कुल्लू मनाली सोलांग वैली यात्रा

सोलांग वैली (Solang valley) के बर्फ़ीले रास्तों की खतरनाक यात्रा


कुल्लू से मनाली होकर सोलांग वैली की यात्रा (Kullu-Manali to Solang valley trek)

 

रात कुल्लू में बिताकर हम सुबह-सुबह मनाली की तरफ बढ़ने लगे. ये ट्रिप इसलिए ख़ास था क्यूंकि पहली बार हम चारों भाई एक साथ ऐसे किसी ट्रेक पे जा रहे थे.  ब्यास नदी के किनारे गुजरती उस पहाड़ी सड़क पर चलते हुए कुछ ही देर में बर्फ से ढंके पहाड़ दिखाई देने लगे थे.

हमें उन्हीं पहाड़ों को छूने जाना था. बर्फ़ और पहाड़ इन दोनों से मिलने की बेताबी लगातार बढ़ती जा रही थी. गाड़ी के स्टीरियो पर मनाली ट्रांस और वुमनिया सरीखे गानों ने माहौल को कुछ और उत्साह से भर दिया था.

कुल्लू से मनाली की दूरी करीब 40 किलोमीटर की है. हमें मनाली से आगे सोलांग घाटी (Solang valley) तक जाना था. सोलांग घाटी के बेस कैंप पर पहुचने पर पता चला कि अब घाटी से ट्रॉली जाने लगी है जो दस मिनट में आपको बर्फ से ढंके पहाड़ों पर छोड़ आती है.

लेकिन हमारा मन था कि हम ट्रेक करें. एक दोस्त ने बताया था कि पिछली बार वो ट्रेक करके ही सोलांग तक गए थे और ये करीब पांच किलोमीटर का ट्रेक है.

 


सोलांग वैली का खतरनाक ट्रैक (Solang Valley trek)

 

हमने फैसला किया कि हम ट्रेकिंग करेंगे. घाटी में सूखी घास का एक विस्तार ऊपर की तरफ बढ़ रहा था और हम उस विस्तार की सहजता से आश्वस्त होकर उसपर चढ़ने लगे. कुछ ऊपर एक अधेड़ औरत, एक बीस-बाईस साल की लड़की और करीब उसी उम्र का लड़का दिखाई दिया.

वो जहां बैठे थे उसके ठीक ऊपर पहाड़ पर बिछी बर्फ की चादर दिखाई दे रही थी. बर्फ देखते ही हमारा उत्साह दो गुना हो गया.

दिल्ली में रहकर चलने की उतनी आदत रह नहीं जाती इसलिए सांसें अब फूलने लगी थी. अपने ठीक ऊपर करीब पिचासी डिग्री के एंगल पर हमें बर्फ से ढकी एक चोटी दिखाई दे रही थी जिसके ऊपर की दुनिया कैसी है ये हममें में से किसी को नहीं पता था. हम सबने एक-एक लकड़ी अपने हाथों में थाम ली थी ताकि बर्फ पर चलने में मदद मिल सके.

जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ रहे थे अब तक सहज लग रहे वो पहाड़ अब कुछ मुश्किल लगने लगे थे. उनपर चढ़ते हुए पैर फिसल रहे थे. “क्या ये सही ट्रेक है ?” हममें से किसी एक ने कहा. शक की वजह साफ़ थी कि अब तक कोई भी हमें इस ट्रेक पर चढ़ता हुआ नहीं दिख रहा था.

कुछ तो गड़बड़ थी लेकिन कुछ और ऊपर बढ़ने पर शायद कोई दिखाई दे जाए, इसी सोच को लेकर हम ऊपर चढ़ते रहे.

फिसलन अब बढ़ने लगी थी. रास्ता कहीं नहीं था. बर्फ से ढंके पहाड़ पर बीच बीच में जो बे-बर्फ जगह थी वहां गीली मिट्टी थी जिसपर और ज़्यादा फिसलन थी. हममें से कोई इस तरह से ट्रेक करने को तैयार होकर नहीं आया था. न मानसिक रूप से, ना ही इक्विपमेंट्स के लिहाज से.

 


जब अहसास हुआ कि हम बर्फ़ के बीच फ़ंस गए हैं (When we got Stuck in route Solang valley)

 

कुछ देर बाद हम एक ऐसी जगह पर खड़े थे जहां से पीछे देखने पर हमें महसूस हुआ कि अब हम न पीछे जा सकते हैं और हमारे ऊपर एक खड़ा पहाड़ है जिसपर करीब दो से ढाई किलोमीटर चढ़ना था.

इस दो किलोमीटर की चढ़ाई पर फ़ैली बर्फ के बीच कुछ झाडियां और कुछ पेड़ तय करने वाले थे कि हमारा रास्ता क्या होगा. दूर कहीं आकाश में ट्रॉली का ट्रेक दिखाई दे रहा था.

साफ़ था जहां हम ट्रेक कर रहे थे वो रास्ता दरअसल खुला ही नहीं था और हम अनजाने ही किसी संभावित मुसीबत की तरफ बढ़ चुके थे. पर चाहे कुछ भी हो अब आगे ही बढ़ना था क्यूंकि बर्फ पर ढलान में उतरना खुद को पहाड़ों के भरोसे छोड़ देना ही था. और बर्फ से पटे इन पहाड़ों पर भरोसा करना अपनी जान जोखिम में डालने से कम नहीं था.

अब एक ही रास्ता था हम सबको खुद पर भरोसा करके आगे बढ़ना था और एक दूसरे के टूटते हौसले को बचाए रखना था. एक ज़रा सी गलती और हम इस तीखे ढलान में फिसलकर न जाने कहां पहुचते.

धीरे-धीरे पहाड़ हमें अपने हिसाब से ढाल रहा था. अब दो पैरों से चलकर काम नहीं चलने वाला था. हमें बर्फ की परतों के बीच मिट्टी में पहले अपने पैरों को रखने की जगह बनानी थी और फिर दोनों हाथों को मिट्टी में गढ़ाकर ऊपर चढ़ना था. अपने पूरे शरीर का बोझ ऊपर की तरफ बढाते हुए जूतों की ग्रिप ज़मीन पर बनाए रखना ज़रूरी था.

सबसे आगे चढ़ रहे बड़े भाई जहां तक चढ़ जाते एक हौसला सा मिलता कि वहां तक चढ़ा जा सकता है. लेकिन एक बिंदु ऐसा आया जहां चढ़ते हुए वो ऐसे फिसले की करीब सौ मीटर तक नीचे चले आये. उनके ठीक नीचे हम सब थे.

वो अगर ना संभल पाते तो हम सब उनके साथ लुढकते हुई न जाने कहां पहुंचते. लेकिन उन्होंने अपने पूरे शरीर को ज़मीन पर बिछा दिया. जिससे हुआ ये कि उनके शरीर का भार बराबर बंट गया और वो और नीचे फिसलने से बच गए.

ये सब देखते हुए डर से पैर कांपने लगे थे. पानी की बोतलें रास्ते में ही भार कम करने के लिए फेंक दी गई थी. शायद वो डर ही था जिस वजह से मुंह बीच-बीच में एकदम सूख जाता. अपने बगल में बिछी बर्फ के गोले बनाकर डीहाईड्रेशन से बचने के सिवाय और विकल्प ही क्या था.

बीच-बीच में कोई झाड़ी आती तो कुछ देर उस पर टिक कर बैठ जाने पर एक राहत मिलती और ऊपर चढ़ने का हौसला जुटाने का थोड़ा सा वक्त भी. करीब साढ़े तीन बजने को आया था. ऊपर पहुचने में ज़्यादा देर करने का मतलब था वापसी का रास्ता और मुश्किल हो जाना.

हम सब पहली बार एक ऐसे पहाड़ पर ट्रेक कर रहे थे जो बर्फ से पूरी तरह ढंका था, जिसमें कोई रास्ता नहीं था और चढ़ाई करीब नब्बे डिग्री के करीब थी. मतलब ये कि हम बिना किसी संसाधन और अनुभव के एक ऐसी चढ़ाई चढ़ रहे थे जहां चढना समझदारी नहीं थी लेकिन जहां न चढ़ना अब कोई विकल्प नहीं था.

इससे पहले मैं आदि कैलाश और ॐ पर्वत का ट्रेक कर चुका था. उसकी ऊंचाई तो खैर यहां से बहुत ज़्यादा थी (करीब सत्रह हज़ार फीट), लेकिन वहां ट्रेक बने हुए थे.

हालाकि अपने दोस्त रोहित के साथ की उस यात्रा के अनुभव भी आखिर तक जानलेवा ही साबित हुए थे. उसपर तो खैर एक सौ साठ से ज़्यादा पन्नों का पूरा वृत्तांत प्रकाशकों के इंतज़ार में है ही.

खैर किसी तरह डर के बीच हौसला जुटाते, घुटनों तक की बर्फ में कदम बढाते, कहीं मीटरों फिसलकर खुद को पहाड़ के हवाले हो जाने से बचाते तो कहीं पेड़ों और झाड़ियों की शरण लेते हार मां जाने से कतराते, आखिरकार हमें वो ऊंचाई दिखाई दे गई जहां पर ट्रोली का आखिरी पॉइंट था. माने हम अब करीब पहुच ही चुके थे.

 


सोलांग वैली में जब लोग दिखे जो जान में जान आई (Finally reached Solang valley) 

 

जब बर्फ से पटी सोलांग घाटी (Solang valley) की उस वादी में रंग बिखेरते सैकड़ों लोग दिखाई दिए तो आखिर जान में जान आई. ऊपर पहुचकर एक स्थानीय शख्स को बताया कि हम नीचे से ट्रे करके आ रहे हैं तो उसे भरोसा नहीं हुआ- “क्या बात कर रहे हो, उश राश्ते से तो हम नहीं आते.

ट्रेकिंग का ये शीजन ही नहीं है. अगर आये तो गलत आये आप. बिना तैयारी के ऐसे नहीं आना चाहिए. घूमने आये हो ज़िंदगी को खतरे में डालने थोड़ी आये हो”

दस हज़ार फीट की ऊंचाई तक घुटनों तक बर्फ में धंसे जब हमने नीचे देखा तो लगा उस शख्स की सारी बातें एकदम सही थी. एक ज़बरदस्त तीखा ढलान था ये जहां पर एक भी गलती की गुंजाइश नहीं थी. इस ऊंचाई से नीचे देखते हुए लग रहा था कि सच में क्या हम यहीं से ऊपर चढ़े हैं ? क्या सचमुच हम ऐसा कर सकते हैं ?

लेकिन वो ढाई घंटे जब हम उस बे-रास्ता पहाड़ पर जूझ रहे थे उन अनुभवों में शुमार हो गए थे जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता. हमारा इंसानी शरीर मानसिक सीमाओं में जीता है. वो सीमाएं जो हमें ये बताती हैं कि हम क्या कर सकते हैं क्या नहीं.

अगर वो पहाड़ जिसपे हम चढ़ रहे थे उसकी दुरुहता को हम पहले ही जान पाते तो शायद हम उस पर कभी चढ़ते ही नहीं, ये सोचकर कि हम चढ़ ही नहीं सकते. पर अभी इस वक्त हम वो तमाम सीमाएं तोड़ चुके थे.

जब कोई विकल्प नहीं होता तब हम उन क्षेत्रों में प्रवेश करते हैं जिन्हें हमारा शरीर मानसिक रूप से वर्जित क्षेत्र घोषित कर चुका होता है. और अपने ही शरीर की तय की हुई इन वर्जनाओं को तोड़ने के अनुभव से ज़्यादा लिबरेटिंग कुछ नहीं होता.

डर पर जीत हासिल कर लेने के बाद की दुनिया, डर-डर कर सीमाओं में जीने की दुनिया से कितनी अलग और रोमांचक है ये यात्रा बस एक झलक थी इस बात की. उस पहाड़ की तलहटी से ऊपर चढ़ते हुए हम जो थे, उस पहाड़ पर चढ़कर उस तलहटी को देखते हुए हम उससे अलग हो गए थे.

थोड़े से और निडर और आत्मविश्वास से भरे हुए.

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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