उत्तराखंड बाइक यात्रा के तीसरे हिस्सा यह रहा। दिल्ली से शुरू हुए उत्तराखंड के इस सफ़र को इस लिंक पर जाकर आप यात्राकार पर एक सीरीज़ के तौर पर पढ़ सकते हैं। इस भाग में हम बिनसर वाइल्डलाइफ़ सेंचुरी (Binsar wildlife sanctuary) पहुँचने की कहानी पढ़ेंगे।
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अल्मोड़ा से रवानगी
सुबह के करीब साड़े नौ बजे हम अल्मोड़ा से रवाना हुए। अब तक बिना नागा भागती बाइक को अब कुछ ईंधन की ज़रुरत आन पड़ी थी। हमने अल्मोड़ा में ही उसकी इस ज़रुरत को पूरा कर लिया। टैंक दूसरी बार फुल कराया जा चुका था। आज का हमारा अगला तय पड़ाव गंगोलीहाट था।
हम किसी जल्दबाजी में नहीं थे। अव्वल तो अल्मोड़ा से गंगालीहाट की दूरी तकरीबन 109 किलोमीटर थी, जिसे शाम तक बहुत रुकते-रुकाते भी पूरा किया जा सकता था और दूसरा अब दानिश को पहाड़ी सड़कों पर बाइक चलाने की भरपूर आदत हो चुकी थी।
हम धौलछीना में थे और वहां लगे एक बोर्ड और दो राहगीरों से मिली एक जानकारी ने हमारे आने वाले उस पूरे दिन की शक्ल को बदलकर रख दिया।
बिनसर वन्यजीव अभयारण्य (Binsar wildlife sanctuary) का रोमांचक सफर
बोर्ड में बाकी जगहों के साथ एक और नाम लिखा था- बिनसर। बिनसर में एक वन्यजीव अभयारण्य (wildlife sanctuary) है ये मैने बहुत पहले से सुना था और अपने जिस रिश्तेदार के यहां हम रात को ठहरे थे उन्होंने भी उसकी बहुत तारीफ की थी।
स्वाभाविक था हमने सोचा कि क्यों न बिनसर हो आया जाय। पास ही में मौजूद दो राहगीरों से हमने पूछा तो उन्होंने बताया कि पीछे लौटने पर करीब 3 किलोमीटर बाद एक कच्ची सड़क बिनसर की तरफ जाती है। वो रोड केवल 7 किलोमीटर तक कच्ची है उसके बाद बिनसर की दूरी महज 3 किलोमीटर है और सड़क एकदम मक्खन।
उनकी इस बात ने हमारे उत्साह को कई गुना बढ़ा दिया और हम अपनी बाइक घुमाकर बिनसर जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ गये। इस यू टर्न ने हमारे दिन को बड़े नकारात्मक तरीके से रोमांचक बना दिया।
उस कच्ची सड़क पर चले हुए अभी कुछ 2 किलोमीटर ही हुआ था कि हमें समझ आने लगा था कि कुछ तो गड़बड़ हो गई है। वो सड़क लगातार और खराब और संकरी होती जा रही थी। और हम एक ऐसे घने जंगल की तरफ बढ़ रहे थे जिन्हें वन्य जीवों और खासकर तेन्दुओं के संरक्षण की जिम्मेदारी सोंपी गई है। सड़क पर छोटे छोटे कंकड़ों की मौजूदगी लगातार बढ़ती जा रही थी। और उस एकदम एकांत जंगल में बढ़ते हुए हम लगातार कई आशंकाओं से भरे जा रहे थे।
सबसे बड़ी आशंका थी बाइक के पंक्चर हो जाने की। जिस तरह की सड़क थी उसपर कभी भी बाइक के पहिये जवाब दे सकते थे। और ऐसे में 160 किलो वज़न की बाइक को ठीक ठाक भारी बैग के साथ घसीटकर ले जाना अपने हिन्दी के सफर को अंग्रेज़ी के सफ़र में तब्दील कर देने से कम नहीं होता।
दूसरी आशंका ये कि इतने घने जंगल में किसी भी हिंसक जंगली जानवर का दिन में भी मौजूद होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी। खैर एक तरफ आशंकाओं की ज़मीन पुख्ता होती जा रही थी और दूसरी तरफ घने जंगल में बाइक की स्पीड 10 किलोमीटर के औसत से ज्यादा बढ़ नहीं पा रही थी।
करीब एक घंटे तक तकरीबन घिसटते हुए जाने के बाद बाइक का मीटर बता चुका था कि सात किलोमीटर हम पार कर चुके हैं लेकिन अच्छी सड़क की सम्भावना भी दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही थी। हमने उन अजनबी राहगीरों को भी कोसना शुरु कर दिया था जिनकी ग़लत जानकारी से खुश होकर हम बिनसर की तरफ बढ़ने का दुस्साहसी फैसला ले चुके थे। आना जाना मिलाकर जिस दूरी को हम 26 किलोमीटर का मानकर चले थे वो दरअसल उससे कई ज्यादा थी।
बिनसर वाइल्ड लाइफ़ सेंचुरी (Binsar wildlife sanctuary) पर व्लॉग आप यहाँ देख सकते हैं
करीब 12 किलोमीटर उस खराब सड़क पर चलने के बाद अचानक एक जगह पर वो सड़क मेन रोड पर मिल गई। कुछ दूर जाकर बिनसर की ओर कटने वाली सड़क भी आ गई। मेन गेट पर हमसे डेढ़-डेढ़ सौ रुपये का शुल्क लिया गया और यहां आकर एक और रहस्य खुला। बिनसर यहां से तीन किलोमीटर नहीं बल्कि 11 किलोमीटर और दूर था।
अब वापस लौटना कोई समझदारी नहीं थी। हमने सोचा कि आज बिनसर में ही रह लिया जाएगा। उम्मीद यही थी कि आगे सड़क अच्छी होगी क्योंकि बिनसर विदेशी सेलानियों में भी लोकप्रिय जगह है ये हमने सुना था। देसी लोगों के लिये ना सही विदेशियों के लिये तो उत्तराखंड के पर्यटन विभाग ने अच्छे बन्दोबस्त किये ही होंगे ये खुशफहमी हम यूं ही पाल बैठे थे।
दो तीन किलोमीटर अच्छी सड़क के बाद वो सड़क फिर से खराब हो गई। टूटी फूटी सड़क पर चलते हुए हम सोच रहे थे कि जो तीन सौ रुपये हम दोनों से वसूले गये क्या ऐसी सड़क पर चलने के लिये थे। खैर किसी तरह हम बिनसर के उस बिन्दु पर आ पहुंचे थे जहां तक सड़क जाती थी। यहां से हिमालय का नज़ारा उतना खूबसूरत नहीं था जितना हम रामगढ़ से पहले गागर नाम की जगह से यात्रा के दूसरे दिन ही देख चुके थे।
यहां कुमाऊँ मंडल विकास निगम का एक गेस्टहाउस था जो तकरीबन खाली पड़ा था। उसके रेट्स 2300 रुपये से शुरु होते थे। हमें 2300 रुपये देकर यहां ठहरना मुनासिब नहीं लगा। खाने में यहां भी हमें बस मैगी और चाय मिल पाया।
एक हल्की निराशा सी थी कि हमने यहां आकर एक गलत फैसला ले लिया था। 3 बज चुका था। उजाला रहते गंगोलीहाट पहुंच पाना अब मुनासिब नहीं था। और अंधेरे में बाइक से यात्रा करने का खतरा हम मोल लेना नहीं चाहते थे। हम एक सुरक्षित यात्रा चाहते थे।
बिनसर से बेरीनाग की तरफ़ वापसी
खैर वापस उस टूटे-फूटे रास्ते पर आते हुए हम सोच रहे थे कि धौलछीना में रुका जाये या सेराघाट में। ये दोनों ही विकल्प रहने के लिहाज से उतने अच्छे नहीं थे। धौलछीना पहुंचकर एक खयाल आया कि अपने रास्ते से थोड़ा सा हटकर बेरीनाग में रात बिताना सबसे मुफीद रहेगा।
वहां से सुबह-सुबह चौकोड़ी घूमने जाया जा सकता है। और दिन के वक्त गंगोलीहाट को निकलकर शाम तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। हम बेरीनाग (Berinag) की तरफ रवाना हो गये। धौलछीना से बेरीनाग की दूरी तकरीबन बासठ किलोमीटर थी और अभी हमारे पास रोशनी के लगभग ढ़ाई घंटे बांकी थे।
सेराघाट (Seraghat) में कुछ देर रुककर हमने अपने पैरों को आराम दिया। सरयू पुल से उस पहाड़ी घाटी में बहती शान्त सरयू नदी की रवानगी जैसे अब तक की थकान को मिटाने में मदद कर रही थी। सेराघाट से राईआगर पहुंचते-पहुंचते रोशनी अचानक कम होने लगी।
हम राईआगर पहुंचकर बेरीनाग की तरफ मुड़े ही थे कि अचानक मैं उत्साह में चीखा-रोको-रोको। हमारे बिल्कुल सामने हल्की नारंगी होती रोशनी के रंग में खुद को सोखते हुए हिमालय की एक बड़ी श्रृंखला खड़ी थी।
बिनसर की सारी निराशा शाम के रंग में बदल रहे हिमालय के इस नज़ारे ने जैसे खुद में कहीं जज़्ब कर ली थी। हिमालय अब हमारा हमसफर बन चुका था और हम उसके मुरीद।
बेरीनाग (Berinag) की शानदार शाम
अपने चाय बागानों के लिये मशहूर इस छोटे से पहाड़ी कस्बे बेरीनाग तक पहुंचते पहुंचते अंधेरा हो चुका था। करीब साड़े 6 बजे हम बेरीनाग में रहने का ठिकाना ढूंढ़ चुके थे। कमरे के ठीक सामने एक खुली छत थी और खुली छत के ठीक सामने दिख रहा था हिमालय का पूरा विस्तार जो फिलवक्त अंधेरे में गुम था।
हम इस बात से फूले नहीं समा रहे थे कि सुबह सूर्याेदय के समय सूरज जब हल्की-हल्की बर्फ से ढ़कीं इन पर्वत श्रृंखलाओं पर अपनी सुनहरी रोशनी बिखेरेगा तो वो नज़ारा कितना खूबसूरत होगा।
बेरीनाग आकर जो होता है अच्छे के लिये होता है, इस बात पर मेरा भरोसा कुछ और बढ़ गया था। मानसरोवर लंच एंड डिनर होम नाम के उस छोट से ढ़ाबे में स्वादिष्ट खाना खाकर हम होटल लौट आये। दिनभर की थकान नीद के आगोश में कहां गुम हो गई ये शायद बस उस सर्द रात को ही पता था।
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