(यह लेख गाँव कनेक्शन के 44वें अंक में प्रकाशित हो चुका है.)
अयोध्या के बारे में अब तक अर्जित मेरी सारी जानकारियों के स्रोत किताबी रहे हैं। स्कूल के पाठ्यक्रम में मौजूद रामायण और रामचरित मानस की किताबों से शुरु हुआ ये सफर अखबारों और समाचार चैनलों से मिली जानकारियों से ज़रिये जारी रहा। रामलीलाओं में भी अक्सर अयोध्या का जि़क्र होता रहा। अलग-अलग शहरों की अलग-अलग रामलीलाओं में न जाने कितनी तरह की अयोध्या देख ली थी अब तक पर अयोध्या जाने का मौका अब तक नहीं मिला था। इस लिहाज से ये जानने का एक उत्साह था कि वो किताबी, वो खयाली अयोध्या असल में कैसी दिखती होगी।
अपनी खबरनवीसी जिज्ञासाओं को लेकर अयोध्या की संकरी सड़क पर रुका तो एक उदास खालीपन राम की जन्मभूमि के आस पास बिखरा मिला। चाय की गुमटियों पर बैठे वो बूढ़े, वयस्क और जवान चेहरे रामराज्य की कल्पना से कहीं भी मेल नहीं खा रहे थे। बीस साल का एक लड़का (लाभ शंकर तिवारी) अपनी अयोध्या से खफा था कि उसकी पढ़ाई के लिये कोई अच्छा विश्वविद्यालय उसकी अयोध्या में नहीं था। 30-32 साल का एक बेरोजगार युवक कह रहा था कि काश कोई फैक्ट्री खुल जाती यहां तो उसके जैसे फिजूल घूम-टहल रहे लागों को कोई रोजगार मिल जाता। 30 साल का वो हार्डवेयर की दुकान चलाने वाला व्यापारी (राकेश मोदलवाल) हर दूसरे दिन होने वाले धरनों, सभाओं, जुलूसों की वजह से बंद कर दी जाने वाली अयोध्या से उसके व्यापार में होने वाले नुकसान से नाराज़ था। 70 साल का वो बूढ़ा रिक्शा चलाने वाला आदमी (कासिम) पिछले एक साल से मोटर से चलने वाले रिक्शे का इन्तजार कर रहा था जिसका वादा सरकार ने उससे किया था। एक ऐसा पुस्पक विमान जो उसकी बूढ़ी सासों को कुछ साल और जिन्दा रखने की वजह दे सके। इन असुरक्षाओं, तल्खियों और हताशाओं को पीछे छोड़कर हम उस राम मन्दिर को देखने निकल पड़े जिसने सदियों से न जाने कितनी आस्थाओं को पनाह दी। उस राम मन्दिर को जिस पर चल रहे विवाद ने न जाने कितनी खबरों को ब्रेकिंग न्यूज़ बनने का मौका दिया। कितने नेताओं को अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का अवसर भी।
हमारी गाड़ी में हमारी एक महिला साथी और दो मुसलमान साथियों के साथ हम दो और लोग थे। संकरी गलियों से गुजरती हुई ट्रेफिक में रुकी हमारी गाड़ी के शीशे पर तकरीबन 22-23 साल के उस लड़के ने दस्तक दी। शीशा नीचे किया तो उसने बताया कि वो गाइड है और राम की इस नगरी के चप्पे-चप्पे को जानता है। हमारे पास वक्त कम था ऐसे में खुद शहर को जानने समझने से बेहतर था उस शहर के रवासी की नज़रों से उस शहर को कम वक्त में देख लिया जाये। 50 रुपये में वक्त बचाने के इस आईडिया को हम सबने स्वीकार करना ही था।
22-23 साल का वो लड़का राम और राम के उस शहर के बारे में अपनी समझ के दायरे को जैसे उन चंद पंक्तियों में समेट लाया हो जिन्हें उसने राम मंदिर तक पहुंचने के उस 45 मिनट के वक्फे में न जाने कितनी बार दोहराया था। बच्चा बच्चा राम का वरना नहीं किसी के काम का, राम लला हम आयेंगे, मंदिर यहीं बनाएंगे। इस बात से अंजान कि उस गाड़ी में धार्मिक लोगों के साथ न केवल नास्तिक बल्कि दूसरे धर्म के भी कुछ लोग बैठे हैं, वो बड़े गर्व से बता रहा था कि राम मंदिर के 5 किलोमीटर के इस अहाते में हम किसी मुसलमान को फटकने भी नहीं देते। वो ऐसा क्यों करते हैं इसका जवाब उसके पास नहीं था। इससे क्या मिलता है उसका जवाब भी नहीं। इससे पहले सुना था कि धर्म और तर्क दोनों एक साथ नहीं रह पाते।
मंदिर के अहाते में हमारी गाड़ी रुकी और हम लोग चप्पल उतारकर राम के मंदिर में मौजूद उन मूर्तियों के पास जा पहुंचे जिनके बारे में हमें बताया जा रहा था कि ये राम, लक्षमण, सीता और हनुमान हैं। हमारे साथ मौजूद महिला साथी सबसे आगे बैठी थी। मूर्तियों के ठीक सामने विराजे पंडित जी ने वही पंक्तियां दोहराई जो उस 22-23 साल के बच्चे ने हमें कई दफा पहले ही सुना दी थी। बच्चा बच्चा राम का वरना नहीं किसी के काम का।
मंदिर का एक संक्षिप्त परिचय देने के बाद उन्होंने हमारे साथ बैठी उस एकमात्र महिला साथी के सामने दो विकल्प रखे। पत्थर लगवाएंगी या भोग करवाएंगी। पत्थर लगाने के 2100 रुपये और भोग लगवाने के 1100 रुपये। संकपकाई सी हमारी साथी ने पहले हमारी ओर देखा फिर पंडित जी की ओर देखकर कहा- हम तो बस दर्शन करने आये हैं। पंडित जी के चेहरे की सारी श्रद्धा जैसे ये सुनकर पत्थर हो गई हो। गुस्साये चेहरे से उन्हें देखकर उन्होंने कहा- यहां तो एक भिखारी भी आता है तो दक्षिणा देके जाता है। आप इतनी दूर से आई हैं, आपको कुछ न कुछ जरुर देना चाहिये। इस वाक्य में आग्रह कम था आदेश ज्यादा। नहीं हमें बस दर्शन करने थे। अपमान से आहत होने के बावजूद दृढ़ भाव से इतना कहकर हमारी साथी उठ खड़ी हुई। मंदिर की परिक्रमा की और उस अहाते से बाहर चली आई।
पंडित जी हम सभी को ऐसे घूर रहे थे जैसे वो दूकानदार हों और हम वो ग्राहक जो दुकान में सामाग्रियां देख लेने के बाद बिना कुछ खरीदे ही लौट जाता है और हम अयोध्या के उस मंदिर को ऐसे देख रहे थे जैसे हम मंदिर से नहीं किसी बाज़ार से लौट रहे हों।
जैसे-जैसे हमारी गाड़ी उस मंदिर को पीछे छोड़ रही थी वैसे-वैसे उस राम के लिये बुरा लग रहा था जिनकी मिसाल हम बचपन से सुनते आये हैं, उन लोगों के लिये भी जिन्होंने राम के नाम के उस मर्म को इतना सतही बना दिया और उस शहर के लिये भी जिसे राम की जन्मभूमि होने का गौरव तो हासिल है लेकिन उस गौरव की कोई झलक आज वहां कहीं नहीं दिखती।
2 Comments
Rizwan khan
(October 4, 2013 - 12:23 pm)umda vichar…..
Anubhav Sharan
(May 6, 2024 - 6:42 pm)aap bahut achcha likhte hain. 11 saal mein kuch parivartan aaya ya nahi, yeh pata karna chahta hun. ek baar darshan aur kar aate umesh bhaiya.