कर्स्यांग पश्चिम बंगाल के दार्ज़ीलिंग ज़िले का एक पहाड़ी इलाक़ा है जिसे ‘चाय कंट्री’ भी कहते हैं. पढ़िए, दार्ज़ीलिंग से 32 किलोमीटर दूर इस पहाड़ी इलाक़े से लौटकर लेखिका अनु सिंह चौधरी का लिखा ये पोस्टकार्ड.
एक अजब-सा सुख है पहाड़ों पर सफ़र करने में। हालांकि दार्जिंलिंग और मसूरी जैसे पहाड़ों को तो मैं पहाड़ मानती भी नहीं। जब तक गोल-गोल घुमावदार सड़कों पर सफ़र करते हुए चक्कर खाकर दो-चार उल्टियां ना हुईं तो क्या गए पहाड़ पर? और कर्स्यांग तो ख़ैर छलावा है हिल स्टेशन के नाम पर। ठीक पैंतालीस मिनट में आप सिलिगुड़ी से कर्स्यांग पहुंच सकते हैं। इसलिए, समग्र चौधरी परिवार सिलिगुड़ी जाते-जाते कर्स्यांग पहुंच गया है।
सामने उतरे हुए बादल हैं, खिड़कियों से नज़र आता बारिश का झीना-सा परदा है जिसे हवा बार-बार छेड़ जाती है और पेंडुलम की तरह उदासी और बेइंतहा खुशी के बीच डोलता समझ-बूझ की सरहदों को तोड़ता एक बेकल मन है। खुश होना चाहिए मुझे ना? यहां कितना सुकून तो है। पूरे परिवार के साथ होने का सुख है। फिर तीखे-मीठे दर्द का ऐसा कौन-सा प्याला है जो कभी रीतता ही नहीं। कहीं तो चैन मिले। क्या ढूंढती रहती हैं आंखें? वो कौन-सा इंतज़ार है जो ख़त्म नहीं होता? मन को किसके हवाले कर आऊं कि कम हो जाएं बेचैनियां?
बच्चों को नहाने-तैयार करने और परिवार के साथ नाश्ते के बीच मैं यहां लौट आने के ख़्याल बुन रही हूं। दस दिनों के लिए अकेली आकर रह सकूंगी? कई-कई फोल्डरों में संभाल कर रखे गए ड्राफ्ट्स को मुकम्मल शक्ल देना मुमकिन हो पाएगा? आद्या और आदित खींचकर मुझे बाहर ले गए हैं। खरगोश हैं दो – ऊपर उड़ते बादलों जैसे हल्के और रूई के फाहों जैसे सफेद। देखा है। मैं यहां तीसरी बार आई हूं और तीन सौ बार आना चाहती हूं।
चाय कंट्री कहते हैं इसको। नीचे मकईबाड़ी के चाय के बगीचे और प्रोसेसिंग फैक्टरी दिखती है। जहां ठहरे हैं वहां चाय बार है एक। पान चाय से लेकर अहोमिया चाय तक, केसर मोगा से लेकर कहवा तक, ऑर्किड चाय से लेकर तंदूरी चाय तक – यहां आकर मेरे जैसे नॉन-ड्रिंकर का भी ईमान बिगड़ जाता है। चाय बार की कहानी अगली पोस्ट में लिखूंगी क्योंकि दो घंटे हुई बातचीत को हज़ार शब्दों में समेटना एक भरे-पूरे दशहरी आम के पेड़ पर चढ़कर ये तय करने जैसा है कि क्या खाऊं, क्या गिराऊं।
हम पहाड़ घूमने निकल पड़े हैं। मां ख़ुश हैं और आज उनकी तैंतालीसवीं सालगिरह है। पचासवीं के लिए आपको और पापा को गोआ ले जाएंगे मां, मैं कहती हूं तो मां बच्चों की तरह खुश हो जाती हैं, इतनी खुश की लता दीदी के साथ गाने लगती हैं – कभी तेरा दामन ना छोड़ेंगे हम… आदित का नहीं, पापा का हाथ पकड़िए मां, हम उन्हें छेड़ने से बाज़ नहीं आते।
क्या मामी, आपके ज़माने में म्युज़िक डायरेक्टर्स बेस गिटार तक नहीं यूज़ करते थे, तबला और हारमोनियम से ही काम चला लेते थे? भांजा शरद पुराने गाने सुन-सुनकर पक चुका है। उसे क्या बताएं कि हमें घुट्टी में ही रेट्रो ऐसा पिलाया गया था कि टेस्ट बड्स भी कुछ तभी अप्रिशियट कर पाते हैं जब संगीत रेट्रो होने लगता है – चोर और चांद के साउंडट्रैक की तरह, या फिर यारा दिलदारा और पत्थर के फूल की तरह। शरद मेरे जवाब से दुखी होकर कानों में ईयरफोन्स घुसा लेता है – छूमंतर हों, आजा चल गुम हो जाएं… उसे भी मैं चैन से जीने नहीं देती। उसका एक प्लग मेरे कान में है। अब को फ्यूज़न है मस्त – लता-सुनिधि, शंकर-जयकिशन-सोहेल सेन, मजरूह सुल्तानपुरी-इरशाद कामिल… और हम मिरीक में हैं।
बारिश में बोटिंग नहीं हो सकती, हॉर्स राइडिंग तो हो सकती है। बच्चों को लेकर मैं किनारे चली आई हूं। बार्गेनिंग कर नहीं सकती और घरवालों को बता नहीं सकती कि झील के एक चक्कर के लिए हर घोड़े पर तीन सौ बीस देने का वायदा कर दिया। मां सुनेंगी तो सिर धुनेंगी कि परोरा की संपत्ति यही लड़की लुटाएगी आगे जाकर।
इतने में बच्चों ने घोड़ों से भी दोस्ती कर ली है, घोड़ेवालों से भी। मम्मा का नंबर याद है मुझे, फोन में सेव कर लो भैया। नोएडा आना तो हमसे ज़रूर मिलना। मम्मा, ये भैया गुड़गांव में रहते थे। अब घर वापस लौट आए हैं। घोड़ेवाले ने अपने घोड़े रुस्तम के साथ अपनी कहानी में इतनी देर में आदित को सुना दी है। मम्मा, रुस्तम तीन साल का था तो उसको गाड़ी ने मार दिया था। मालूम है, ये गाड़ी से बहुत डरता है, और छाते से भी और टीन की शीट से भी। रॉकी और बादल की कहानी शरद और आद्या ठीक-ठीक सुना नहीं पाए हमको। रुस्तम क्लियरली बेटर स्टोरीटेलर है, और आदित अच्छा श्रोता। झील के एक चक्कर में इतनी कहानियां बुनी जा सकती हैं? वैसे हुआ वही जो मैं चाहती नहीं थी। मां के सामने पैसे देने पड़े हैं घोड़ेवालों को और मां और दीदी, दोनों मुझे ऐसे देख रहे हैं जैसे जानबूझकर जंग हार आए सिपाही को उसका सेनापति देखता होगा। तेरे हाथ में कैसे देंगे कमान, ओ पगली कि तुझसे तो दो सौ रुपए भी नहीं बचते!
केले खरीदने के लिए खड़े होते ही मैं मां के कानों में कहती हूं, ये दुकानवाली हंड्रेड पर्सेंट बिहारन है। बिहारी ही नहीं, छपरा-सिवान की है। सच है कि मांग का पीला सिंदूर और हाथ में पड़ी दो दर्जन लाल चूड़ियां सब भेद खोल जाती हैं। रही-सही कसर भोजपुरी लहज़े में बोली गई बंगाली निकाल देती है। सिवान में कहां के बानी? बबुनिया मोड़। हमरो घर बा रामदेव नगर में। इतना कहना है कि तीस रुपए दर्जन केला चौबीस रुपए में मिल जाता है। छह रुपए की बचत! पचास पैसा प्रति केला!
मोमोज़ है, मैगी है, गर्म चाय है और कैमरे की मर चुकी बैट्री है। कुछ लम्हे आंखों में ही क़ैद हो तो अच्छे।
आंखों में क़ैद होते चाय के बगीचे हैं, ठहरी हुई तीस्ता है, उतरे हुए बादल हैं, देवदार है और पहाड़ी रास्तों से होकर गुज़रती लंबे-रेशमी बालों और हाई हील्स में बल खाती लड़कियां हैं। सिर पर टोकरियां लादे उनकी मांएं भी हैं कहीं-कहीं जो छतरी लगाकर पत्तियां चुनने में जुटी हैं। सड़कों के किनारे दो-चार भाई-बंधु-बाप-पितिया हैं जो नशे में ऐसे बेसुध हैं कि लाल चींटियों का होश नहीं, बारिश की ख़बर नहीं और सिर पर से होकर गुज़रती गाड़ियों से भी गिला नहीं।
और साथ चलती बहुत सारी ख्वाहिशें हैं। पहाड़ी ढलानों पर उग आए जंगली फूलों को चोटी में गूंथने की बेतुकी इच्छा है, एक बेसुध नींद का अरमान है, चुप्पियों से कहानियां चुनने की चाहत है, चुभते लम्हों के कांटों के बीच खिल आए फूलों का रंग गिनने की लालसा है। और एक आख़िरी ख़्वाहिश है – मर जाने की।