Monastery in Tawang

हिमाचल यात्रा : किस्से ओढ़े बैठी बगल की खाली सीट

रोहित जोशी एक घुमक्कड़ पत्रकार हैं. बीबीसी, डॉयचे वेले, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, इंडिया टीवी जैसे मीडिया संस्थानों में काम कर चुके रोहित मन से एक यात्री हैं और शौक से एक पेंटर भी. काम के सिलसिले में जर्मनी से लेकर दिल्ली तक घूमते ज़रूर रहे हैं लेकिन पहाड़ के आदमी हैं,  इसलिए टिकते वहीं जाकर हैं. इन दिनों उत्तराखंड से स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं. हाल ही में वो हिमाचल प्रदेश की एक रोचक यात्रा से लौटे हैं. यात्राकार पर पेश हैं कई किश्तों में लिखी जा रही उनकी यात्रागोई की पहली किश्त. 
 
सुबह के सवा छ: बजे रोहड़ू (हिमाचल) बस अड्डे से देहरादून के लिए गाड़ी छूटनी थी और जब होटल हमने छोड़ा तो 6 बजकर 3 मिनट हो चुके थे. सीधे रास्ते अगर स्टेशन पहुंचने की कोशिश करते तो शायद बस छूट जाती क्योंकि पब्बर नदी पर बने पुल को पार कर घूमते हुए अगर हम उस लंबे रास्ते को चुनते तो वह कम से कम 15 मिनट का रास्ता तो था ही. ऐसे में हमने शॉर्ट रास्ता लिया. सड़क से सीधे नीचे की ओर एक बेतरतीब पगडंडी में उतरते गए. हालांकि सामान हमारे पास काफी था, ऐसे में इस बेतरतीब रास्ते पर चलना कठिन था. लेकिन यह रास्ता सीधे उस लिंक रोड से जा मिलता था जहां से पब्बर नदी के उस पार बने बस अड्डे से निकलने वाली बसें बाहर निकलती थीं. ऐसे में एक गुंजाइश और बढ़ जानी थी कि अगर बस अड्डे से बस छूट भी गई तो हम रास्ते में इसे पकड़ लेंगे.
 
किसी तरह हम सीढ़ीदार खेतों से नीचे उतरती इस संकरी पगडंडी से होते, बस अड्डे की ओर बढ़ रही लिंक रोड पर पहुंचे. यह सड़क अभी कच्ची है और नदी पर बना इसका पुल भी निर्माणाधीन ही है. इसी से होते हम समय रहते उत्तराखंड परिवहन की उस बस पर जा पहुंचे जिसके साथ हमें आगे का सफ़र करना था.
 
कंडक्टर ने इशारे से बताया, ”यहां बैठ जाइए. सूटकेस भी सीट के बग़ल में ही लिटा दीजिए.” यह ड्राइवर के ठीक पीछे की थ्री सीटर सीट थी जिसमें खिड़की की ओर पहले से ही ड्राइवर की पहचान के एक उम्रदराज़ व्यक्ति बैठे हुए थे. शेष दो सीटों में जाकर हमें बैठ जाना था. अपना सूटकेस मैंने सीट से सटा कर लिटा दिया. शालिनी (मेरे इस सफ़र और ज़िंदगी की हमसफ़र) बीच में जा बैठी और मैं किनारे पर. सीट का हत्था एकदम ढीला था और इसके ठीक बांई ओर था बस का दरवाज़ा.
 
यहां मैंने एक बात नोटिस की कि बीते दौर में मेरी यात्राएं तो ख़ूब हुई हैं, लेकिन रोडवेज़ की सामान्य बस (नॉन एसी) में इस तरह की पहाड़ी यात्रा किए हुए एक लम्बा अरसा बीत गया है. यानि जाने अनजाने लोगों के साथ सामूहिक सफ़र की कई मुलाक़ातों से, कई क़िस्सों कई कहानियों से मैं महरुम रहा हूं.
 
बसअड्डे से बस निकल चुकी थी और उबड़-खाबड़ लिंक रोड से होती हुई कुछ ही देर में मुख्य सकड़ पर पहुंच गई. मैंने सीट के ढीले हत्थे पर अपनी कोहनी टिकाई हुई थी लेकिन जैसे ही बस ने रफ़्तार पकड़ी और पहला दाहिना मोड़ काटा तो मैं झूलता हुआ बांई ओर गिरने लगा जहां बस का दरवाज़ा था. सीट के इस जर्जर हत्थे के सहारे किसी तरह मैंने ख़ुद पर क़ाबू किया और फिर सीट के ठीक ऊपर लगे लगेज़ कैरियर की रॉड पकड़ ली, लेकिन समझ आ गया कि इस सीट पर बैठ कर यह लंबी पहाड़ी यात्रा नहीं की जा सकती. दो-एक मोड़ और काटने के बाद मैंने तय किया कि पीछे बैठना होगा. कंडक्टर ने मेरी दुविधा को भांपकर मुझे आॅफर किया, ”पीछे बैठ जाइए भाईसाहब!” क्योंकि बस अभी-अभी चली थी तो वहां कुछ सीटें खाली थी. हमने फिर एक थ्री सीटर चुनी जिसमें हम दोनों के बाद एक सीट खाली रह गई.
 
यह खाली सीट ही इस सफ़र का सार बनी. यह सीट ही थी जिसे इतने समय से सार्वजनिक बसों में यात्रा ना कर मैंने मिस किया था. यह सीट एकदम अनौखे क़िस्सों, अद्भुत् कहानियों, और क़ीमती अनुभवों को ख़ुद में समाए हुए थी. इसके पास रोज़मर्रा की ज़िंदगी के क़िस्से थे, कुछ बेहद आम और कुछ बेहद ख़ास. यह ‘बोधि वृक्ष’ की तर्ज पर ‘बोधि सीट’ थी जिसके किनारे बैठकर ज़िंदगी के कई दर्शन आपके लिए खुल जाते हैं. जितने लोग इस सीट के बहाने आपके हमसफ़र बनते चलते हैं आप उनके अपने-अपने जीवनों, अपने-अपने अनुभवों से ऐसी कई दुनियाओं से वाक़िफ़ होते रहते हैं जिनसे आप अब तक एकदम अनभिज्ञ थे.
 
…….
 
बीती रात तकरीबन 10 बजे जब हम रोहड़ू पहुंचे इस शहर से मेरा पहला परिचय हुआ. मैंने इसका नाम भी एक दिन पहले ही गूगल मैप पर पढ़ा था, जिसके बारे में मनमीत (रोहड़ू तक मनमीत और लक्ष्मी भी अपनी कार के साथ हमारे इस सफ़र के साथी थे.) ने मुझे बताया कि वह इस शहर में पहले जा चुका है. काल्पा, रिकॉंगपियो (किन्नौर) से लौटते हुए रामपुर के बाद हमने एक ऐसी संकरी सड़क चुन ली थी जो ग़ज़ब के घने जंगलों के बीच से गुजरती थी. बरसात के इस ढलते मौसम में हरियाली से लकदक एकदम खड़े पहाड़ों से गुजरता यह रास्ता जादूई था. घाटी वाले गर्म इलाक़े से चढ़ते हुए इस एक ही पहाड़ में ऊपर देखने पर बांज और उससे ऊपर देवदार के गहरे हरे पेड़ दिखाई पड़ते थे जिसमें फंसे हुए झक्क सफ़ेद बादल जादूई कंट्रास्ट रच रहे थे. इस नज़ारे को देख बरबस ही मेरे मुँह से ”अद्भुत् है यार यह जंगल तो” निकला जा रहा था.
 
क्योंकि इस ढलती शाम और अंजान रास्ते में अभी हमें लंबा सफ़र तय करना था सो, बेहद मन होते हुए भी गाड़ी रोककर इन नज़ारों को देखने का आग्रह करना मुश्किल था. लेकिन फिर भी कुछ देर में मैंने मनमीत को कहा गाड़ी रोको. इससे मेरे दो काम सधने थे. पहला, कुछ देर पहले लंच के साथ गटकी एक बीयर, (नहीं.. सॉरी.. वह एक नहीं थी, बल्कि 2/3 थी), असर करने लगी थी और मूत्राशय में प्रेशर बढ़ गया था. दूसरा, अपलक निहारे जा सकने वाले इस ख़ूबसूरत जंगल के नज़ारों को ज़रा तसल्ली से देखने की मोहलत मिल जाती। इस सिंगल लेन, संकरी सड़क में जगह देखते हुए मनमीत ने गाड़ी बाईं ओर दबा ली. मैंने जल्दी से दोनों काम किए और गाड़ी फिर चल पड़ी.
 
अंधेरा गहराने लगा था और नज़ारे उसकी ओट में जा छिपे. जो अब दिखता था वह बस उतना था जिस पर हमारी कार की हेडलाइट रोशनी डाल पा रही थी. हमने अभी आधा रास्ता भी पार नहीं किया था लेकिन पता चला यह सड़क आगे कच्ची है और बरसात के इस मौसम में यह सड़क बुरी तरह कीचड़ और गड्ढों से भर गई थी.
 
जारी..

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रोहित जोशी

रोहित पत्रकार हैं। बीबीसी, डोइचे वेले, इंडिया टीवी जैसे मीडिया संस्थानों के साथ काम करने के बाद अब पहाड़ों पर जा बसे हैं। उत्तराखंड में घूम-फिर रहे हैं और स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं। मिज़ाज से घुमक्कड़ हैं इसलिए पैर एक जगह नहीं टिकते।

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