लोसर दरअसल बौद्ध अनुयायियों के नए साल पर मनाया जाने वाला त्यौहार है जो पूरे एक हफ़्ते से पंद्रह दिन तक चलता है। लोसर में ‘लो’ का मतलब होता है साल और ‘सर’ मतलब नया। अगर आप फ़रवरी के महीने में अरुणाचल प्रदेश, लद्दाख या बौद्ध अनुयायियों के किसी भी इलाके में जाएं और वहां के बाज़ार, गलियों या गाँवों में आपको हवा में लहराती हुई कपड़े की रंग-बिरंगी सैकड़ों पताकाएं दिखाई दें तो समझ लीजिएगा लोसर चल रहा है।
लोसर त्योहार कहाँ मनाया जाता है?
लोसर बौद्ध अनुयायियों का बहुत महत्वपूर्ण पर्व है। नेपाल, भूटान, तिब्बत के अलावा यह त्यौहार भारत में भी धूम-धाम से मनाया जाता है। भारत में मुख्य रूप से यह त्यौहार लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, हिमाचल प्रदेश और असम के अन इलाक़ों में मनाया जाता है जहां बौद्ध अनुयायी बहुतायत में रहते हैं।
लोसर त्योहार कब मनाया जाता है?
आमतौर पर बौद्ध केलेंडर के हिसाब से लोसर त्यौहार मनाया जाता है। लुनीलोसर नाम के इस केलेंडर में नए साल के मौक़े पर इस त्यौहार को मनाने की परम्परा है। आमतौर पर यह त्योहार पंद्रह दिनों तक चलता है जिसके शुरुआती तीन दिन बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
कौन मनाता है लोसर
आमतौर से यह उत्सव बौद्ध धर्म के अनुयायी-लामा लोग मनाते हैं, लेकिन इसके साथ ही बौद्ध धर्म के प्रभाव में आ चुकी दूसरी जनजातियां, मसलन अरुणाचल प्रदेश शेरडुकपेन आदि भी इसे मनाती हैं। इसलिए तवांग से भालुकपोंग (असम की सीमा) तक आमतौर पर फरवरी के दूसरे सप्ताह में हवा में लहराती बौद्ध पताके और पवित्र मंत्र लिखे कपड़े की पट्टियां पूरी घाटी में देखी जा सकती हैं।
कैसे मनाते हैं लोसर पर्व
फ़रवरी के दूसरे हफ़्ते में मनाए वाले लोसर की तैयारियाँ हर घर में पहले ही शुरू हो जाती हैं। लोग अपने-अपने घरों में साफ़-सफाई करते हैं, पुरानी चीज़ों को घर से हटाते हैं और घरों में मंत्र लिखे हुए कपड़े टाँगते हैं। माना जाता है कि इन कपड़ों में लिखे मंत्रों से बुरी शक्तियाँ दूर रहती हैं। लोसर के दौरान बौद्ध मठों में तरह-तरह के कार्यक्रम की जाते हैं और धार्मिक पूजाओं का भी आयोजन होता है। लोग अपने पारम्परिक परिधानों को पहनते हैं और दिन-भर नाचते-गाते हैं। इस त्योहार में लोग अपने परिवार की मृतआत्माओं को भी खुश करते हैं और उनकी कब्र पर जाते हैं।
लोसर उत्सव के दौरान नृत्य- अजिलामु या लामसाम नृत्य, याक नृत्य या याक सबा प्रस्तुत किए जाते हैं। उनमें विभिन्न पशु-पक्षी आदि के लिए मुखौटे का उपयोग होता है। इन नृत्यों की प्रस्तुतियों के पीछे ईश्वर को प्रसन्न करने तथा उनकी पारंपरिक पूजा के प्रति सम्मान व्यक्त करने की अवधारणा होती है। स्थानीय पेय छांगकोल इन दिनों आस-पास के हर घर में बनता है और जलसे के दौरान इसे सबको पिलाया जाता है।
पहले बौद्ध मठों और अपने-अपने घरों तक सीमित रहने वाले इस आयोजन को अब सामुदायिक रूप से मनाने की परम्परा भी शुरू हो गई है। तिब्बती मूल के बौद्ध समुदाय के सामुदायिक जीवन और उत्सवधर्मी संस्कृति की एक बेहतरीन झलक देखनी हो तो लोसर उत्सव में शिरकत ज़रूर करनी चाहिए।