हां, तो मैं तीन देशों की यात्रा पर थी; मेरी पहली विदेशी यात्रा। यूं तो कभी कोई दूसरा देश घूमने का सपना जैसा कुछ नहीं पाल रखा था लेकिन कुछ साल पहले गूगल सर्च के दौरान प्राग शहर की तस्वीरों पर नज़र गई और मुझे पहली नज़र का प्यार हो गया। क्या शहर था, एकदम ख्वाब जैसा। तस्वीरों में रंग-बिरंगी इमारतें देखकर पहली बार यह अहसास हुआ कि जीवन में रंग बहुत ज़रूरी हैं, इमारतों के लिए भी। बस तभी एक इस शहर को देखने की ख्वाहिश मन में चुपके से छिपा ली और छिपाकर भूल गई। कभी किसी को नहीं बताया कि प्राग जाना चाहती हूं।
इधर कुछ महीनों से इस पर कुछ-कुछ गंभीरता से सोचना शुरू किया कि पहली फ़ॉरेन ट्रिप प्लान की जाए, तब नज़र फिर जाकर ठहर गई प्राग पर और इस यात्रा का आखिरी पड़ाव इस शहर को बना लिया। सोचा तो बाद में जाने का था लेकिन एक बार फिर इस बात का सबूत मिल गया कि हम कुछ प्लान नहीं करते, प्लान तो कोई और ही करता है हमारे लिए जो पता नहीं कहां बैठा पूरी दुनिया नचा रहा है। कुछ ऐसा हुआ कि प्लान पोस्टपोन होने की जगह प्रीपोन हो गया और मैं 29 अगस्त की सुबह 5 बजे अपनी पहली इंटरनैशनल फ़्लाइट में बैठी थी। हमारे देश से साढ़े तीन घंटे पीछे चलने वाली पोलैंड की घड़ी की बदौलत 10 घंटे का सफ़र करने के बाद 29 अगस्त की ही सुबह पौने बारह बजे मैं पोलैंड में लैंड कर चुकी थी।
वहां मेरा इंतज़ार कर रही थीं इस प्लान की कर्ता-धर्ता सरोज मैम। एयरपोर्ट से अंदर ही अंदर घूमते हुए ट्रेन स्टेशन पहुंचे और वहां से पकड़ी लोकल ट्रेन बोले तो मेट्रो। मेट्रो से उतरकर और सबवे से निकलकर जब पोलैंड की राजधानी वारसॉ (या वहां के लोगों के मुताबिक ‘वरसावा’) के खुले आसमान में पहली बार खुद को खड़ा पाया तो एक तरफ़ दुनिया के सबसे ऊंचे टावरों में से एक वहां का क्लॉक टावर दिखा और दूसरी तरफ़ नीले आसमान को चीरती उसी के रंग में रंगी ग्लास की नई-नवेली इमारत दिखाई दी। नए और पुराने का इतना खूबसूरत मेल देखकर और बस स्टॉप की तलाश में आधे घंटे इधर-उधर घूम-फ़िरकर वापस उसी जगह पर आए तो पता चला कि हॉस्टल तक के लिए जो बस हमें पकड़नी है उसका स्टॉप तो हमारे पीछे ही था।
बस पकड़कर हम पहुंचे पुराने शहर जो बिल्कुल नया बसाया गया था क्योंकि असली वाला पुराना शहर तो हिटलर की सेना ने करीब पूरा का पूरा ज़मींदोज़ कर दिया था। यह उस शहर की जिजीविषा और इतिहास से प्यार ही था कि उसने अपने पुराने शहर को फिर से बसा लिया और सीने से लगा लिया। शहर के इस हिस्से में जीवन अपने पूरे रंग में खेल रहा था। यहां हवा में उड़ते बुलबुले थे और हवा में ही उछलते बच्चे भी। पास में कोई गिटार बजा रहा था तो दूसरी तरफ़ लोग, फूलों की बेलों से सजे ओपन एयर रेस्टोरेंट्स में बैठकर खूबसूरत शाम बस यूं ही गुज़रने दे रहे थे। ऐसा लग रहा था कि सबको फुर्सत ही फुर्सत है, कि जैसे सब कोई ख्वाब जी रहे हैं।
उसी हिस्से की एक बेहद खूबसूरत सड़क पर था हमारा हॉस्टल जो खुद भी किसी ख्वाब जैसा ही प्यारा था: ड्रीम्ज़ हॉस्टल। वहां से नहा-धोकर हम फिर बाहर आ गए। बड़े जोर की भूख भी लग चुकी थी तो पास ही एक रेस्टोरेंट से कॉफी, बर्गर और फ्रेंच फ्राइज खरीदीं तब पता चला कि यहां के लोग नमक के शौकीन नहीं हैं और न ही दूध-चीनी के। कॉफी के लिए तो हम पहले ही दूध की फ़रमाइश कर चुके थे। फ्राइज के पैकेट में भी अच्छा-खासा नमक उड़ेलने के बाद हमारी आत्मा को कुछ संतुष्टि मिली। इसके बाद वहीं पास की एक इमारत की छत पर पहुंचे और वहां से पुराने शहर का नज़ारा लेना शुरू किया तो नज़र गई वहां की विस्तुला नदी पर, जिसे विस्चुला भी कहा जाता है लेकिन वहां के लोग उसे कहते हैं विस्वा। बेहद शांत नदी थी जिसमें एक-दो बोट क्रूज नज़र आ रहे थे।
यहां से नीचे उतरकर हम आगे बढ़े और पैदल-पैदल वह पूरा इलाका छान मारा। वरसावा की मरमेड, वहां के चर्च और दूसरी इमारतों के सामने से गुज़रते हुए मेरी नज़र बार-बार वहां की सड़कों पर ठहर जाती थी जो छोटे-छोटे पत्थरों से बनी थीं और पुराने शहर की पहचान होने का सबूत दे रही थीं। पुरानी इमारतों के बैकग्राउंड के साथ वहां कुछ दूल्हा-दुल्हन भी फोटोशूट करा रहे थे। बड़ी खूबसूरत दुल्हनें थी सारी।
शाम होते-होते जब लैंपपोस्ट्स की लाइटें जल उठीं तो वह शहर और भी खूबसूरत हो गया। एक इमारत के कोठरीनुमा हिस्से की छत में एक जालीनुमा लैंप में लगा बल्ब जब जला तो एकदम पिंजरे जैसा नजारा सामने खड़ा हो गया। जैसे अलिफ़-लैला की किसी कहानी का जादुई पिंजरा हो। चलते-चलते हम पहुंच गए वरसावा के अपराइज़िंग मॉन्यूमेंट के सामने जहां की विशाल कलाकृतियां नाजियों से लड़ाई की कहानी कह रही थीं। वहां पहुंचने तक अंधेरा काफी हो चुका था और नया शहर था तो हम बस थोड़ा सा वक्त वहां बिताकर वापस हो लिए।
अगले दिन बस से शहर का काफी हिस्सा घूमने के बाद हम निकल पड़े विस्वा के दूसरी तरफ बसे प्रागा (या प्रगा) की तरफ़। वहां का स्टेडियम, जू और चर्च देखने के बाद हम पैदल ही विस्वा के पुल से वापस गुज़रे। उस पुल पर भी कुछ लोगों ने छिटपुट लव लॉक्स लगा रखे थे। दूर से जितनी शांत लग रही थी, पास से भी विस्वा उतनी ही शांत नज़र आई। पानी का बहाव तेज़ था लेकिन उसकी गहराई के कारण उसकी आवाज़ हमारे कानों तक नहीं पहुंच रही थी।
सूरज ढलने के पहले के कुछ घंटे हमने फिर ओल्ड टाउन में बिताए और वापस उसी अपराइजिंग मॉन्यूमेंट गए जहां पिछली रात ज्यादा वक्त नहीं बिता पाए थे। दिन की रोशनी में उसे देखना बिलकुल अलग अनुभव था। वहां से वापस होते वक्त एक और बात ने मेरा ध्यान खींचा। कंस्ट्रक्शन वहां भी चल रहा था और हवा भी चल रही थी लेकिन फिर भी कंस्ट्रक्शन की धूल हवा में नहीं घुल रही थी। विदेश की धूल भी बड़ी सफ़ाई पसंद है शायद, गंदगी फैलाने में यकीन नहीं रखती।
अब बारी थी वरसावा से हंगरी की ट्रेन पकड़ने की क्योंकि हमारा अगला पड़ाव था बुडापेस्ट। ट्रेन साढ़े आठ बजे की थी और शाम को सात बजे मैं हॉस्टल में मुंह धो रही थी कि तभी सरोज मैम ने आकर बताया कि ट्रेन तो 7 बजकर 12 मिनट की है। हमें लगा कि अब तो ये ट्रेन गई। सामान उठाकर बाहर भागे कि तभी सामने एक टैक्सी दिख गई और ऊपर से खुशकिस्मती ये कि टैक्सीवाले को अंग्रेजी भी आती थी। हमने पूछा कितनी देर में पहुंचा दोगे, उसने कहा 10 मिनट। उसने पूछा कि आपके पास कितना वक्त है, हमने कहा- पांच मिनट से ज्यादा नहीं। तब उसने कहा कि आपको मैं चार मिनट में पहुंचा दूंगा। उसने अपना वादा निभाया और हम सात बजकर 8 मिनट पर स्टेशन के बाहर थे। दौड़ते हुए अंदर पहुंचे तो देखा कि ट्रेन प्लैटफॉर्म पर खड़ी थी। हमारा डिब्बा आखिरी है, बताते हुए टीटी ने सामने वाले डिब्बे में ही चढ़ जाने को कहा। हम उस ट्रेन में चढ़ने वाली आखिरी सवारी थे और हमारे चढ़ते ही ट्रेन के दरवाज़े हो गए बंद और इस तरह सरोज मैम को ट्रेन छूटने के मामले में मुझे पनौती ठहराने का मौका नहीं मिल पाया।
हम ट्रेन न छूटने का शुक्र मनाते हुए हँस-हँसकर लोटपोट हुए जा रहे थे और हमारा अगला सफ़र शुरू हो चुका था। अभी के लिए इतना ही। अगले पड़ाव के बारे में बात अगली पोस्ट में….