Askot Arakot Yatra Group

अस्कोट आराकोट अभियान : पथ संचलन की परंपरा को पुनर्जीवित करती यात्रा  

लगभग महीने भर से पैदल चलते हुए, पसीने से लथपथ जब हम केदारनाथ यात्रा मार्ग से गुज़र रहे थे तो आसमान से आती एक मशीनी गर्जना हर कुछ मिनटों में हमारे ऊपर से गुज़र रही थी। ये चार धाम यात्रा के लिए पर्यटकों को लाते-ले जाते हेलिकॉप्टर थे जो थरथराते हुए पहाड़ के एक छोर से गुज़रते और फिर चलते हुए इंजन के साथ यात्रियों को उतार तुरंत वापस लौट आते। हर फेरे में मुनाफ़े का जो फ़ेर था उसके चलते इस संवेदनशील भूगोल में उड़ान के नियमों में हेरे-फ़ेर जारी था। (Askot Arakot Abhiyaan 2024)

इस शोर के बावजूद लगातार चलते हुए यही एक संतोष था कि जिस उत्तराखंड में लोग अब चारधाम जैसी धार्मिक यात्रा भी हेलीकॉप्टर से कर रहे हैं वहां एक सामाजिक यात्रा ऐसी भी है जो पथ-संचलन की परम्परा को ज़िंदा रखे हुए है. विभिन्न नदी घाटियों, बुग्यालों, गधेरों, छानियों, झरनों, जंगलों से पैदल गुज़रते हुए पहाड़ के मर्म को जानने की इस यात्रा ने इस बार अपने पचास वर्ष पूरे किए। 

 

Uttarakhand women in folk attire

 

एक यात्रा जिसमें शामिल यात्री उत्तराखंड के भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय बदलाव के दशकवार अध्ययन के उद्देश्य से करीब 1100 किलोमीटर पैदल चलते हैं. पहाड़ (PAHAR) संस्था के बैनर तले ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ नाम से की जाने वाली यह सामाजिक यात्रा 25 मई को चीन और नेपाल की सीमा से लगे पांगू से शुरू हुई. करीब 45 दिनों तक चलने वाला यह अभियान 8 जुलाई को आराकोट में आकर पूरा हुआ. यात्रा का नेतृत्व देश के जाने माने इतिहासकार, लेखक और पद्म श्री जैसे सम्मान से नवाज़े जा चुके प्रोफ़ेसर शेखर पाठक कर रहे थे। 

मैं 30 मई को इस यात्रा में मुनस्यारी से शामिल हुआ और करीब पांच सौ किलोमीटर की पैदल यात्रा कर 27 जून को कमद (उत्तरकाशी) में मैंने अपने हिस्से की यात्रा पूरी की. करीब एक महीने उत्तराखंड के दुर्गम भूगोल को पैदल-पैदल नापकर जो अनुभव हासिल हुए उन्हें एक यात्री के तौर पर अविस्मरणीय ही कहा जा सकता है. यात्रा में एक ओर जहाँ उत्तराखंड के कुमाऊँ और गढ़वाल मंडल के भौगोलिक सौन्दर्य से रूबरू होने का मौक़ा मिला तो वहीं उन तमाम समस्याओं को भी करीब से देखने का अवसर हासिल हुआ जो पहाड़ से पलायन की सबसे बड़ी वजहें बनी हुई हैं.

 

कैसे शुरू हुई यह अनूठी यात्रा  (Askot Arakot Abhiyaan 2024)

चिपको आन्दोलन में अहम भूमिका निभाने वाले सुन्दर लाल बहुगुणा की प्रेरणा से 1974 में शेखर पाठक, प्रताप शिखर, शमशेर सिंह बिष्ट और कुंअर प्रसून ने इस यात्रा की शरुआत की. तबसे हर दस साल में उत्तराखंड के ग्रामीण जीवन के तुलनात्मक अध्ययन के मकसद से यह यात्रा की जाती है.

1984 में यात्रा मार्ग में कुछ बदलाव किए गए और यह मार्ग क़रीब 1150 किलोमीटर का हो गया। 2024 की इस यात्रा की थीम स्रोत से संगम रखी गई और यात्रा की अवधि के दौरान ही कई समानांतर यात्राएँ भी आयोजित की गई। 

इस बार यात्रा में क़रीब दो सौ यात्रियों ने कम-ज़्यादा समय के लिए प्रतिभाग किया जिनमें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के शोध छात्र-छात्राएं, वैज्ञानिक, लेखक, कवि, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, शिक्षक आदि शामिल रहे.

Shekhar Pathak speaking with villagers

 

यात्रियों ने अपने-अपने विषय को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड के पर्वतीय जनजीवन का अध्ययन किया. सबसे अच्छी बात यह रही कि हर शाम होने वाली समीक्षा बैठकों में यात्रियों ने अपने-अपने अवलोकन और अनुभव साझा किये जिससे हर यात्री को पहाड़ को लेकर एक बेहतर समझ बनाने में मदद मिली. 

 

यह रहा हमारा यात्रा मार्ग (Our Route in Askot Arakot Abhiyaan 2024)

Askot Arakot Yatra Marg

 

तीस तारीख़ को मुन्स्यारी से यात्रा में जुड़ने के बाद यात्रा दल के साथ मैं क़रीब नब्बे बसासतों से गुज़रा जिनमें ज़्यादातर दूरस्थ गाँव रहे। कुछ छोटे क़स्बे और शहरी इलाके भी इन जगहों में शुमार थे। कुमाऊँ की जोहार घाटी के मुन्स्यारी से शुरू होकर गढ़वाल के बूढ़ा केदार के पास उत्तरकाशी के कमद नाम की जगह तक की इस पदयात्रा में मुझे और दल के साथियों को क़रीब महीने भर का वक्त लगा (अन्य साथी जो धारचूला के पास पांगू से चले थे आराकोट के लिए आगे बढ़ गए)।

मुन्स्यारी और बिर्थी जैसी, पर्यटकों के बीच मशहूर जगहों से मेरी यह यात्रा शुरू ज़रूर हुई लेकिन उसके बाद होकरा, लीथी, बदियाकोट, बोरबलड़ा जैसे कुमाऊँ के उन दूरस्थ गाँवों से गुज़रना हुआ जिनका इससे पहले कभी नाम तक नहीं सुना था। माणातोली और मिनसिंग जैसे बुग्यालों की ऊँचाई से कुमाऊँ की सीमा को पैदल पार करने के बाद हम गढ़वाल की सीमा में आ गए। जहां हमारी मुलाक़ात दोलान  बुग्याल से हुई और फिर हिमनी, देवाल, रामणी, झिंझी, पाणा होते, क्वाँरी पास पार करते हुए, हम कर्छी, जोशीमठ, गोपेश्वर, चोपता, मक्कू मठ , फाटा के रास्ते त्रियुगीनारायण तक आए।

यहाँ से एक बार फिर हम पंवाली काठा की ऊँचाई पर जा चढ़े। फिर ग्वाना में उतरकर घुत्तू, सिल्यारा, बूढ़ा केदार होते हुए हम कमद तक आए। यहीं मैंने अपनी यात्रा समाप्त की।

Women carrying fuel wood

 

इन नब्बे बसासतों और उत्तराखंड के अंतरवर्ती इलाक़ों से गुज़रते हुए हमने पंद्रह के क़रीब नदियाँ और इनकी नदी घाटियाँ पार की। इन नदियों में रातापानी, जकुला, रामगंगा, पिंडर, कैल, बेदिनी गंगा, नंदाकिनी, अलकनंदा, कैल गंगा, मंदाकिनी, बालखिला, लुसार गाड़, भिलंगना, धर्म गंगा और बालगंगा जैसी नदियाँ शामिल थी। इन नदी घाटियों के साथ-साथ कालामूनी, माणातोली बुग्याल, क्वाँरी पास और पंवाली काठा जैसे उच्च हिमालयी बुग्यालों से गुजरने का मौक़ा भी हमें मिला। इन बुग्यालों से गुज़रते हुए हमने समुद्र तल से 3700 मीटर तक की कठिन और दुरूह ऊँचाई को भी पार किया।

पैरों के छालों, कठिन-निर्मम चढ़ाइयों, घुटनों में दर्द देते तीखे उतारों, जल विहीन बंजर वीरानों में पानी की अंतहीन लगती तलाश, खुले आसमान के नीचे शयन और सौंच की मजबूरियों, अनवरत बारिशों और कड़ी धूप के सिलसिलों ने निसंदेह हमें एक यात्री के तौर पर और मज़बूत बनाकर वापस भेजा। इस यात्रा ने यह भी सिखाया कि पहाड़ों में इतने दिन पैदल चलने के लिए दिल और देह दोनों पहाड़ों सी ही मज़बूत होनी चाहिए। 

 

पारम्परिक पैदल मार्गों की हालत ख़स्ता 

Curzon Trail route

 

यात्रा की ख़ास बात रही कि हम उन ऐतिहासिक पैदल मार्गों से होकर गुज़रे जिनपर कभी जेस्विट ब्रदर बेंटो दी गोस और विलियम मूरक्रॉफ़्ट  से लेकर लॉर्ड कर्ज़न, जैसे यात्री चले. इन बिसरा दिए गए रास्तों पर चलना अभूतपूर्व अनुभव ज़रूर रहा पर यह देखकर अफ़सोस हुआ कि इनके संरक्षण के लिए कुछ ख़ास प्रयास नहीं किये जा रहे.

एक दौर था जब ये रास्ते पहाड़ के ओर-छोर को जोड़ने में अहम भूमिका निभाते थे. चार धाम जैसी महत्वपूर्ण धार्मिक यात्राएं भी पैदल रास्तों से ही की जाती थी. आज भी चरवाहे और खच्चर चलाने वाले इन रास्तों का इस्तेमाल करते हैं लेकिन अब इनमें से ज़्यादातर रास्ते या तो प्राकृतिक आपदाओं की वजह से क्षतिग्रस्त हो गए हैं, या फिर संरक्षण के अभाव में बंद हो रहे हैं.

Broken bridge

 

कुमाऊँ के नैनीताल से गढ़वाल के रामणी को जोड़ने वाली कर्ज़न ट्रेल (Curzon Trail) पर चलते हुए हमने देखा कि गावों में नई सड़कों के निर्माण से जो मलवा निकल रहा है उसे फेंकते हुए भी इन रास्तों की अनदेखी की जा रही है. ब्रिटिश दौर में 1899 से 1905 तक भारत के वायसराय रहे लॉर्ड कर्ज़न ने 1903 में इस रास्ते से यात्रा की इसलिए इसका नाम कर्ज़न ट्रेल पड़ा। ग्वालदम से शुरू होने वाला यह ऐतिहासिक पैदल यात्रा मार्ग वान, कनौल, सुतौल, रामणी पास होते हुए तपोवन पर ख़त्म होता है। दूसरी तरफ़ से जोशीमठ के रास्ते औली होते हुए यह ट्रेल आगे बढ़ती है।

हम देख रहे थे कि मलवे के नीचे दबकर कर्ज़न ट्रेल जैसे ऐतिहासिक महत्व के पैदल रास्ते तक क्षतिग्रस्त हो रहे हैं. पर्यावरण सम्मत पर्यटन के लिहाज़ से जो रास्ते उत्तराखंड के लिए बहुत बड़ा संसाधन हो सकते थे, वो विलुप्ति की कगार पर हैं और उनकी मरम्मत की चिंता किसी को नहीं दीखती. 

 

उत्तराखंड ने त्रासदी से क्या सीखा 

JCB Washed Away after Uttarakhand Flood

 

2013 में आई भीषण आपदा के निशान आज भी उत्तराखंड में जगहजगह दिखाई दे जाते हैं. वह आपदा किनती भीषण थी इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पाँच हज़ार से भी ज़्यादा स्थानीय लोग और पर्यटक इस आपदा में मारे गए। जानकार बताते हैं कि सरकारी आँकड़ों से अलग असल में यह संख्या बीस हज़ार के क़रीब रही होगी। 

अलकनंदा और मंदाकिनी जैसी नदियों में सड़क निर्माण में इस्तेमाल हुई मशीनें अब भी मलवे के रूप में ज्यों की त्यों पड़ी हुई हैं. सोनप्रयाग के पास सड़क किनारे खड़े होकर यात्रा में शामिल मशहूर भूगर्भवेत्ता नवीन जुयाल यात्रियों को बताते हैं – “वो देखिये सामने सड़क पर आपदा से पहले पांच बैंड थे, अब उनमें से दो ही रह गए हैं. नदी पहले जहाँ बहती थी उससे इतनी ऊपर बहने लगी है. इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यहाँ तबाही का क्या मंज़र रहा होगा। अब यहाँ ये बहुमंज़िला होटल और मल्टीलेवल पार्किंग बना दी गयी हैं. जलस्तर बढ़ने पर नदी जब अपने पुराने रास्ते पर बहने लगेगी तो क्या होगा आप अंदाज़ा लगा सकते हैं.”

 

Multilevel Parking

 

आस-पास बहुमंज़िला होटलों, मल्टीलेवल पार्किंग और सैकड़ों वाहनों की अनवरत आवाजाही देखकर लग रहा था कि खुदा न ख़ास्ता अगर नदी अपने पुराने रास्ते पर वेगवान होकर लौटी तो इस अंधाधुंध नवनिर्माण का जाने क्या हश्र होगा। दूसरी ओर हर पाँच मिनट के अंतराल में मंडराते, चारधाम यात्रा का पुण्य देने वाले हेलीकॉप्टरों से आते शोर से बिदककर दुर्घटनाग्रस्त हो जाते और कई बार मर जाते जानवरों का क़िस्सा वहाँ के लोग दबी ज़बान में खुद ही बयां कर जाते हैं। 

 

पर्यटन को लेकर चार धाम के अलावा और क्या संभावनाएं

A view near Kuari Pass

 

उत्तराखंड की पर्यटन नीतियों में फ़िलहाल चार धाम यात्रा ही अहम भूमिका निभाती दीखती है। धाम के नाम पर हर किसी को अच्छे ख़ासे दाम मिल रहे हैं जिसके चलते अन्य क्षेत्रों में पर्यटन के विकास पर उतना ध्यान नहीं जाता. मसलन कुमाऊँ और गढ़वाल को बोरबलड़ा और हिमनी के बीच जो पैदल रास्ता जोड़ता है वहां माणातोली और मिन्सिंग जैसे बुग्यालों की अनछुई दुनिया है जिसके बारे में लोग ना के बराबर जानते हैं.  प्रकृति के साथ संतुलन बनाते हुए ब्यांस, चौदास, जोहार, दारमा, नेलांग जैसी घाटियों की यात्राएँ पर्यटन को एक नया आयाम दे सकती हैं।

हालांकि ब्यांस घाटी के आदि कैलास की मौजूदा यात्राओं में यह संतुलन तार-तार होता ज़रूर लगता है। ऊँचे शिखरों तक सड़क से पहुँच जाने की हवस पर्वतीय भूगोल का जिस हद तक नुक़सान कर रही है वह देखने के लिए एक बरसात ही काफ़ी है। उच्च हिमालयी इलाक़ों में पद यात्राओं की परम्परा ही इस नुक़सान से बचा सकती है। 

हमारे यात्रा मार्ग में आए क्वाँरी पास, पंवाली कांठा, बिजौला जैसे उच्च हिमालयी बुग्याल पहाड़ में पर्यटन के बेहतरीन विकल्प साबित हो सकते हैं. ऐसे अनछुए भूगोल की यात्रा से न केवल इन इलाकों में रोजगार को बढ़ावा मिलेगा बल्कि केदारनाथ, तुंगनाथ, बद्रीनाथ जैसी जगहों पर पर्यटन के अति दबाव से हो रहे नुकसान को भी रोकने में मदद मिलेगी.

Landslide zones in Uttarakhand

 

केदारखंड के इलाकों में सड़कों के भारी कटान के कारण भूस्खलन से हो रहा नुक़सान ही क्या कम था कि पहले ऑल वेदर रोड और अब मानसखंड प्रोजेक्ट के नाम पर कुमाऊँ के इलाक़ों के भी हज़ारों पेड़ों पर आरी चलने के फ़रमान आ चुके हैं। हालांकि जागेश्वर में स्थानीय लोगों ने आस-पास के देवदार के 1000 पेड़ों को काटे जाने के ऐसे ही फ़रमान का पुरज़ोर विरोध किया। इनमें कई पेड़ पाँच सौ साल तक पुराने भी थे जिनपर लोगों ने रक्षासूत्र बांध दिए। चिपको की तर्ज़ पर हुए इस विरोध के बाद सरकार ने इस फ़रमान पर पुनर्विचार की बात ज़रूर की।

अगर प्रस्तावित सभी पेड़ कट गए तो प्राकृतिक संसाधनों का जो नुक़सान होगा सो होगा, नए भूस्खलन ज़ोन की एक खेप और तैयार हो जाएगी। इससे होने वाले सम्भावित सड़क हादसों और जानमाल के नुक़सान की चपेट में सबसे ज़्यादा स्थानीय लोग ही आएँगे यह भी तय ही है।

जहां हमें अपनी वन्यता में पर्यटन की सम्भावना तलाशने की ज़रूरत है वहीं हम उस जीवनदायिनी वन्यता को ही नष्ट करके पर्यटन के नए धाम खोज लेने को आतुर हैं। विकास की यह आतुरता हमें किस ओर ले जाएगी यह हमारी इस वक्त की सबसे बड़ी चिंता होनी चाहिए। 

 

2000 से ज़्यादा गावों के रहवासियों को विस्थापन की ज़रुरत 

A house with cracks in Joshimath

 

यात्रा के दौरान एक ओर हम उत्तराखंड के ला और झेकला जैसे गाँवों से गुज़रे जहाँ बादल फटने की वजह से ये दो गाँव पूरी तरह से तबाह हो गए। सहयात्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता गजेंद्र रौतेला बताते हैं “अगस्त 2009 में आई इस आपदा में इन गावों के 43 लोगों को इस आपदा ने लील लिया और क़रीब दो दर्जन पशु भी हताहत हो गए”.

वहीं गढ़वाल के जोशीमठ में उन दरकते घरों को भी हमने देखा जिनपर दरार आने की वजह से लोगों को उन्हें छोड़कर जाना पडा है. उनके बाहर लाल रंग से बने क्रॉस के निशान बता रहे हैं कि वो घर अब रहने लायक नहीं रहे. जोशीमठ में मिले सामाजिक कार्यकर्ता अतुल सती ने हमें बताया “उत्तराखंड में ऐसे करीब दो हज़ार गाँव हैं जिन्हें प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं की वजह से पूरी तरह विस्थापित किये जाने की ज़रुरत है. उत्तराखंड में करीब ढाई हज़ार घोस्ट विलेज हैं, यानी वहां अब कोई नहीं रहता, ऐसे गावों में विस्थापित लोगों को बसाने की व्यवस्था की जा सकती है. लेकिन सरकार इस ओर चिंतित नहीं लगती.”

 

जैव विविधता पर संकट 

Erosion in Sanvali Kantha Bugyal of Uttarkaand

 

विभिन्न मानवीय और प्राकृतिक कारणों से उच्च हिमालयी इलाकों में उत्पन्न हो रहे जैवविविधता के संकट को भी साक्षात हमने देखा. ऊंची चोटियों, बुग्यालों, गधेरों, जंगलों से लगभग महीना भर गुजरने के बावजूद जंगली भालू, हिरन, काकड़, भरल जैसे जानवर न के बराबर दिखाई दिए.

वहीं उच्च हिमालयी इलाकों में पाए जाने वाले भोजपत्र, सफ़ेद बुरांश जैसे पेड़ों के संख्या भी बहुत कम देखने को मिली. ऊँचे स्थानों पर भी बर्फ़ का नामोनिशान देखने को नहीं मिला. हिमाच्छादित रहने वाली चोटियाँ शुष्क थी, रास्तों में आने वाले ग्लेशियर नदारद.

पंवाली कांठा बुग्याल में भूकटाव भी देखने को मिला जिसे रोकने के लिए सरकारी प्रबंध भी नज़र ज़रूर आए। यह देखना होगा कि ये प्रबंध भूमि का अपर्दन रोकने में कितने कारगर होंगे। यह शोध का विषय हो सकता है कि जैव विविधता में यह परिवर्तन स्थानीय स्तर पर हुई मानवीय गतिविधियों का परिणाम है या वैश्विक जलवायु परिवर्तन इसके पीछे की वजह है. 

 

सड़क निर्माण में भारी अनियमितताएं 

Unscientific Road cutting in Rural Uttarakhand

 

दुरूह हिमालयी इलाकों में सड़क निर्माण कार्य ज़ोरों पर देखने को मिला लेकिन पहाड़ों के कटान में नियमों की अनदेखी से हो रहे विध्वंश को भी हमने सामने से देखा. संवेदनशील पहाड़ों को काटने में कारतूस का मनमाना और बेतहाशा इस्तेमाल हो रहा है जिससे पहाड़ों की बनावट को आतंरिक नुक्सान होना तय है. सड़क निर्माण के मलवे के निस्तारण में अपनाए जा रहे लापरवाह और अवैज्ञानिक तरीकों से नई आपदाओं के जन्म लेने की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं.

पाणा नाम के एक गाँव के पास क़रीब एक दशक पहले ही नई सड़क के नाम पर ब्रिटिश दौर के बने मज़बूत पुल को ढहा दिया गया तबसे लोग उस पुल की बाट जोह रहे हैं ताकि उनका गाँव सड़क मार्ग से जुड़ सके। सीख और आला गांव के बीच हमने देखा कि सड़क पर खुलेआम कारतूस रखे गए हैं और इनका इस्तेमाल कर चट्टानें एकदम अवैज्ञानिक तरीके से काटी जा रही हैं। इस अंधाधुंध कटान की गर्द और मलवे ने उस पूरे इलाक़े को बदरंग कर दिया है सो अलग।

lime stone mining

 

 

सड़क निर्माण में इस भारी अनियमितता के साथ ही कई जगह खड़िया (लाइम स्टोन) की खदानों के खनन से पहाड़ इस तरह खोखले किए जा रहे हैं कि गावों के अस्तित्व पर ही ख़तरा मडराने लगा है। इस ओर भले ही किसी का ध्यान न जा रहा हो लेकिन खेता, शैणराथी और होकरा जैसे गाँवों में लोगों ने इस बाबत गहरी चिंता ज़ाहिर की। 

 

कीड़ाजड़ी और रोज़गार का संकट 

मल्ला दानपुर के इलाकों से गुज़रते हुए हमने देखा कि वहां गाँव के लगभग सभी घरों में ताला लगा था और गाँव के गाँव खाली थे. इस पसरे हुए सन्नाटे की वजह जानने की कोशिश की तो पता चला सभी कीड़ाजड़ी निकालने उच्च हिमालयी इलाकों में गए हुए हैं. पिछले दशक में कीड़ाजड़ी ने पर्वतीय आर्थिकी को न केवल प्रभावित किया है बल्कि इसपर लोग आजीविका के लिए पूरी तरह निर्भर हो गए हैं. इस निर्भरता की वजह से स्थानीय स्तर पर खेती और पर्यटन जैसे रोज़गार के दूसरे साधनों पर भी भारी असर देखने को मिला है.

Panwali Kantha Bugyal

 

गाँव वालों ने बताया कि अब कीड़ाजड़ी की उपलब्धता भी पिछले सालों के मुकाबले बहुत कम हो गयी है. महीने भर की मशक्कत के बाद बहुत थोड़ी सी जड़ी ही मिलती हैं जिससे आजीविका का संकट गहरा रहा है. हालांकि हिमनी, रामणी जैसे कुछ गावों में हमने किसानों को पारम्परिक खेती से अलग कुटकी जैसी जड़ीबूटियों की खेती करते भी देखा. यह बात और है कि ऐसे प्रयोग बहुत कम हो रहे हैं. लंगूरों, बंदरों और शाल (साही) के  आतंक ने ज़्यादातर जगह खेती को चौपट कर दिया है जिससे पलायन की समस्या और बढी है. 

 

जनआंदोलनों का ऐतिहासिक महत्त्व 

Chandi Prasad Bhatt

 

उत्तराखंड आंदोलन से उपजा यह प्रदेश जनआन्दोलनों की भूमि भी रहा है. बीज बचाओ आंदोलन, चिपको आंदोलन, झपटो छीनो आंदोलन, सर्वोदय जैसे कई आन्दोलन उत्तराखंड में हुए जिनकी चिंता के केंद्र में खेती, और पर्यावरण जैसे विषय रहे.

यात्रा चिपको आंदोलन के शुरुआती स्तम्भों में से एक गौरा देवी के गाँव रैणी से भी गुज़री, वहीं गोपेश्वर के दशोली ग्राम स्वराज मंडल में यात्रियों की सामाजिक कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट से मुलाक़ात भी हुई जिन्होंने चिपको के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में जानकारी दी.  

नीति घाटी के कोसा में यात्रियों को कॉमरेड गोविंद सिंह के बारे में भी जानने का मौक़ा मिला। वहाँ की महिलाओं ने जिस तरह पारम्परिक वेशभूषा में हमारा स्वागत किया वह भाव विभोर करने वाला क्षण था।

 

माहवारी से जुड़ी रूढ़ियाँ 

A girl of Uttarakhand

 

महिलाएँ पहाड़ की आर्थिकी और समाज की रीढ़ हैं। यात्रा के दौरान ज़्यादातर खेतों में काम करती, जंगल से लकड़ी और घास लाती और भेड़ों, गाय भैंसों को चराकर वापस लौटती महिलाओं के तमाम दृश्य देखकर यह बात मैं अब और पुख़्ता तौर पर कह सकता हूँ। यहाँ तक कि गाँव में महिला मंगल दल न होते तो कई जगह हमारे रात को ठहरने की व्यवस्थाएँ मुश्किल हो जाती। खाने-पीने की व्यवस्थाओं से लेकर रात के वक्त न्यौली जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक में महिलाओं की भागीदारी ही प्रमुखता से देखने को मिली।

इसके बावजूद इस तथ्य ने दुखी किया कि माहवारी जैसी समस्याओं के दिनों में महिलाओं को आज भी ‘अलग’ कर दिया जाता है। उन्हें रसोई में खाना बनाने की इजाज़त नहीं होती, कई जगह उनके कमरे तक अलग कर दिए जाते हैं। कुछ मामलों में ये कमरे बेहद छोटे, रोशनी विहीन और घुटन भरे होते हैं।

कुछ जगहों पर माहवारी के दौरान महिलाओं को गाय के गोठ में रखने तक की बात सामने आई। होकरा गाँव में एक व्यक्ति ने बताया “अगर हम ऐसा नहीं करते तो पूरे परिवार के चेहरे पर फोड़े फुंसियाँ उग आती हैं। और उन दिनों उनके हाथ का बना खाना खाने में पाप लगता है”। माहवारी के दिनों महिलाओं के नहाने और कपड़े धोने के लिए गाँवों में बाक़ायदा अलग से नौले बनाए गए हैं।

रामणी गाँव में ग्रामीण महिलाओं ने बताया कि उच्च हिमालय के इलाकों में कीड़ाजड़ी लेने गई महिलाओं को माहवारी हो जाने की स्थिति में वापस गाँव तक लौटा दिया जाता है। ऐसी हालत में लम्बे और दुरूह रास्ते में उनका क्या होगा इसकी परवाह पर पाप का डर हावी हो जाता है। 

 

जातिगत भेदभाव और एक अनूठा प्रयोग 

In uttarakhand village

 

भले ही एक यात्री के तौर पर ऊपरी दृष्टि से जातिभेद हमें नज़र न आया हो लेकिन ग्रामीणों से बात करते ही इसकी परतें ज़रूर उधड़ने लगती हैं। रगड़ी सांकरी नाम के एक गाँव के तथाकथित दलित वर्ग के ग्रामप्रधान से बात की तो उन्होंने बताया “गाँव में जाति भेद यहाँ तक है कि भगवती मंदिर में हमें जल तक नहीं चढ़ाने देते जबकि मंदिर हमारी ही बस्ती में है जिसे अम्बेडकर ग्रामसभा का दर्ज़ा मिला है। गाँव में दलित वर्ग के लिए नौला (पानी के पारम्परिक स्रोत) भी अलग है। सवर्ण अपने नौले में हमें नहीं जाने देते”।

उत्तराखंड में दलितों की बारातों को रोकने से लेकर, होली जैसे त्यौहारों में शामिल न होने देने सरीखे कई उदाहरण हैं जहां जातिभेद की गहरी जड़ों को आज भी देखा जा सकता है। 

हालांकि यात्रा के दौरान गढ़वाल के बूढाकेदार में हमें जातिभेद मिटाने के लिए हुए एक अनूठे प्रयोग के बारे में भी जानकारी मिली। करीब सत्तर साल पहले अलग-अलग जातियों से आने वाले धर्मानंद नौटियाल, भरपूर नगवान और बहादुर सिंह राणा ने तय किया कि वो सपरिवार एक ही घर में रहेंगे, एक ही चूल्हे का खाना खाएंगे. जातिभेद से बुरी तरह से ग्रसित उत्तराखंड में सहजीवन और सहभोज का यह प्रयोग काफ़ी चर्चा का विषय रहा जिसने जातिभेद मिटाने का सन्देश अनूठे अंदाज़ में दिया. हम उस घर में जाकर उनके परिवार के कुछ सदस्यों से भी मिले।  

होकरा में तब हम ठिठके जब एक ग्रामीण ने बताया कि इस गाँव में क़रीब पाँच मंदिर ऐसे हैं जिन्हें ख़ुदा पूजा का मंदिर कहा जाता है। “एक बार की बात हुई। गाँव के लोग पूजा कर रहे थे। तभी मुग़ल के सैनिक आए बल। उन्होंने कहा क्या कर रहे हो? तो गाँव वालों ने कह दिया ख़ुदा पूजा कर रहे हैं। तबसे इन्हें ख़ुदा पूजा ही कहा जाता है हमारे यहाँ। बहुत पुरानी कहानी ठैरी।”

एक बुजुर्गवार ने हमारे उत्सुकता ज़ाहिर करने पर बताया। उत्तराखंड में राजनीति का एक धड़ा जब वोटबैंक के लिए धर्म की राजनीति करने पर आमादा दिखता है और पुरौला जैसी घटनाएँ सामने आ रही हैं। हल्द्वानी के वनभूलपुरा में हुए दंगे अभी तक स्मृतियों में ख़ौफ़ पैदा करते हैं। ऐसे में दूरस्थ गांव में बने ख़ुदा पूजा के ये मंदिर हमारी सामासिक संस्कृति की एक अलग ही कहानी कहते हैं। 

 

और अंत में रह जाती है एक कसक 

An old lady in Uttarakhand

 

पलायन कर चुके बच्चों की बाट जोहती बूढ़ी अम्माओं की सूनी और नम आँखें देख एक कसक भी लगातार बनी रही। हर बार किसी के घर का मट्ठा पीते हुए यही लगा कि ये माएँ हममें अपने घर न लौटे बच्चों का अक्स देखकर तो यह प्यार नहीं लुटा रही? वरना वो हमें घर से किसी जेसीबी वाले के साथ भाग गई अपनी लड़की का दुःख क्यों साझा करने लगती? हाथ पैरों पर भिनभनाती मक्खियों को हटाने की नाकाम कोशिश करते वो क्यों बताती कि घुटनों में बड़े दिनों से बहुत तेज़ दर्द रहता है कि अब चला भी नहीं जाता? कि कब से बच्चे घर नहीं आए, नराई लगती है। 

Kilmodi wild berry

 

रास्ते भर हिसालू, किल्मोड़े, खुबानी, पुलम और जंगली क़ाफ़ल खाते हुए न जाने कितनी बार हम अपने बचपन की स्मृतियों में लौटे। और मानवीय हस्तक्षेप से दरकते हुए इन पहाड़ों को देखकर यही लगा कि पहाड़ की जड़ों से जुड़ने की नहीं बल्कि इनकी जड़ों को जुड़ा हुआ रहने देने ज़रूरत है वरना पहाड़ का तो कुछ नहीं होगा हम यकीनन टूट कर बिखर जाएँगे।  

आकाश में उड़ते वो हेलीकॉप्टर एक कर्कश शोर की याद भर रह जाएँगे और हमारे हिस्से बस एक अफ़सोस रह जाएगा कि  जब उनकी गर्द उड़ रही थी तब हमने अपनी आँखें फेर ली थी। 

 सभी तस्वीरें एवं लेख : उमेश पंत

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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