उत्तराखंड की एक लड़की बिना किसी ख़ास योजना के अपने सहयात्री के साथ निकल पड़ी पूर्वोत्तर (Northeast travelogue) की तरफ़ और फिर क्या हुआ? अपनी पहली पूर्वोत्तर यात्रा के अनुभव लिख भेजे हैं हमें युवा लेखिका रीना शाही ने। रीना का एक कविता संग्रह प्रकाशित है और यात्राओं में उनकी रुचि है।
ऐसे हुई पूर्वोत्तर के सफ़र की शुरुआत ( North East travelogue)
“बिहार के बाद कोई ट्रेन नहीं मिल रही है, क्या करें ? बिहार तक चले जाते हैं फिर वह से देख लेंगे कि कैसे जाना है, बस तो मिल जाएगी।”
अनजान जगह है, इंटरनेट पर कितना भरोसा किया जा सकता है ? अगर कुछ नहीं मिला वहाँ से तो? 21वीं सदी है कुछ न कुछ तो मिल जायेगा, पहुँच तो जायेंगे ही। दरभंगा से पास है, तो फिर वहाँ तक चले जाते हैं, आगे का देख लेंगे। अभी तक के जीवन में मैंने बहुत बार “देख लेंगे” वाला फ़ार्मूला लगाया है। दिल्ली से चल पड़े हम दो लोग उत्तर पूर्व की यात्रा पर, आधे रास्ते तक के टिकट के साथ। आस पास बैठे लोगों से बातें हुई, उन्होंने कहा ट्रेन तो खाली है , TT से बात कर के देखिये शायद सीट मिल जाएगी। TT साहब से बात हुई, कहा सीट तो है , रोकड़ा लगेगा। “ऑनलाइन हो पायेगा ? “
“नहीं कैश। “
“लेकिन मेरे पास तो इतना कैश है नहीं अभी।”
“दरभंगा में ट्रेन रुकेगी, स्टेशन के एटीएम से निकाल लेना।”
थोड़ी राहत हुई कि अब चेंज नहीं करना पड़ेगा। सुबह करीब 8-9 बजे दरभंगा स्टेशन पर ट्रेन रुकी और मैं सीधे स्टेशन के बाहर एटीएम की तरफ भागी, कुछ देर लाइन में खड़े होने के बाद पता चला कि कैश नहीं है । अब ? कुछ सेकेंड्स के लिए दिल इतनी तेज़ धड़का लगा आज लापता होने का वक़्त आ गया है। तभी सामने दूसरा एटीएम दिखा, ऐसी राहत मिली मानो बिना बैक आये एग्जाम पास कर लिया हो। छोटी लाइन थी, 2 min में नंबर आ गया , वो 2 min ऐसा लगा कि ब्रह्माण्ड के सारे स्टेशन मानो तेज़ी से खाली हो रहे हो, मेरे लिए अब दरभंगा क्या दुनिया में कोई ट्रेन नहीं है, सब निकल चुकी हैं।
न्यूजलपाईगुड़ी में तीस्ता के नज़ारे
तेज़ी से गुलाबी-हरे पत्ते समेट कर स्टेशन की तरफ भागी, वहाँ ट्रेन ऐसे खड़ी थी जैसे छुट्टी पर हो, हम इंसान हैं ऐसे पलट जाते हैं खुद हमें पता नहीं चल पाता, बैंगन शरमा जाये। सामने की सीट पर एक परिवार था जो वैष्णो देवी से आ रहा था उन्हें अगले स्टेशन उतरना था, जाते–जाते टूथपेस्ट और प्रसाद दे गए।
दिन तक हम न्यू जलपाईगुड़ी थे, बाहर निकलते ही देखा गाड़ियां लगी थी, अच्छी बात यह थी, टूरिस्ट देखकर भी गाड़ी वाले उत्तेजित नहीं हुए, ना ही हमें खींचकर गाड़ी तक ले गए। लगभग 30 min बाद एक और यात्रा शुरू हो गयी, गंगटोक, सिक्किम के लिए । गाड़ी में कुछ आर्मी वाले थे ,जो छुट्टी पूरी होने पर यूनिट वापस जा रहे थे, कुछ लोकल और 2 हम, मेरी चचेरी बहन ‘प्रीती’ और मैं, टूरिस्ट जैसे कुछ।
क़रीब–क़रीब 1 घण्टे बाद दायीं तरफ़ से ‘तीस्ता नदी’ दिखने लगी, उसे देखकर कभी थल–नाचनी वाली रामगंगा (उत्तराखंड) , कभी गरमपानी–खैरना वाली कोसी, कभी ऋषिकेश–श्रीनगर वाली गंगा के दृश्य स्मृति पटल से झाँकते रहे। घर से दूर होने पर हम घर जैसा कुछ ढूँढने लगते हैं । घर से दूर होते हैं तो अनजान चेहरों पर परिचितों की झलक मिलती है। ये तीस्ता भी मुझे कभी रामगंगा, कभी कोसी, कभी गंगा नजर आती रही।
गाड़ी में बैठे एक फौजी का रिपोर्टिंग डे रहा होगा उस दिन, उसे टाइम से पहुँचना था, उसने ड्राइवर को बहुत तंग किया जल्दी चलने के लिए, काफ़ी बहस के बाद ड्राइवर ने उन पहाड़ी रास्तों पर गाड़ी को एरोप्लेन बना दिया। हम सब साँसे रोके बैठे रहे, इस से पहले हम शायद परलोक निकल जाते, फौजी महाराज बोले “भाई आराम से चलाओ, अब देर तो हो गयी है कम से कम ज़िंदा ही पहुँचा दो।”
रस्ते भर सैनिक छावनियाँ आती रहीं, एक–एक कर सारे फौजी उतरते रहे। गंगटोक पहुँचने तक 2-3 लोग ही बचे थे, बारिश शुरू हो गई थी, सर्दी के मौसम में बर्फीली हवाओं ने स्वागत तो किया लेकिन इतनी ठण्ड मुझे कभी रास नहीं आयी।आख़िरकार हम अपने होटल रूम पहुँचे। भूख भी बहुत लगी थी, रास्ते में सिर्फ चिप्स और कोल्ड ड्रिंक से गुजारा किया, जिस में cold drink का ₹5 extra देना पड़ा क्यूँकि दुकानदार ने कहा 5 रुपया फ्रिज का लगेगा।
तहज़ीब से भरे सिक्किम के लोग (Sikkim Northeast travelogue)
शाम को बहुत सारी सीढ़ियाँ पार कर MG रोड पहुँचे ,चढ़ाई नैनीताल के नमकीन वाली गली जैसी। खाना खाकर थोड़ी देर वही बैठे रहे, आस–पास टूरिस्ट ज़्यादा नहीं थे जितने आमतौर पर new year के समय होते होंगे। दूसरे दिन ‘लाचुंग’ जाने का प्लान ख़राब मौसम की वजह से रद्द हो गया, ख़राब मौसम और बर्फ़बारी के कारण वहाँ के रास्ते बंद हो गए थे, तो सोचा आसपास ही घूम लिया जाये, पैदल–पैदल enchey मोनेस्ट्री की तरफ़ निकल पड़े, रास्ते में थोड़ा ट्रैफिक था, लेकिन मज़ाल कि कोई wrong side चल रहा हो, बेवजह honk कर रहा हो या कोई हड़बड़ी मचाई हो।
सिक्किम के लोग रोड पर इतनी तहजीब से थे हमने कुछ देर रूककर सिर्फ यही देखा कि क्या ये लोग सच में ट्रैफिक के नियमों का पालन कर रहे हैं ? एक शहर कैसा लगता है जब लोग रोड अपने best behaviour में हो। रात मौसम और खराब हो गया और शहरभर में पूरी रात लाइट गायब रही, फ़ोन बंद हो चुके थे। होटल की खिड़की से बारिश देखते हुए नैनीताल में स्कूल का समय याद गया, देवदार के पेड़,उन पर कोहरा, रिसता बारिश का पानी, सुंदर नहीं लगता,अवसाद है।
लाचुंग बंद था, मार्केट में announcement हो रही थी की सारे टूरिस्ट जल्दी वापस चले जाए,क्यूँकि लॉकडाउन फिर से लग सकता है। उस रात एक नेपाली रेस्टोरेंट में इतना अच्छा खाना खाया कि दिमाग़ ने कहा क्यों न कल कहीं दूसरी जगह चला जाये, अगली सुबह हम टैक्सी स्टैंड पर थे, प्लान था जहाँ की गाड़ी मिलेगी वही चले जायेंगे, दार्जिलिंग या सिलीगुड़ी ।
मैं चींजो को लेकर लापरवाह नहीं हूँ, बस मेरी सबसे पहली कोशिश रहती है कि जिन्दा रहूँ बाक़ी प्लान तो ऐसे ही करती हूँ अचानक, जिन चींजो में मैंने ज्यादा सोच विचार किया उनका नतीज़ा इतना बुरा रहा कि कभी–कभी मुझे उस नतीजों से नफरत हो गयी, कभी मलाल और कभी बहुत हँसी आती है।
गंगटोक से दार्जिलिंग का सफ़र
आज टैक्सी यूनियन की हड़ताल थी। अब क्या करें? कुछ देर तक इधर–उधर पूछने पर 2 लोग मिले जिन्हें दार्जिलिंग जाना था, उन्होंने हमसे पूछा हम कहाँ जा रहे हैं? हमने कहा दार्जिलिंग, और मन ही मन सोचा चलो यहीं , 2 से भले 4 । हाँ ! कुछ टैक्सी वाले हड़ताल पर नहीं थे, उस दिन शायद वो किसी के लिए विभीषण ज़रूर बन गए हो, हमारे लिए तो राम थे।
दार्जिलिंग आते आते, मसूरी जैसे ट्रैफिक ने स्वागत किया, कहीं –कहीं पिछले दिनों की बर्फ बची हुई थी । कभी धूप , कभी बारिश, बहुत ठंडा ,लगभग सोते–सोते हम पहुँच गए। तब खरोड़े के सूप की बहुत याद आई । भगवान उन सभी बकरे, बकरियों, मुर्गियों, मछलियों की आत्मा को शांति दे जिन्होंने मेरे पेट की आत्मा को तृप्त किया।
अरे ! ये शहर तो कुछ–कुछ पौड़ी जैसा है। साइड में टॉय ट्रेन चल रही थी, ये लो इसे तो बहुत बार फोटो में देखा है, देखो !कितने पास से गुजर रही है। सामने कंचनजंघा, तो याद आई भूगोल की क्लास। प्यारा ,सुन्दर कंचनजंघा, इतने करीब , शाम की धूप के साथ मुस्कुरा कर जैसे कह रहा हो,”बेटा पहुँच ही गए यहाँ तक।”
स्टेशन से होटल तक ३०–४० min पैदल चले , यहाँ भी माल रोड है, एक छोटा सा, प्यारा स्पॉट जहाँ स्क्रीन पर हिन्दी फ़िल्मों की वीडियो चल रही थी, जिनकी शूटिंग शायद कभी यहाँ हुई होगी। हमारा होटल उस के ठीक नीच की तरफ था, रूम में पहुँच कर महसूस हुआ कि इंटरनेट में जो दिखता है सब सच नहीं होता,इस से अच्छा तो हम मॉल रोड पर ही रात गुजर लेते।
फिर हल्द्वानी रोडवेज के पास का होटल याद आया, चलो ये उस से बेहतर ही है ऊपर से हम दिन भर के थके, new year का समय सारे होटल फुल थे। सामान रखकर मॉल रोड मार्किट गए, खाना ठूसा , इतनी सर्दी कि हिलते तक का मन नहीं था ।
सफ़र में मज़ा ही नहीं आता खीझ भी होती है
क्या लगता है जब इतना सफर करते हैं तो मैं मन हमेशा ख़ुश रहता है ? बिलकुल नहीं, इतनी खीझ हुई पूछो मत। दूसरा दिन चाय बागान में गुजरा, दार्जिलिंग शहर की गन्दगी देखी जिसका दुःख अभी तक होता है। तब नजरे हर वक़्त कंचनजंघा पर थी तो राहत मिलती रही। गंगटोक की सफाई के बाद दार्जिलिंग की गन्दगी झेली नहीं जा रही थी, ऊपर से होटल इतना बुरा, बस लोग अच्छे मिले। सबको लगता रहा हम नेपाली हैं, वहाँ काफ़ी संख्या में लोग नेपाली बोलते हैं।
नए साल का स्वागत हुआ दार्जिलिंग में। अगली सुबह 9:30 की ट्रेन थी ,जलपाईगुड़ी से । होटल वालों को बोलकर किसी टैक्सी का इंतज़ाम कराया सुबह 4 बजे के लिए । अगली सुबह 3 बजे हम दोनों तैयार होकर बाहर की तरफ़ निकले तो गेट बंद था । स्टाफ को कॉल किया तो कोई जवाब नहीं,ना ही टैक्सी वाले का कुछ पता । जाकर देखा तो पूरा स्टाफ ऐसे सोया था जैसे नानी के घर पर हो । 10-15 min तक उन लोगों को जगाती रही तब जाकर एक लड़का उठा, उसने गेट खोला।
टैक्सी वाले को लगातार 15 min कॉल करने के बाद उसने कहा कि वो इतनी सुबह नहीं आ सकता,एक और मुसीबत। शायद सर्दियों की सुबह कंबल, रजाई की कुरबानी देने का मन ना हो। मैंने कहाँ हे प्रभु! जाना तो मुझे आज ही है, इस पूरे सफर का ये अंजाम हो ,अच्छा नहीं लगेगा। ट्रेन इस बार हमारे बिना चल देगी। उसे दया आई या जो भी हुआ, उसने दूसरे टैक्सी वाले को भेजा।
15 min में टैक्सी आई, सुबह सुबह लड़ने का मन नहीं था, पूरे सफर में भगवान का शुक्रिया अब अदा किया। बिना चूँ –चाँ किये हम टैक्सी में बैठे, सीधे निकल पड़े न्यू जलपाईगुड़ी। टैक्सी वाला समझदार और स्मार्ट था। उसने एकदम सही समय पर स्टेशन पहुँचा दिया।
ट्रेन अपने निर्धारित समय पर थी और हम ट्रेन के समय के साथ।
इस तरह घर की बेटियाँ लापता हुए बिना ,सकुशल घर पहुँच गईं ।