केदारकांठा, उत्तराखंड (Kedarkantha trek) के सबसे लोकप्रिय ट्रेकिंग की जगहों में से एक है। बर्फ़ीले रास्ते, जमी हुई झील के किनारे रात को कैम्पिंग, 12500 फ़ीट की ऊंचाई से हिमालय के दीदार, उत्तराखंड में केदारकांठा के इस एक ट्रैक में आपको सारे अनुभव मिलेंगे.
आज से कुछ साल पहले मैंने केदारकांठा का ट्रेक किया और यह मेरे जीवन की सबसे खूबसूरत यात्राओं में शुमार हो गया। इस ब्लॉग में मैं आपको बताऊँगा कि केदारकांठा की अपनी यात्रा का क़िस्सा और आप जानेंगे कि केदारकांठा कहाँ है और क्या है केदारकांठा की कहानी।
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केदारकांठा ट्रेक का प्लान ऐसे बना (How to plan Kedarkantha trek)
साल निकलने को था और साल के निकलने से पहले मुझे भी निकलना था। दिमाग़ में जो धूल जम रही थी उसे दूर पहाड़ों में जमी बर्फ़ के साथ पिघलते हुए धो डालने का मन था। बर्फ़। ये लफ़्ज़ सुनते ही अचानक जैसे ज़हन भी साफ़-सुथरा सा हो जाता है।
पर कई बार सुनना भर काफ़ी नहीं होता। मिलने में जो बात होती है वो मिलने के ख़याल में नहीं होती। दफ़्तर से पाँच दिनों की छुट्टी पहले ही ले ली थी। पर छुट्टी शुरू होने के दिन तक भी कोई प्लान फ़ाइनल नहीं हो पाया था। जाना है ये तय था। पर कहाँ जाना है ये तय करना अभी बाक़ी था।
आज ही नई यात्रा की मंज़िल तय होनी थी और आज ही निकलना था। यात्रा के पुराने साथी दानिश और रोहित दोनों ही अपनी-अपनी जगह व्यस्त थे और ऊँचे पहाड़ों पर अकेले निकल पड़ना बहुत समझदारी भरा नहीं होता ये पिछले अनुभव बता चुके थे।
तभी अचानक लखनऊ की एक शाम की याद चली आई और अपने साथ परेशानी का हल भी ले आई। उस शाम मैं और दीपांकर एक कमरे में बैठे यात्रा के अपने क़िस्सों को एक-दूसरे को बता रहे थे और दीपांकर ने बताया था कि वो ट्रेवल से जुड़ा कोई काम शुरू करने जा रहे हैं।
मसूरी में रहने के नाते दीपांकर को पहाड़ों से प्यार था और पहाड़ के भूगोल की जानकारी भी। “आगे ट्रेकिंग का ही काम करना है” दीपांकर ने कहा था।
यहां दिल्ली में बैठे लखनऊ की याद के सहारे मसूरी में बैठे उस शख़्स को फ़ोन लगाया। “घूमने जाना है, आज ही।” इतना कहना काफ़ी था। “मसूरी आ जाओ उमेश जी, सारा इंतज़ाम हो जाएगा। बस कपड़े रख लेना”।
बस इतना सुनना काफ़ी था। तुरंत भारतीय रेलवे की शरण में जाना हुआ और इस बार निराशा हाथ नहीं लगी। रात के 11 बजे की नंदा देवी एक्सप्रेस में रिज़र्वेशन हो चुका था। तत्काल।
केदारकांठा यात्रा का पहला दिन : दिल्ली से देहरादून (kedarkantha trek Day 1 : Delhi to Dehradun))
रोचक रही दिल्ली से देहरादून की रेल यात्रा
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन जाते हुए मेट्रो में मेरे ठीक बग़ल में एक शख़्स अपने हाथ में एक किताब निकालकर बैठा था। सिविल इंजीनियरिंग की उस किताब में जो पहला पन्ना उसने खोला उसका शीर्षक था – “बॉंड स्ट्रेस”।
ये शब्द सुनते ही मुझे लगा कि दिल्ली आकर रहने वाले हर शख़्स की ज़िंदगी यही तो है “बॉंड स्ट्रेस”। ख़ैर सिविल इंजीनियरिंग की किताब में इस टर्म का वो मतलब कतई नहीं था जो मैं निकाल रहा था।
यूँ भी चीज़ों के मतलब अपने मन से निकाल लेने से ज़िंदगी की ज़्यादातर समस्याएँ शुरू होती हैं। हम ख़ुद मतलब निकालते हैं और उन मतलबों से पैदा हुई उलझनों में फँसकर रह जाते हैं।
स्टेशन पहुँचकर पता चला कि कोच की एकदम आख़री सीट मुझे मिली है। मैं इस बात का कोई मतलब निकालता इससे पहले ही एक नज़ारा सामने था। अपर बर्थ पर चढ़ती हुई एक महिला अपने पति पर झल्ला रही थी।
“यही सीट मिली थी तुम्हें, नीचे वाली नहीं ले सकते थे। तभी मैं कहूँ आज इतनी आसानी से मिल कैसे गई सीट। एक अच्छी सीट भी नहीं ढूँढ सकते थे। कैसे बैठूँगी ऊपर। ये देखो यहाँ तो सीधे बैठने की जगह तक नहीं है।”
पत्नी जब तक अपर बर्थ पर चढ़ नहीं गई तब तक बोलती रही। पति हां हूं करता रहा। जैसे समझदारी का परचम लहराने का ज़िम्मा उसे पत्नी ने पहले ही सोंप दिया हो। पत्नी किसी तरह ट्रेन की ऊपरी बर्थ में चढ़कर बैठने में कामयाब हुई। और ट्रेन के निकलने का वक़्त भी आ पहुँचा।
“जल्दी जाओ फिर अब, देर हो जाएगी तो मेट्रो कहाँ मिलेगी। ढंग से जाना।” पति फिर परचम लहराता रहा और ट्रेन के निकलने से पहले हां-हूं की परम्परा को क़ायम रखता हुआ निकल लिया। ट्रेन चल पड़ी। पत्नी को पैर पसारकर लेटने और फिर सोने में बहुत समय नहीं लगा। ट्रेन अगले सात घंटे में देहरादून में थी।
केदारकांठा यात्रा का दूसरा दिन : देहरादून से सांकरी (Kedarkantha trek Day 2 : Dehradun to Sankri)
उत्तराखंड रोडवेज़ की बस ने पहुँचाया मसूरी
उत्तराखंड परिवहन की बस से सुबह के नौ बजे के क़रीब मैं देहरादून से लहरदार सड़कों से गुज़रते मसूरी पहुँच चुका था। दीपांकर ने अपनी कार से मुझे पिक किया। उनके घर पहुँचे तो पता चला कि जाने का सारा इंतज़ाम हो चुका है।
स्लीपिंग बैग, टैंट, खाने का सामान सबकुछ अगले एक घंटे में रकसैक में समा चुका था। नाश्ता करके हम दीपांकर के दोस्त सरब की थार लेकर मसूरी से आगे बढ़ गए। शाम तक हमें सांकरी पहुँचना था।
गढ़वाल में बसे इस छोटे से गाँव से जन्नत के कई सारे दरवाज़े खुलते हैं। कौरी पास, हर की दून और केदारकांठा (Kedarkantha trek) जैसे ख़ूबसूरत जैसे ख़ूबसूरत ट्रेक्स यहीं से शुरू होते हैं।
मसूरी से सांकरी के पहाड़ी सफ़र में टोंस नदी से मुलाकात
हम यमुना नदी के किनारे-किनारे जाती सड़क से आगे बढ़ रहे थे। मसूरी के एकदम पास एक जगह रुककर दीपांकर ने मुझे केदारनाथ, नागटिब्बा, सरस्वती रेंज और बंदरपूँछ की पहाड़ी रेंज दिखाई। नदी किनारे हम आगे बढ़ते रहे।
गाड़ी के म्यूज़िक सिस्टम पर ‘बेडु पाको बार मासा’ बज रहा था और पहाड़ की तलहटी पर यमुना का पानी बह रहा था। यमुना के दूसरी ओर जौनसार का इलाक़ा था जो महिलाओं के ख़ूबसूरत नैन-नक़्श और ओझाओं के जादू-टोने के लिए जाना जाता है।
तिउनी से यमुना की जगह टोंस नदी ले लेती हैं। बातों-बातों में पता चला कि टोंस नदी रूपिन और सुपिन नदियों से मिलकर बनी है। पिछले साल इस इलाक़े में मैं अपने दोस्त दानिश के साथ बाइक पर आया था। इस जगह हम बिना किसी योजना के भटकते हुए आ पहुँचे थे।
और पुरौला (Puraula) और तिउनी (Tiuni) के आस-पास की इस वैली ने हमारा दिल ख़ुश कर दिया था। एक ख़ूबूसूरत पहाड़ी वैली जहाँ कई किलोमीटर तक एकदम सीधी सड़क है। और सड़क किनारे बड़ी शांति से बहती एक साफ़-सुथरी पहाड़ी नदी।
खुदाई में निकले लाखा मंडल के प्राचीन मंदिरों के दर्शन
रास्ते में एक जगह रुककर हम एक मंदिर में गए। पता चला कि ये इलाक़ा लाख़ामंडल नाम से मशहूर है। हाल ही में हुई खुदाई में यहां कई मूर्तियाँ और शिव लिंग मिले। जंगलों के बीच बना ये मंदिर एकदम रहस्यमय लगता है। काले पत्थरों के बने इस मंदिर की बनावट और नक़्क़ाशी एक बार आपका ध्यान ज़रूर खींचती है।
दीपांकर ने एक रोचक जानकारी ये भी दी कि पास ही नेटवार नाम की एक जगह पड़ती है जिससे पहले कर्ण की पूजा होती है। और नेटवार से ऊपर के इलाक़ों में दुर्योधन की पूजा की जाती है। इन जानकारियों ने इस जगह के रहस्य को थोड़ा और बढ़ा दिया।
तिउनी के फ़ॉरेस्ट रिज़र्व से सांकरी की रोमांचक यात्रा
तिउनी से आगे गोविंद बल्लभ पंत वन्य अभयारण्य की एक चौकी आती है यहां बाहर से आने वाले लोगों को एंट्री करानी होती है। यहां मौजूद सिपाही ने बताया कि हम 2500 मीटर की ऊँचाई से ऊपर नहीं जा सकते। हाल ही में केदारकाँठा (Kedarkantha) के पास के पहाड़ों में दो मज़दूरों की एक एवलोंच की चपेट में आने से मौत हो गई थी।
इस वजह से सरकार ने ये पाबंदी लगा दी है। 2500 मीटर मतलब वो उससे भी कम ऊँचाई जहाँ हम कल अपना टैंट लगाने वाले थे। और हमें जाना था क़रीब 4500 मीटर की ऊँचाई तक। ये फ़रमान एक एहतियात बरतने की फ़ोरमेलिटी भर हो हमारी यही उम्मीद थी। बंदिशों के शहर को छोड़कर हम आए ही ऊँचाइयों को छूने थे।
रात के आठ बजे के क़रीब हम सांकरी पहुँचे और वहाँ पहुँचकर गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस में हमें सोने की जगह मिल गई। सरब, मनोज और दीपांकर ने सुबह के लिए रकसैक में ज़रूरी सामान को व्यवस्थित किया। तीनों के बैग एकदम भारी लग रहे थे।
मुझे लग रहा था कि इतने भारी बैग उठाकर भला ये लोग चढ़ेंगे कैसे। पर असुविधाओं का ये बोझ अपने कंधों पर उठाए बिना एक सुविधाजनक यात्रा की भी नहीं जा सकती।
केदारकांठा यात्रा का तीसरा दिन : सांकरी से जूड़ा का ताल (Kedarkantha trek Day 3 : Sankri to Juda ka taal)
सांकरी से जूड़ा का ताल का ट्रैक (Sankri to Juda ka taal : Kedarkantha trek)
यात्रा के तीसरे दिन सुबह-सुबह नाश्ता करने के बाद हम अपने-अपने बैग लिए सांकरी से ऊपर चल पड़े थे। यहां से दूर केदारकांठा के आस-पास की चोटियाँ दिखाई दे रही थी। एकदम शुरू में ही एकदम तीखी चढ़ाई थी
और केदारकाँठा (Kedarkantha trek) तक क़रीब दस किलोमीटर हमें ऐसी ही चढ़ाई चढ़नी थी। मौसम में सिहरन थी और शरीर में पसीना। धूप बढ़िया खिली थी। हमारी यात्रा के लिए एकदम मुफ़ीद।
क़रीब दो किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद हमारी पहली मुलाक़ात बर्फ़ से हो चुकी थी। यहां बने एक ढाबे में हमने चाय पी। हमारे ही जैसे कई और यात्री यहां सुस्ता रहे थे। और स्थानीय महिला और पुरुष काली पौलीथीन और लकड़ी के इस्तेमाल से बने अपने-अपने इन दो छोटे-छोटे नुक्कड़ों पर ब्रेड औमलेट, मैगी और चाय के सहारे थके हुए यात्रियों को सुकून बेच रहे थे।
एक छोटा सा भोटिया पिल्ला अपने पंजों से ज़मीन पर घास के साथ इत्मिनान से लेटी बर्फ़ को अपने पैरों से गुदगुदा रहा था। और कई चेहरे इसे देखकर मुस्कुरा रहे थे।
गरम जैकेट, महँगे चश्मे, पैरों में ब्रांडेड हाइकिंग शूज़ और चेहरे, ज़बानों पर अपना-अपना शहर लिए लोग पहाड़ों पर हांफ़ने चले आए थे। यात्रा का एक भरा पूरा बाज़ार लोगों के बदन पर सिमटा हुआ जैसे शहरों से पलायन करके यहां इन पहाड़ों पर चला आया हो। ‘बेस्ट ऑफ़ लक’।
ऊँचाइयों को छूँ आए यात्री ऊँचाइयों को छूने चले जा रहे यात्रियों को जब ये बोलते तो ऐसा लगता जैसे वो दूसरों के बहाने ख़ुद को ‘बेस्ट ऑफ़ लक’ बोल रहे हों। शहर की ओर लौटते इन राहगीरों को इसकी ज़्यादा ज़रूरत थी, ये शायद वो ख़ुद भी जानते थे।
जूड़ा का ताल में फ़्रोजन लेक के किनारे नाइट कैम्पिंग (Night camping in Juda ka taal : Kedarkantha trek)
दिन के क़रीब दो बजे बर्फ़ पर अपने क़दमों को फिसलने से बचाते-बचाते हम जूड़ा के ताल पर आ पहुँचे थे। इस जगह हमें आज रुकना था। रात को टैंट में सोना था। जंगल से लकड़ियाँ इकट्ठा करके आग जलानी थी। उस आग पर खाना बनाना था।
ठंड से जमी हुई और बर्फ़ से घिरी हुई एक ताल के किनारे एक ऐसी रात गुज़ारने के ख़याल भर से मिली गरमाहट ने आस-पास बिखरी ठंड को ख़ुद में जज़्ब कर लिया था।
अँधेरा घिरते-घिरते मनोज और दीपांकर खाना तैयार कर चुके थे। आस-पास के टेंटों से लड़कों और लड़कियों के गाने-खिलखिलाने की आवाज़ बर्फ़ से पटी उस वादी में बिखर रही थी।
और यहां हमारे टेंट में फ़ोन और स्पीकर के सहारे एम सी फ़्योती से लेकर लकी अली तक और ए आर रहमान से लेकर अरिजित सिंह तक आपनी-अपनी आवाज़ रात के नशे में डुबा रहे थे। यहां इन आवाज़ों की खनक कुछ और बढ़ गई थी। रात कुछ और गहरी हो गई थी। ठंड कुछ और बढ़ गई थी।
हमारे साथी मनोज ने बताया था कि बिच्छू घास जिसे स्थानीय भाषा में कंदाली कहा जाता है वो सर्दियों में शरीर को गरम रखने के बहुत काम आती है। मनोज उसका पेस्ट बनाकर अपने साथ लाए थे। और उसका सूप बनाकर उन्होंने हम सब को पिलाया था।
ये सूप रात भर हमें गर्म रखता रहा। मनोज और सरब को तो ये सूप पीकर इतनी गर्मी लग गई कि वो रात को स्लीपिंग बैग से बाहर निकल आए।
केदारकांठा यात्रा का चौथा दिन : जूड़ा का ताल से केदारकांठा समिट (Kedar Kantha trek day 4: Summit)
12500 फ़ीट की ऊंचाई से मिला ऐसा अद्भुत नज़ारा (Juda ka taal)
अगली सुबह दीपांकर ने अपनी नयी नयी फेंसी ट्रेवल वाच में देखकर बताया कि बाहर का तापमान इस वक़्त सात डिग्री सेल्सियस है जबकि रात के वक़्त टेंट के अंदर का तापमान 32 डिग्री सेल्सियस था। चार लोग एक टेंट में थे शायद इसलिए टेंट की भीतर अच्छी ख़ासी गर्मी रही होगी।
रात को मौसम घिरा हुआ था, आसमान में बादल चले आए थे शायद इसलिए पाला नहीं पड़ा और इसी वजह से बाहर भी ठंड जितनी हो सकती थी उससे कम रही। ख़ैर ये नयी सुबह फिर एक ख़ुशनुमा सुबह थी। हमें थोड़ी ही देर में केदारकाँटा की तरफ़ बढ़ना था।
आज अच्छा ये था कि हमारे रकसैक हमें अपने साथ नहीं ले जाने थे इसलिए हमारा बोझ काफ़ी कम हो गया था। यूँ भी जिस ऊँचाई पर हमें बढ़ना था वहाँ शरीर का बोझ ही बहुत ज़्यादा लगने लगता है।
जूड़ा का ताल की फ़्रोज़न लेक के सामने नाश्ता और यात्रा शुरू
रात के बचे चावल चूल्हे पर फ़्राई किए गए और उसका नाश्ता करके हम आगे बढ़ गए। कपड़े बड़ी सोच-समझकर इस्तेमाल करने थे। चलते हुए शरीर में अच्छी ख़ासी गर्मी होती है इसलिए ज़्यादा गरम कपड़े रात के लिए बचाकर रखना समझदारी का काम था।
बर्फ़ गिरने की सम्भावना भी थी। जैसे ही हम अपनी कैम्प साइट से क़रीब एक किलोमीटर आगे बढ़े हमें समझ आ चुका था कि आगे का ट्रेक कितना ख़ूबसूरत होने वाला है। दूर-दूर तक बिखरी हुई बर्फ़ और उसके बीच से गुजरता हुआ रास्ता।
बर्फ़ पर चलने के लिए जूतों की अच्छी ग्रिप होना बहुत ज़रूरी होता है। वरना एक बार फिसलकर गिरे तो पूरी यात्रा का मज़ा ख़राब हो जाता है। ऐसी यात्राओं पर सावधानी और ज़िम्मेदारी से चलना बहुत अहम हो जाता है। आपकी एक ग़लती साथियों की यात्रा भी बेमज़ा हो सकती है।
जूड़ा के ताल से आगे क़रीब अब रास्ते भर में बर्फ़ ही बर्फ़ थी। रास्ते में कई जगह ऊँचे-ऊँचे पेड़ बर्फ़ से कमज़ोर होकर गिर पड़े थे। रास्ता कई जग बहुत संकरा था। कई जग बर्फ़ इतनी ताज़ा थी कि पैर टखने तक बर्फ़ में धंस रहा था। और कई जगह की बर्फ़ इतनी सख़्त थी कि पैर फिसल रहे थे। हर क़दम पर एक नई चुनौती और हर चुनौती का अपना अलग मज़ा।
अल्टिट्यूड अब तेज़ी से बढ़ रहा था। एकदम स्टीप चढ़ाई चढ़ते हुए क़रीब चार किलोमीटर के रास्ते पर हमें दो हज़ार मीटर और ऊपर चढ़ जाना था। अब थोड़ा थोड़ा चलकर ही साँस फूलने लगी थी। ऑक्सीज़न की कमी को फेफड़े महसूस करने लगे थे।
कुछ ही देर में केदारकांठा की चट्टान हमें अपनी आँखों के एकदम सामने दिखाई देने लगी। चट्टान की ठीक नीचे एक ढाबा था जहाँ बैठकर हमने चाय पी। और कुछ देर सुस्ताकर हम केदारकांठा की चोटी पर समिट करने के लिए आगे बढ़ गए।
जैसे जैसे हम चोटी के क़रीब पहुँच रहे थे हम ख़ुद को बादलों के और नज़दीक महसूस कर रहे थे। आसमान का रंग और गहरा नीला होता जा रहा था। ऊँची-ऊँची चोटियाँ हमारे चारों ओर खड़ी मुस्कुरा रही थी।
केदारकांठा समिट से हिमालय के नज़ारे (Kedarkantha trek summit)
अब हम केदारकांठा (Kedarkantha trek) की चोटी पर खड़े थे। ऊँची चोटियों से लेकर गहरी घाटियों तक यहां से सबकुछ नुमाया हो रहा था।
हम इस वक़्त केदारकांठा समिट (Kedarkantha Summit) कर चुके थे. 12500 फ़ीट की इस दुरूह ऊंचाई से चारों ओर का खुला विस्तार दिखाई दे रहा था. इस विस्तार की पृष्ठभूमि में थी उच्च हिमालय की विशाल पर्वत शृंखला.
ये स्वर्गारोहिणी, बंदरपूँछ और काला नाग जैसी ऊंची चोटियां थी. पहाड़ी घाटियों से गुज़रती यमुना नदी भी नज़र आ रही थी, जिसके किनारे-किनारे बनी सड़क से हम सांकरी तक आए थे।
ये ठीक वैसा ही था जैसे आप उस ज़िंदगी को बहुत ऊपर से देख रहे हों जिसे आप जीकर आए हों। यात्राएँ आपको अपनी ज़िंदगी को सम्पूर्णता में देख पाने की नज़र देती हैं। आपकी सारी थकान और मेहनत का हासिल यही होता है शायद।
3 Comments
Dr. Brajesh Kumar Pandey
(January 1, 2018 - 11:12 pm)शानदारǃ
हिमालय तो खूबसूरत है ही। लेकिन इस खूबसूरती को बताने वाला या तो कैमरा होता है या फिर इसे शब्दों में पिरोने वाला शब्दकार।
यात्रा करना एक बात है और उसे जीना दूसरी। यात्रा को जीकर अगर उसे कोई शब्दों में ढाल दे तो फिर वही है यात्राकार।
बहुत बहुत बधाई उमेश पंत जी “इनरलाइन पास” के रचनाकार।
बहुत अच्छा मंच। बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
Sunil nerkar
(December 3, 2019 - 7:27 pm)Excellent ?
Sunil nerkar
(December 3, 2019 - 7:27 pm)Fantastic