Ghughutiya Tyohaar

जानिए उत्तराखंड का घुघुतिया त्यौहार क्यों मनाया जाता है

आज घुघुतिया त्यौहार है। घुघुतिया उत्तराखंड का लोकपर्व है जिसे मकर संक्रांति के दिन मनाया जाता है। उत्तराखंड के पहाड़ों में सुबह-सुबह बच्चों ने आज कव्वे का इंतज़ार किया होगा। अपनी छतों पर, आँगनों में घुघुतिया की माला लेकर बाक़ायदा उसे एक स्वर में गाकर बुलाया होगा। 

काले कौओ काले घुघुती बड़ा खाले ,
लै कौआ बड़ा , आपु सबुनी के दिए सुनक ठुल ठुल घड़ा ,
रखिये सबुने कै निरोग , सुख समृधि दिए रोज रोज |”

मतलब काले कव्वे आ ज़ा और घुघती बड़ा खा ले। ये ले कव्वे बड़ा खा और सबको सोने का बड़ा-बड़ा घड़ा दे। सबको निरोगी बनाए रख और रोज़-रोज़ सबके लिए सुख समृद्धि लेकर आ। 

है ना सभी के लिए खूबसूरत दुआ।  

मकर संक्रांति, उत्तरैण, घुघुतिया, मकरैनी, खिचड़ी संक्रांति देश के अलग-अलग हिस्सों में इस त्यौहार के कई नाम हैं।

लेकिन उत्तराखंड में इस त्यौहार को ख़ासकर बच्चों के बीच घुघुतिया या पुसूड़िया नाम से पुकारा जाता है। आख़िर कौवे को बुलाकर पकवान खिलाने का ये रिवाज़ उत्तराखंड में क्यों शुरू हुआ। क्या है इसके पीछे की कहानी? इस अनूठे त्यौहार को मनाया कैसे जाता है? आपके दिमाग़ में ऐसे कई सवाल आ रहे हैं ना? 

इन सारे सवालों के जवाब आज मैं आपको देने वाला हूँ। यह लेख पूरा पढ़िए और जानिए उत्तराखंड के लोकपर्व घुघुतिया के बारे में। 


घुघुतिया त्यौहार कैसे मनाते हैं

 

मकर संक्रांति के दिन उत्तराखंड में घुघूतिया या घुघती के त्यौहार को मनाने का तरीक़ा एकदम अनूठा है। 

बच्चे इस दिन का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। पहली रात पूरा परिवार मिलकर आटे, गुड़, सूजी से अलग-अलग आकार के व्यंजन बनाता है जिनमें तलवार, ढाल, डमरू और घुघूतिया के आकारों के पकवान ख़ासतौर पर बनाए जाते हैं। शकरफ़ारे और मास यानी दिनभर भीगे हुए हुए उड़द के बड़े भी बनाए जाते हैं। इसके अलावा गुजिया भी इन व्यंजनों में शामिल रहती है। 

जब ये व्यंजन बन जाते हैं तो उन्हें धागे में पिरोकर साथ में कोई फल जैसे माल्टा या संतरा डालकर माला बना ली जाती है। बचपन के दिनों में इस बात का बड़ा क्रेज़ रहता था कि किसकी माला कितनी बड़ी होगी। भले ही गर्दन दर्द करने लगे लेकिन हम बच्चों के बीच इस माला को देर तक पहने रखने का शौक़ रहता था। और फिर पहनी हुई माला से तोड़-तोड़कर बड़े और शकरफ़ारे खाने का अपना मज़ा था। लेकिन हां आपको इस माला से तब तक कुछ भी नहीं खाना होता था जबतक कव्वा अपने हिस्से का बड़ा न खाले। 

अब आपके दिमाग़ में ये सवाल ज़रूर आ रहा होगा कि कव्वे के इंतज़ार और उसे खाना खिलाने की ये प्रथा आख़िर शुरू कैसे हुई। चलिए आपको बताते हैं।


घुघुतिया त्यौहार की परम्परा कैसे शुरू हुई 

 

घुघुतिया या काले कव्वा मनाने की शुरुआत को एक बड़ी रोचक लोक-कथा से जोड़कर देखा जाता है।

ये कहानी चंद वंश के शासक कल्याण चंद  के समय से शुरू होती है। कहा जाता है कि उनकी कोई संतान नहीं थी और उनके मंत्री को भरोसा था कि कल्याण चंद की मौत के बात राजगद्दी उसी को मिलेगी। 

संतान की चाह में एक बार कल्याणचंद अपनी पत्नी के साथ बागनाथ के मंदिर गए। वहाँ उन्होंने संतान की मनोकामना माँगी और वह पूरी हो गई। 

कुछ समय बात उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम निर्भय रखा गया। निर्भय की मां अपने बेटे को प्यार से घुघती कहती थी। मां घुघती के गले में एक मोती की माला पहनाकर रखती। यह माला घुघुती को बहुत पसंद थी। जब भी घुघती खाना खाने में नख़रे करता तो मां कहती – वो कहती ‘काले कौआ काले घुघुती माला खाले यानी ये खाले वरना ये माला मैं कव्वों को दे दूँगी। ये सुनकर घुघती झट से खाना खा लेता।कव्वों को बुलाने पर कुछ क़व्वे वहाँ आ भी जाते तो मां उन्हें भी कुछ पकवान खिला देती। इस तरह से घुघती या निर्भय की कव्वों से दोस्ती हो गई। 

इधर मंत्री राजगद्दी की उम्मीद ख़त्म हो जाने से निराश था। वो इस षड्यंत्र में लगा रहता कि किस तरह से इस बच्चे से उसे निजात मिल सके ताकि गद्दी उसे मिल जाए। 

एक दिन मौक़ा पाकर मंत्री ने घुघती को उठवा लिया और वह उसे जंगल में लेकर चला गया। उसे ऐसा करते हुए एक क़व्वे ने देख लिया। निर्भय रो रहा था। कव्वा यह देखकर कांव-कांव करने लगा तो और भी कव्वे वहाँ इकट्ठा हो गए। सब मिलकर मंत्री पर झपट पड़े और अपनी चोंच के प्रहार से उसे ज़ख़्मी कर दिया। घुघती ने रोते हुए अपनी गरदन से मोती की माला उतारी और उसे हवा में लहराया। कव्वे ने माला उसके हाथ से ली और राजमहल की ओर उड़ चला। 

इधर राजमहल में हड़कम्प मचा हुआ था। निर्भय के इस तरह ग़ायब जाने से सब परेशान थे। तभी एक कव्वा उड़ता हुआ आया और उसने मोतियों की माला रानी के सामने डाल दी। अपने बेटे की माला देखकर देखकर रानी तुरंत समझ गई कि यह कव्वा ज़रूर कोई संदेश देने आता है। इसके बाद कव्वा वापस जंगल की ओर उड़ने लगा। सैनिक उसका पीछा करते-करते उस जगह पहुँच गए जहां घुघती या निर्भय चंद बैठा रो रहा था। 

निर्भय को सैनिक वापस राजमहल ले आए। इस शड़यंत्र का पर्दाफ़ाश होते ही राजा ने मंत्री को मृत्यु दंड देने की घोषणा की। और बच्चे के मिल जाने की ख़ुशी में रानी ने खूब सारे पकवान बनवाए और कव्वों को बुलाकर उन्हें खूब खिलाया। 

माना जाता है कि तभी से घुघुतिया त्यौहार मनाने की परम्परा उत्तराखंड में शुरू हो गई। कितनी रोचक है ना पक्षियों और इंसानों की दोस्ती और प्यार की ये कहानी। 

कहानियाँ और भी कई हैं। लेकिन ये कहानी सबसे ज़्यादा प्रचलित है।


उत्तराखंड में लगता है उत्तरायणी का मेला

 

उत्तराखंड के कई इलाक़ों में मकर संक्रांति यानी उत्तरायणी के दिन मेले भी लगते हैं। मकर संक्रांति से पहले गंग स्नान या नदी में नहाने की परंपरा भी है। उत्तराखंड के बागेश्वर में होने वाला उत्तरायणी का मेला काफ़ी मशहूर है। मान्यता यह है कि सूर्य साल के छह महीने उत्तरायण में रहता है और शेष छह महीने दक्षिनायन में। मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उत्तरायण में प्रवेश करता है इसलिए इस दिन को ख़ास माना जाता है। कहते हैं कि इस दिन संगम में डुबकी लगाने से आपके सारे पाप तर जाते हैं।

माना जाता कि मकर संक्राती के दिन सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है।


देश के दूसरे राज्यों में ऐसे मनाते हैं मकर संक्रांति

 

उत्तराखंड के अलावा और राज्यों में भी आज के दिन को त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। केरल में इसे पोंगल कहा जाता है तो वहीं केरल, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में आज के दिन संक्रांति के नाम से मनाया जाता है। असम में माघ बिहू, बिहार में खिछड़ी, जम्मू में माघी संग्रान्द तो नेपाल में यह त्यौहार माघू नाम से मनाया जाता है। 

महाराष्ट्र में इस दिन लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और कहते हैं ‘तिल गुड़ ज्ञा आणि गोड़ गोड़ बोला’ यानी तिल गुड़ खाओ और अच्छा बोलो। 

कुल मिलाकर माना जाता है कि आज के दिन से अच्छे दिनों की शुरुआत होती है। है ना मज़ेदार कि एक ही त्यौहार को पूरे देश में अलग-अलग तरह से मनाया जाता है लेकिन इस पर्व के पीछे भाव एक ही की आज से सब अच्छा हो। 

यहाँ देखें घुघुतिया त्यौहार पर वीडियो

YouTube player

Loading

उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *