सलाह दी। क्यूंकि इस वक़्त वहां मॉनसून का समय होता है।इस वक़्त दार्जिलिंग में बर्फ़ नहीं दिखाई देते।दिखते हैं तो सिर्फ बादल और बादलों से ढकी पूरी घाटी। सच कहूं तो जब मैंने ये सुना,तब मेरे मन में प्रकृति का यही दैवीय रूप  देखने की इच्छा मज़बूत हो गयी।कहते हैं न कि जीवन के कुछ ख़ूबसूरत पलों को जीने के लिए रिस्क लेना ज़रूरी होता है। बिना रिस्क लिए कहाँ पता चल पाता है कि लिया गया फैसला सही है या ग़लत।

दार्जीलिंग और कोलकाता के बीच की दूरी लगभग 615 किलोमीटर है। ट्रेन और फ्लाइट दोनों माध्यमों से आप कोलकाता से दार्जीलिंग तक का सफर पूरा कर सकते हैं। अगर ट्रेन की बात करूं तो कोलकाता में हावड़ा और सियालदाह स्टेशन से न्यू जलपाईगुड़ी के लिए कई सारी ट्रेनें चलती हैं और ये पूरा सफर लगभग 12 घंटे का होता है। न्यू जलपाईगुड़ी से दार्जीलिंग जाने के लिए आपको फ़िर से गाड़ी बुक करानी होती है। स्टेशन से दार्जीलिंग शहर तक सफ़र लगभग 3 से 4 घण्टे का होता है ।ट्रेन के अलावा आप ये सफ़र बस से भी तय कर सकते हैं। कोलकाता के एस्प्लानेड बस स्टॉप से सिलीगुड़ी तक के लिए सरकारी बसें चलती हैं। सिलीगुड़ी पहुँच कर आपको फ़िर से दार्जीलिंग शहर के लिए दूसरी बस पकड़नी होती है। पर चूंकि यात्राओं के दौरान समय की बहुत अहमियत होती है, इस लिहाज़ से हवाई सफ़र ज़्यादा उपयुक्त होता है। और किराये की चिंता न करें। आप ट्रेन से यात्रा करें, बस से या फ़िर हवाई जहाज़ से, किराये में ज़्यादा का अंतर नहीं होता है।

कोलकाता से बागडोगरा तक का सफ़र लगभग एक घंटे का और फ़िर बागडोगरा से दार्जीलिंग तक का सफर लगभग 3 घंटे का होता है। तो बस समय की बचत करने के लिए हमने भी सुबह 9 बजे की फ्लाइट पकड़ ली और 10 बजे तक बगदोगड़ा पहुँच गए। हम दो लोग थे इसलिए बागडोगरा से दार्जीलिंग जाने के लिए हमने छोटी गाड़ी बुक की जिसका किराया 1500 था और गाड़ी वाले ने 300 अलग से ऐसी के लिए थे, क्यूंकि बगदोगड़ा में अगस्त के समय में बहुत गर्मी होती है। कोलकाता से भी ज़्यादा। बागडोगड़ा से दार्जीलिंग तक का सफ़र शुरू हो चूका था। सड़क के दोनों ओर दूर तक फैले चाय के बागान और गाड़ी में तेज़ वॉल्यूम पर बज रहे कुमार सानू के 90s वाले गाने। मन कर रहा था जैसे ज़िन्दगी बस ऐसे ही खत्म हो जाए। मैंने अपनी ऑंखें बंद कर लीं। दूर दिख रही पहाड़ की चोटियाँ, रास्ते के दोनों तरफ चाय के बागान, आसमान के नीलेपन में एक अजीब सी ताज़गी और गाड़ी में बज रहे 90s के रोमांटिक गाने – मैं इस नज़ारे और इन पलों को अपने ज़हन में हमेशा के लिए क़ैद कर लेना चाहती थी।

लगभग ढेड़ दो घंटे बाद गाड़ी पहाड़ी रास्तों पर चढ़ने लगी और मौसम का मिज़ाज़ ऐसा बदला मानो किसी ने मोबाइल में एक टच से कोई एप्लीकेशन खोल दिया हो। मौसम में आया ठंडापन शरीर और ज़ेहन दोनों पर महसूस होने लगा था। एक अजीब सी  ताज़गी थी उन ठंडी हवाओं में। ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति की गोद में होने की वजह से वो भी अपने पूरे मन से बह रही थीं। एक तरफ़ ऊपर की ओर चढ़ते घुमावदार पतले रास्ते और दूसरी ओर गहरी घाटी। जो दृश्य आँखों के सामने था उसे शब्दों में बांधना आसान नहीं है। उस एहसास को सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। मेरी कल्पना यथार्थ में तब्दील हो चुकी थी। वो कल्पना जिसमें बादल और पहाड़ एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं और हर तरफ़ दिखता है तो बस रुई सा कोमल कोहरे का एक सफ़ेद चादर। मेरे सामने उस वक़्त इसी कोहरे की एक अनंत चादर फैली हुई थी। मुझे उस कोहरे से डर नहीं लग रहा था। उस कोहरे में मुझे प्रकृति का विकराल और डरावना रूप नहीं दिख रहा था। बल्कि उस कोहरे में समा जाने की इच्छा हो रही थी।मन कर रहा था कि उस कोहरे के अंदर से मेरी आखिरी इच्छा पूछती हुई एक धीमी और कोमल सी आवाज़ आये और मैं उससे हमेशा के लिए ख़ुद को अपने अंदर समेट लेने का वरदान मांग लूं।

इन बेहद खूबसूरत पलों को समेटने में मुझे 4 साल का लम्बा समय लग गया। ये चार साल की देरी  मुझे तब चार सौ साल जितनी लम्बी लगी थी जब मैंने अपनी आँखों के सामने से बादलों को गुज़रते हुआ देखा था।कुछ ही पलों के अंदर पूरा रास्ता बादलों से ढक गया। वो मेरे इतने क़रीब थे कि मैं उन्हें अपने हाथों से छू सकती थी।मेरी उँगलियाँ बादलों की गर्माहट को महसूस कर पा रही थीं। मेरी सांसों के रास्ते धीरे धीरे वो मेरे शरीर के अंदर प्रवेश कर रहे थे और मैं अपने शरीर के हर नस  में उनकी उपस्थिति महसूस कर रही थी। सच कहूं तो कुछ वक़्त बाद मैं मैं नहीं रह गयी थी। मेरा पूरा शरीर, मेरी आत्मा सब पहाड़ों को छू कर आते बादलों में तब्दील हो गए थे और मैं गाड़ी की खिड़की खोल कर उनके साथ वादियों की ओर उड़ जाना चाहती थी। सांसारिक मोह और ज़ीम्मेदारियों से पीछा छुड़ा कर हमेशा के लिए विलुप्त हो जाना चाहती थी। मन कर रहा था कि कोई चमत्कार हो और जीते जीते मुझे पञ्चतत्व में विलीन हो जाने का वरदान मिल जाए। पहाड़ों के बिच पहुँच कर कल्पनाओं और यथार्थ के बिच का सारा अंतर समाप्त हो जाता है।जो दुनिया आँखों के सामने होती है वो कल्पना और यथार्थ की दुनिया से परे होती है। एक ऐसी ख़ामोश दुनिया जिसकी ख़ामोशी पर सिर्फ़ प्रकृति का अधिकार होता है। जिसका अस्तित्व ही ख़ामोश रहने में है।जिसकी आवाज़ ही उसकी ख़ामोशी है।

पर कहते हैं न कि प्रकृति अपने खूबसूरत पहलुओं की रक्षा स्वयं करती है। उन्हें इतना आम नहीं बना देती कि इंसान उन पहलुओं की महत्ता ही भूल जाए। कुछ ही पल में धूप निकल आयी। खिलखिलाती सी धूप। लग रहा था जैसे सूरज भी उस जगह को अपने ताप से दूर रखना चाह रहा था। दार्जीलिंग का अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है। अंगेज़ों की वजह से ये भाग भारत का हिस्सा बन पाया । इस स्‍थान की खोज उस समय हुई जब ऐंग्लो -नेपाल युद्ध के दौरान एक ब्रिटिश सैनिक टुक‍ड़ी सिक्किम जाने के लिए छोटा रास्‍ता तलाश रही थी। इस रास्‍ते से सिक्किम तक आसानी से पहुंच के कारण यह स्‍थान ब्रिटिशों के लिए रणनीतिक रूप से काफी महत्‍वपूर्ण था। इसके अलावा यह स्‍थान प्राकृतिक रूप से भी काफी संपन्‍न था। यहां का ठण्‍डा वातावरण तथा बर्फबारी अंग्रेजों के मुफीद थी। इस कारण ब्रिटिश लोग यहां धीरे-धीरे बसने लगे थे। 

प्रारंभ में दार्जिलिंग सिक्किम का भाग था। बाद में भूटान ने इस पर कब्‍जा कर लिया। लेकिन कुछ समय बाद सिक्किम ने इस पर पुन: अपना कब्‍जा कर लिया। परंतु 18 वीं शताब्‍दी में पुन: इसे नेपाल के हाथों गवां दिया। किन्‍तु नेपाल भी इस पर ज्‍यादा समय तक अधिकार नहीं रख पाया था । 1817 ई. में हुए आंग्‍ल-नेपाल में हार के बाद नेपाल को इसे ईस्‍ट इंडिया कंपनी को सौंपना पड़ा। दार्जीलिंग में कई ऐसे स्कूल कॉलेज और चर्च हैं जो अंग्रेजी हुकूमत का इतिहास बयां करते हैं। बादलों के बीच का मेरा सपनों का सफर खत्म हो चुका था और हम होटल पहुँच चुके थे। 

होटल पहुंचते ही हम सीधा कैंटीन की ओर भागे क्यूंकि पेट में चूहों ने उत्पात मचा रखा था। पर जैसे ही मैं खिड़की से सटे टेबल पर बैठी मेरी भूख खत्म हो गयी। सामने प्रकृति का एक और ख़ूबसूरत नज़ारा मेरा इंतज़ार कर रहा था। लगभग 4 से 5 घण्टे पहले मैं कोलकाता के उमस भरे मौसम में पसीने से तर बतर हो रही थी और अब मेरे चेहरे को जो हवाएं छू कर गुज़र रही थीं उन्हें हम आम भाषा में शीतलहर कहते हैं। समतल ज़मीं से कई सौ फुट ऊपर बसे एक शहर के होटल में मैं खिड़की से लगे टेबल पर बैठी थी और आँखों के सामने दूर तक फैली हुई थी सिर्फ़ बादलों की सफ़ेद चादर, जिसने पहाड़ों और घाटी को अपने आगोश में भर रखा था। 

और फ़िर धीरे धीरे बादलों की चादर सिमटने लगी। सफ़ेद चादर की ओट से सूरज की किरणों ने झांकना शुरू कर दिया था और जो आँखों के सामने था उसे बस ख्वाब ही कहा जा सकता है। मैं खुली आँखों से एक अविस्मरणीय ख़्वाब देख रही थी- पहाड़ों की रानी का अप्रितम सौंदर्य मेरी आँखों के सामने था। मेरे बचपन का स्विट्ज़रलैंड मेरी आँखों के सामने बादलों की ओट से ऐसे निकल कर आया था मानो जैसे किसी निर्विकार पराशक्ति ने ख़ूबसूरत मूर्त रूप ले लिया हो।

पहले दिन यात्रा की थकावट थी तो हमने बस मॉल रोड घूमने का प्लान बनाया। मॉल रोड हमारे होटल से पास में ही था। हमारा होटल बहुत ख़ूबसूरत था। खासतौर पर लॉन वाला हिस्सा। बस लग रहा था कोलकाता छोड़ कर हमेशा के लिए यहीं बस जाऊं। वो जगह बिलकुल ख्वाबों के आशियाने की तरह थी। रोज़ सुबह ऑंखें खोलते चाय के साथ अगर पहाड़ों और बादलों का साथ मिले तो भला कौन उस ज़िन्दगी में वापस लौटना चहेगा जहाँ फ्लाईओवर पर दौड़ती भागती गाड़ियों और बसों के हॉर्न की आवाज़ से आँखें खुलती हों।

 ख़ैर वापस तो जाना ही पड़ता है।पर मैं उस वक़्त लौटने का सोच कर दुखी नहीं थी। क्यूंकि मैं जानती थी कि उन तीन दिनों में मैं अपने ज़हन में इतनी यादें और इतने एहसास ज़रूर बसा लुंगी जो मुझे अगली यात्रा तक़ ज़िंदा रखने के लिए काफ़ी होंगे। थकावट थी इसलिए थोड़ी देर के लिए आँख लग गयी। और लगभग दो घंटे बाद जब नींद टूटी तो प्रकृति एक बार फ़िर से मुझे विस्मय की स्थिति में डालने के लिए एक नए रूप के साथ तैयार बैठी थी।पहाड़ सोने जा रहे थे। काले बादल चादर बन कर उन्हें अपने अंदर समेटने आ चुके थे।

अगस्त के महीने में मॉनसून का समय होने की वजह से पर्यटकों की ज़्यादा भीड़ नहीं होती। मुझे मॉल रोड की गलियों में घूमते हुए ऐसा लग रहा था जैसे मैं वहीं की रहने वाली हूं। मैं महसूस भी ऐसा ही करना चाहती थी।उन तीन दिनों के लिए होटल ही मेरा घर था। पहले दिन ठंड ज़्यादा नहीं थी। बस एक वार्मर की ठण्ड थी। अगर आप मनाली या शिमला गए हैं तो इन दोनों जगहों के मॉल रोड की तुलना में दार्जीलिंग का मॉल रोड छोटा है। पर है बिल्कुल घर के बीचों बिच छोटे से खुले आँगन की तरह प्यारा और सलोना। यहाँ की यादें तब और भी ज़्यादा ख़ास हो गयी जब गोलगप्पे वाले भइया और निम्बू की चाय पिलाने वाले काका दोनों ही बिहार से निकले। मुझे उस वक़्त बिल्कुल परदेश में अपने देश वाली फीलिंग आयी थी क्यूंकि उस वक़्त मैं तो अपने स्विट्ज़रलैंड में थी न।

शाम के करीब 7 बज रहे थे। मॉल रोड के एक कोने में ठंडी हवाओं के बिच निम्बू की चाय (लाल चाय) पीते हुए सामने दूर पहाड़ों पर बसे घरों में जल रहे बत्तियों को देखने का अपना एक अलग ही अनुभव था। ऐसा लग रहा था जैसे मै खुली आँखों से सौरमंडल में बिखरे चाँद तारों को देख रही हूँ।काले बादलों के बिच तारों की तरह टिमटिमाते पहाड़ बेहद ख़ूबसूरत दिख रहे थे।वो सोते हुए भी इस कदर जीवन से भरे हुए दिख रहे थे मानो जैसे किसी मुर्दे में भी जान फूंक दें।

अब डिनर करने का समय हो चला था। हमारे एक जानने वाले ने बताया था कि वहां एक फेमस रेस्टोरेंट है – ग्लेनरीज़। तो बस हम ढूंढते टहलते वहां पहुंच गए।

उफ्फ क्या नज़ारा था अंदर का। मेरे व्यक्तित्व के बिलकुल विपरीत पर उस दिन मुझे सब कुछ अच्छा लग रहा था। मुझे भीड़भाड़ वाली जगह बिल्कुल नहीं पसंद और वो पूरा रेस्टोरेंट लोगों से खचाखच भरा हुआ था। चाइनीज़ खाने की सुगंध ने मेरी भूख और भी ज़्यादा बढ़ा दिया था। वहां अंदर भीड़ बहुत थी तो हमने बाहर छत पर बैठने का फैसला किया। जब लगभग 5 से 6 कदम चल कर बाहर छत पर आयी तो ऐसा लगा जैसे मैं दार्जीलिंग में नहीं ग्रीस में हूं।

रात के समय जब ये बत्तियां जल उठती  हैं इस छोटे से छत की ख़ूबसूरती में चार चाँद लग जाते हैं ।इस हिस्से के किसी एक कोने में बैठकर आप सोते हुए पहाड़ों को देखते हुए अपना पसंदीद खाने का लुफ़्त उठा सकते हैं। खुली छत,ठंडी हवाएं, दूर गहरी नींद में सोते हुए पहाड़ और अंग्रेजी गाना गाती हुई एक लड़की की ख़ूबसूरत आवाज़- बची हुई ज़िन्दगी के हर दिन का डिनर ऐसा हो तो फ़िर किस कम्बख्त को ज़िन्दगी से शिकायत होगी । उन तीन दिनों में मैंने ज़िन्दगी के पोस्ट बॉक्स में डाले अपनी सारी शिकायतों को वापस ले लिया था। क्यूंकि ये मौका देकर ज़िन्दगी ने उन शिकायतों की भी भरपाई कर दी थी जो मैंने अभी तक उससे की ही नहीं थी।

वैसे तो मॉल रोड में सारे ही रेस्टुरेंट अच्छे हैं पर हाँ अगर आप बीफ़ और पोर्क खाने के शौखीन हैं तो यहाँ जाना न भूलें। ये अलग बात है कि इस जगह की ख़ूबसूरती की वजह से पोर्क और बीफ़ देखने के बाद भी मेरा मन अजीब नहीं हुआ था। अगर आप भी मेरी तरह बीफ़ और पोर्क के शौखिन नहीं हैं तो यकीन मानिये इस जगह की ख़बसूरती में आप ऐसे बंधेंगे कि आपका मन किसी भी चीज़ के लिए ख़राब हो ही नहीं सकता।

जारी…

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