आदि कैलाश यात्रा (Aadi Kailash Yatra) का यह वृत्तांत उमेश पंत के यात्रावृत्तांत ‘इनरलाइन पास’ का एक अंश है. पूरा यात्रा वृत्तांत पढ़ने के लिए किताब यहां से मंगा सकते हैं.
हम उत्तराखंड के धारचूला से गुंजी होते हुए पिछली रात ही ज्योलिंगकोंग पहुंचे थे. क़रीब 16 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर मौजूद यह इलाका ‘छोटा कैलास’ के नाम से मशहूर आदि कैलास के दर्शन के लिए आख़री पड़ाव है.
इससे पहले हम गुंजी से होते हुए ओम पर्वत की यात्रा करके आ चुके थे. गुंजी से ‘कुटी यांक्ती घाटी‘ होते हुए मैं और मेरा दोस्त रोहित आदि कैलास (Aadi Kailash Yatra) के करीब पहुंचे थे. यह हमारी यात्रा का ग्यारहवाँ दिन था.
ज्योलिंगकोंग की सुबह (Aadi Kailash Yatra : Jolingkong)
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सुबह उठते हुए कुछ देर हो गई. साढ़े सात बज चुका था.
“अरे आप लोग उठे नहीं अभी.. आदि कैलास तो सुबह सुबह ज़्यादा अच्छा लगता है..”
चाय लेकर आये उस शख्स ने ज़ोर से कहा तो हमारी नींद खुली. बिस्तर पे लेटे-लेटे ही हमने चाय पी. उनीदी आंखों से उस छोटी सी शीशे की खिड़की के बाहर देखा और सब कुछ जगमगाता सा लगा.
जल्दी से चाय पीकर बाहर गए. बाहर काफी ठण्ड थी लेकिन आंखें चौधिया रही थी. चारों ओर बर्फ से ढके पहाड़ थे और उन पहाड़ों के बीच मैदान सी जगह में हमारा ये बंकर था.
कल शाम जब यहां पहुचे तो अंधेरा था इसलिए आस-पास का नज़ारा एकदम साफ़ दिख नहीं रहा था. लेकिन अभी जब सूरज ने अपने रंग बिखेरे तो ये नज़ारा जैसे एकदम बदल गया हो. लगता था कि रात के अँधेरे के छंटते ही सारे पहाड़ एकदम नए सफ़ेद कपड़े पहनकर आस-पास खड़े बातें कर रहे हों. तेज़ चलती हवा की सरसराहट ही जैसे उनकी आवाज़ हो.
हम अगले आधे घंटे में तरो-ताज़ा हुए और अपने कैमरे लेकर निकल पड़े. गेस्ट हाउस के कर्मचारियों ने बता दिया कि यहां से मुश्किल से तीन किलोमीटर चलकर पार्वती सरोवर है और आदि कैलास तो बस अगले कुछ चार सौ मीटर बाद ही पूरी तरह नज़र आने लगा. उसका कुछ हिस्सा गेस्ट हाउस से भी दिखाई दे रहा था.
जैसे ही हमने चलना शुरू किया वायुमंडल का दबाव सर में महसूस होने लगा था. ओक्सीज़न की कमी एकदम साफ़ पता चल रही थी. एक-एक कदम रखना यहां भारी लग रहा था. हमारे चलने की रफ़्तार खुद ब खुद धीमी हो गई थी.
आदि कैलास (Aadi Kailash) के पहले दर्शन (Aadi Kailash yatra : First sight of Mount Aadi Kailash)
ज़रा सा आगे बढ़ने के बाद ही हमारी बांयी तरफ बर्फ से पूरी तरह ढंका एक बहुत खूबसूरत पहाड़ हमें देख कर मुस्कुरा रहा था. एक चील उसकी चोटी को छू आने की कोशिश कर रही थी. जैसे झक सफ़ेद पश्मीना ओढ़े कोई उजला शख्स किसी सोच में डूबा कोई कविता लिख रहा हो.
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बचपन से अब तक दिवाली के दिनों घर में आने वाले पोस्टरों में जिस पहाड़ को देखा था वो आज आंखों के एकदम सामने था. इसे देखना ठीक वैसा ही था जैसे पहली बार शाहरुख़ खान को कुछ क़दमों की दूरी पर देखा था और अनिल कपूर जब पहली बार मुझे देख के मुस्कुराया था.
किसी फ़िल्मी सितारे की सिनेमाई भव्यता को एकदम करीब से देख लेने से भी कहीं आगे का एहसास था आदि कैलाश को इतने पास से देख लेना.
कुछ देर आदि कैलाश (Aadi Kailash) की तस्वीरें अपने कैमरे में उतारते रहने के बाद जब उसकी खुमारी कुछ हल्की हुई तो हम बहुत धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ गए. आस-पास झक सफ़ेद पहाड़ों से घिरे बस दो शख्स, तेज़ चलती हवा की आवाज़ से लिपटी ठंड को खुद में जज़्ब किये आगे बढ़ रहे थे.
जैसे कोई दुनिया से परे की जगह हो ये. दूर-दूर तक न कोई पंछी, न कोई जानवर, न कोई आवाज़ और उस अंदाजा भी नहीं कि जहां हम जा रहे हैं वो जगह आखिर कैसी होगी.
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दूर से कई बार ऐसी आवाजें आती कि लगता सामने जो बर्फ से ढके पहाड़ हैं वहां बर्फीले चक्रवात चल रहे होंगे. हल्का डर भी था कि कहीं कोई अवलोंच या बर्फ का तूफ़ान न उठने लगे. छियालेख से लौटते हुए एक शख्स ने बताया था कि एक बार बर्फ का एक तेज़ तूफ़ान वहां आया और आईटीबीपी के करीब दस जवान उसकी चपेट में आकर मारे गए थे.
हालाकि यहां आस-पास सबकुछ एकदम शांत था. इस शान्ति में एक ख़ास तरह की सौम्यता थी जिसे देखकर किसी प्राकृतिक क्रूरता की आशंका लगती तो नहीं थी. पर ये जगह उस नए-नए मिले अजनबी की तरह थी जिसके बारे में हमें पता नहीं होता कि वो किस बात पर कैसी प्रतिक्रिया देगा.
दूर एक टीला दिख रहा था जिसके पार एक अजूबे सी दुनिया है ये हमें लोगों ने बताया था. मुझे गर्बियांग में मिले उस बावन वर्ष के आदमी की बात याद रही थी.
“अजीब सा सम्मोहन है वहां.. एक बार जाओ तो फिर लौटने का मन ही नहीं करता.”
कुछ ही आगे बढे थे कि कहीं ऊपर से सन्नाटे को बाधित करती एक आवाज़ सुनाई दी. ये एक चरवाहे की आवाज़ थी शायद. ऊपर देखा तो उस टीले के एकदम सिरे से एक शख्स चलता हुआ नीचे उतर रहा था. हमें देखकर वो शख्स हमारी तरफ ही आने लगा.
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पास पहुंचा तो शक्ल पहचान में आ गई. ये वही शख्स था जो ज्योलिंगकोंग पहुंचने के ठीक पहले मिला था. वही शख्स जिसका नाम एकदम नाटकीय तरीके से इस जगह के एकदम मुफीद था- तस्वीर.
आदि कैलाश (Aadi Kailash yatra) में तस्वीर नाम के इस आदमी से मिलकर बड़ी खुशी हुई. वो हमारे साथ-साथ चलने लगा. चलते हुए तस्वीर ने बताया कि पार्वती सरोवर सामने दिख रहे टीले के एकदम करीब है. हमें इस टीले पर चढ़कर कुछ नीचे उतरना था.
तस्वीर से बातें आगे बढ़ी तो उसने बड़े खुश होते हुए बताया
“मेरा नाम तस्वीर है करके एक यात्री ने मुझे एक हज़ार रूपये दे दिए. कहने लगे ये बस इसलिए दिए हैं क्यूंकि तेरा नाम तस्वीर है”
तस्वीर. आस-पास सबकुछ यहां किसी खूबसूरत तस्वीर सा ही था. एकदम कवितामय. बस सांस लेनी थोड़ी मुश्किल लग रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे हल्की सी मदहोशी छा रही हो और इस मदहोशी में सबकुछ और रहस्यमय सा लगने लगा था.
तस्वीर ने बताया कि वो नेपाल से आया है और एक नौकरी कर रहा है. नौकरी ये कि उसे सैकड़ों भेड़ों को पालना है. उन्हें एक जगह से दूसरी जगह चरने के लिए ले जाना है.
घुमक्कड़ चरवाहों की इस सदियों पुरानी और धीरे-धीरे ख़त्म होती जाती परंपरा (जिसे अंग्रेज़ी में पेस्टोरल नोमेडिज्म कहा जाता है ) की आख़री निशानदेही सी देता तस्वीर पहाड़ के पीछे कहीं गुम हो गया था और हम अब पार्वती सरोवर के एकदम करीब थे.
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मनमोहक पार्वती सरोवर से मुलाक़ात (Aadi Kailash yatra: Parvati Sarovar)
टीले के दूसरी तरफ बर्फ से ढके आदि कैलास के पैरों पर एक शांत और एकदम साफ़-सुथरी झील बह रही थी. इसी झील का नाम था पार्वती सरोवर. इस झील में आदि कैलास पर्वत की परछाई दिखाई दे रही थी.
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जैसे इस जनशून्य इलाके में ज़मीन पर कोई साफ़ सुथरा आइना बिछा हो जिसमें आस-पास के पहाड़ उचक-उचक कर अपनी परछाई देख रहे हों. इस वक्त मैं कह सकता था कि इतना खूबसूरत नज़ारा मैंने आज तक अपनी आंखों के सामने इससे पहले कभी नहीं देखा था.
और इस भरी पूरी ख़ूबसूरती को रोहित और मुझे किसी और से नहीं बांटना था. प्रकृति की इस खूबसूरत नेमत के हम अकेले अधिकारी थे.
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हम ऊपर एक टीले की तरफ बढ़ गए जहां पीले रंग के सैकड़ों फूल खिले थे.फूलों के सामने झील और झील के सामने बर्फ से ढका आदि-कैलास. इससे खूबसूरत नज़ारा और हो क्या सकता था.
करीब एक घंटा हम इस टीले पर बैठे आस-पास बिखरी दुनिया को निहारते सोचते रहे कि स्वर्ग अगर कहीं होगा तो वो और कैसा दिखता होगा ? ये कौन सी ताकत थी जो हमें करीब सवा सौ किलोमीटर के पैदल सफ़र के बाद यहां ले आई थी ?
इतनी मेहनत करके हम क्यों चले आये थे यहां ? वो कौन सी मनःस्थिति है जो अपने-अपने कम्फर्ट ज़ोन से खींचकर हमें देश और दुनिया में बिखरे ऐसे विरले कठिन रास्तों पर ले आती है ?
इन सारे सवालों का मौन उत्तर देता हुआ सा एक रहस्यमय वातावरण था ये. सचमुच यहां एक ऐसा सम्मोहन था कि लौटने का मन नहीं कर रहा था. और फिर अचानक एक एहसास हुआ. एक अजीब सा एहसास.
ऊंचाई का एहसास.
जहां हम इस वक्त खड़े थे वहां बड़ी-बड़ी पर्वत श्रृंखलाएं हमें खुद से नीचे दिखाई दे रही थी. ये वो जगह थी जहां इंसान नहीं बसते. दूर-दूर तक बस हवा की आवाज़. न पेड़, न पंछी, एक शांत सी झील मौनव्रत करती हुई.
चारों तरफ नुकीले पहाड़ बर्फ पहने हुए. जैसे कोई बाहर की दुनिया हो वो जहां न कोई बड़ी इच्छा है, न कोई डर, न घबराहट. जैसे सारी जिज्ञासाएं ख़त्म हो गई हों. मन धुल गया हो जैसे. यहां प्रकृति से कोई छेड़छाड़ नहीं थी. कुछ भी बनावटी नहीं था.
बिना छेड़छाड़ के, बिना बनावट के, निहायती मौलिक हो जाना कितना खूबसूरत और मासूम हो सकता है ये क्यों नहीं समझ पाते हम ?