भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से दिए जाने वाले ‘नवलेखन पुरस्कार’ (2017) से सम्मानित आलोक रंजन की किताब दक्षिण भारत की उनकी यात्राओं पर आधारित है. इस यात्रावृत्तांत की विस्तार के समीक्षा लिखी है श्रीश कुमार पाठक ने.
आज की दुनिया, आज का समाज उतने में ही उठक-बैठक कर रहा जितनी मोहलत उसे उसका बाजार दे रहा। यह तीखा सा सच स्वीकारने के लिए आपको कोई अलग से मार्क्सवादी अथवा पूँजीवादी होने की जरुरत नहीं है बस, अपने स्वाभाविक दोहरेपन को तनिक विश्राम दे ईमानदार बन महसूस करना है। इस बाजारवाद ने एक निर्मम उतावलापन दिया है और दी है हमें बेशर्म कभी पूरी न होने वाली हवस। बाजार के चाबुक पर जितनी दौड़ हम लगाते हैं उतना ही पूंजीपति घुड़सवार को मुनाफा होता है। वह इस मुनाफे से अकादमिकी सहित सबकुछ खरीदते हुए क्वालिटी लाइफ़ के मायनों में ‘वस्तु-संग्रह की अंतहीन प्रेरणा’ ठूंस देता है और हम कब बाजार के टट्टू बन गए, यह हमें भान ही नहीं होता। इस दौड़ में है नहीं, तो दो पल ठहरकर हवा का स्वाद लेने का सुकून। सुकून का ठहराव नहीं है तो हम जल्दी-जल्दी सबकुछ समझ लेना चाहते हैं। यह हड़बड़ी भीतर ‘सरलीकरण की प्रवृत्ति’ पैदा कर देती है। अपने-अपने ‘सरलीकरण’ से इतर जो कुछ भी दिखाई देता है उसे हम नकारना शुरू कर देते हैं और सहसा हम असहिष्णु बन तो जाते हैं, पर यह भी कहाँ स्वीकार कर पाते हैं !
सरलीकरण की छटपटाहट हमें रीटोरिकल, स्टीरियोटिपिकल बनाती है। हड़बड़ी में हममें से अधिकांश मानने लगते हैं कि इतिहास माने कहानी, राजनीति माने साजिश, दर्शन माने पागलपन, मनोविज्ञान माने पागलों का अध्ययन, साहित्य माने कविता, कहानी आदि, आदि। इसी छटपटाहट में किसी कृतिविशेष को पढ़ने में व्यक्ति-विशेष को एक ऐसी असुविधा होती है जो वह व्यक्त नहीं कर पाता और कृतिविशेष का सार फिसल जाता है। उसे समझ ही नहीं आता कि किसी कविता में इतिहासप्रसंग कहाँ से आ गया, कि किसी कहानी में मनोविज्ञान कैसे घुस गया, कि किसी यात्रावृत्तांत में राजनीति क्या कर रही है, कि किसी उपन्यास में दर्शन का क्या काम, आदि, आदि।
आलोक अपनी पहली ही पुस्तक से इस स्टीरियोटिपिकल मानसिकता पर घनी चोट करते हैं। किताब के पहले अध्याय में ही राजनीतिक-सामाजिक-मनोवैज्ञानिक ‘अस्मिता-विमर्श’ के दर्शन करा देते हैं और यह यकीन मानिये एक लेखक के तौर पर उनके सजग, संबद्ध, प्रतिबद्ध, संजीदा होने का पाठकीय संतोष दे जाता है। आलोक की ‘सियाहत’ एक लेखक की समूची अभिव्यक्ति है फिर वह फॉर्मेट की परवाह नहीं करता, विधा की चिंता नहीं करता, वह सबकुछ दर्ज करता चलता है ईमानदारी से। सही भी है आखिर सियाहत (यात्रा) जो शुरू हुई तो मन की सियाहत को भी तो स्याही मिले। फिर यात्रा शुरू हो जाती है, पृष्ठसंख्या पर ध्यान नहीं जाता और पुस्तक के अंत में आयी चित्रवीथि आ जाती है इस अंतर्भूत संदेश के साथ कि –
यात्राएँ ख़त्म नहीं होतीं !
कोई कृत्रिमता नहीं, लेखक लगातार बौद्धिक संवाद में है, यात्रा के लगभग सभी दृश्यों में वह सजग है और न अपना बिहारी भदेसपना छोड़ता है और न ही अपनी अध्यापकीय वृत्ति। उसकी व्यक्तिगत मनोदशा का भी भान जबतब होता है, खासकर बिंब-आयोजना में, नहीं तो प्राकृतिक सौंदर्य की तुलना वह रेगिस्तान के रेत के सौंदर्य से क्यों करता। यही साफगोई, लेखक और पाठक में कोई पर्दादारी नहीं रहने देती। लेखक को लाखों-लाखों का बना देती है। इस सियाहत के पन्ने अलग-अलग रखें जाएँ तो साहित्य की कई विधाएँ अपना-अपना दावा ठोकेंगी पर मूलतः है यह यात्रावृत्तांत ही। लेखक अपने अनुभवों के एक त्रिकोण में काम कर रहा है जिसके तीन कोण हैं: सहरसा, दिल्ली और नेरियामंगलम। अधिकांश पृष्ठों में ये तीनों कोण अपना-अपना हिस्सा अभिव्यक्त कर ही लेते हैं। यह खूबी आलोक की कलम को प्रवाह देती है।
यात्रावृत्तांत में लेखक अपने मेज के स्थिरतल पर स्थिर नहीं होता, केवल कल्पनाएँ मददगार नहीं होतीं, महज बिंबों से बानगी नहीं आती, उसे लिखने के लिए हर पल, यात्रा के प्रत्येक पल में फिर-फिर यात्रा करनी होती है; इस जरूरी बौद्धिक थकन से फिर निकलती है- सियाहत। आलोक के लिए यह यात्रा किसी जहमत की तरह नहीं है बाकि एक रूहानी खब्त है जो कभी किसी तरह ऊपर जाया जाय के रूप में आती है तो कभी चिलचिलाती धूप में साठ किमी की साईकिल पैडलमार यात्रा पर भेजती है, कभी सुदूर संपर्कविहीन मुतुवान आदिवासियों के बीच ले जाती है तो कभी लता-प्रतान सहारे चढ़-चढ़कर माड़म (वृक्ष आवास) में रहने को उकसाती है, वट्टावड़ा के उस गाँव में बीस–पच्चीस सेकेण्ड में जीवन का अब तक का सबसे बड़ा भय महसूस कराने के बावजूद वापसी में उसी जगह पर रूककर हरिणों को देखने का साहस देती है और फिर विष्णु नागर जी द्वारा उद्धृत तथ्य लें तो एक अध्यापक ने अपने पैसे खरच यह सियाहत पूरी की है। आलोक के भीतर का यह खब्त प्रथम तो उन्हें एक उम्दा यात्री बनाता है फिर उनका अनुशीलन एक अर्थपूर्ण यात्रावृत्तांत की पृष्ठभूमि बना देता है।
सियाहत के भीतर सतत संवादों का एक सेतु बनता है। सेतु के दोनों ओर दो नगर बसते हैं जो अपनी-अपनी हनक में बहुत ही कम संवाद करते रहे हैं; उत्तर भारत और दक्षिण भारत। एक खांटी उत्तर भारतीय ठेठ दक्षिण में जा पहुँचता है। अपनी ही रौं का अलमस्त बिहारी केरल के कच्चे सौंदर्य में जा पहुँचता है। ‘नाद तक चांप, घुघनी, गनगना, एकपैरिया आदि’ शब्द-युग्मों के साथ आलोक के कथ्य में जहाँ अल्हड बिहारीपना मौजूद है वहीं वह दक्षिण के बिंब उसकी उसी महक में पिरोना नहीं भूलते। काजू के पके फल की महक, लेमनग्रास, हरी इलायची, लौंग, काली मिर्च, केले के पत्ते, नारियल, पदीमुखम की छाल, चंदन, झरना, खड़े पहाड़ों की मोटी भाँप, चाय बागान, स्ट्राबेरी के खेत, बारिश, तीखी धूप से मन तक जलना, ठंडे जंगल, रंगीन गिलहरी, रंगीन घर, हाथी, जोंक, भालू ये सभी मिलकर सियाहत का समवेत बिंब गढ़ते हैं।
यह बिहारी सूर्यलंका में पहली बार समुद्र देखते हुए बाज न आते हुए लहरों के समानांतर दौड़ते–दौड़ते दूर निकल आता है और रोकते पुलिस वालों से भाषा के बहाने बच आता है तो बिट्ठल परिसर में पचास रूपये देकर महामंडप पर चढ़कर प्रतिबंधित हिस्से में जाने कारोमांच ले लेता है या फिर साठ किमी की साईकिल यात्रा के बाद भालू अभ्यारण में साईकिल के प्रतिबंधित होने पर रोकते अभ्यारणकर्मी की ही स्कूटी जुगाड़ लेता है। सियाहत में दो पृथक परंपरा में पनपे बिंबों का संवाद है, दो पृथक ऐतिहासिक धाराओं का प्रयाग है, दो सामाजिकताओं, दो संस्कृतियों, दो प्राथमिकताओं, दो सामानांतर पल रहे वर्तमानों का विंध्यांचल है, सियाहत; इसलिए ही इसका पाठ महती का है। इसके पाठ का एक वितान अनेकता में एकता को तथ्यतः रेखांकित करता है तो दूसरा एकराट की भव्य संकल्पना का यथार्थिक निर्वहन करता है।
खानपान, संस्कृति का एक बेहद महत्वपूर्ण आयाम है। लेखक की यात्रा में जहाँ कहीं भी भोजन के प्रसंग हैं, वे विस्तार में इसी हेतु हैं। बहुधा भोजन, लेखक के जीभ पर चढ़े स्वाद के अनुरूप नहीं है पर खिलाने वालों के भाव से ही लेखक को भोजन में रूचि बढ़ जाती है। यह कितनी महत्वपूर्ण बात है कि अक्सर हम उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीयों और अन्य राज्यवासियों के स्वाद की कोई परवाह ही नहीं करते, बल्कि यह भी विनोद का ही विषय हो जाता है। लेखक ने उचित ही लिखा है- आपको दूसरों की भिन्नताओं का सम्मान करना होता है। आदिवासियों के गाँव तेरा में भी लेखक ने अधिक भाव ही ग्रहण किया जब सुगु की माँ सबको ठीक उसी तरह परोस रही थीं जैसे तीन हजार किमी दूर लेखक की माँ सबको परोसती हैं और अंत में खुद खाती हैं।
यहाँ जो भी रंग है– गहरा है !
आलोक जब इस वाक्य से सियाहत की शुरुआत करते हैं तो पाठक को पता चल जाता है कि यह गहरे पानी पैठे के शब्द हैं। पुस्तक के पहले ही अध्याय में वे क्रूर सोने का रूपक रचते हैं और सचेत कर देते हैं कि इस गहरे रंग वाले देश में कितना कुछ छिछला भी है। जगह-जगह झरनों वाले देश में वे पानी की सियाहत पर जिज्ञासा कर बैठते हैं और पूछ उठते हैं-
क्या कोई यात्रा कभी समाप्त होती है?
लिखते हैं कि-
कितनी अजीब बात है, झरने भी मनुष्यों की तरह होते हैं। जो छोटा–वो अकेला।
दिवाकरन के खेतों से गुजरते हुए लेखक में मानवीय संवेदना जब खेतों के चारो तरफ बिजली प्रवाहित होते लोहे के तार देखती है तो एक तरफ मनुष्य जीवन तो दुसरी तरफ पशु जीवन के चयन का ‘धर्म–संकट’ पर लेखनी चलती है।
यह अजीब–सा दुर्भाग्य है कि हम वही नहीं करते जो पास हो और जिसे आसानी से किया जासकता है। इस वाक्य में लिपटे संदेश की ग्राह्यता से ओतप्रोत आलोक ‘ज्यू टाउन’ पहुँचते हैं और हैरान होते हैं कि ज्यू टाउन में यहूदी बचे ही कितने है -महज पाँच या शायद तीन ही। यात्रा, इतिहास और राजनीति की शुरू हो जाती है फिर और लेखक की फिलिस्तीन के प्रति संवदना के लिए संस्थान के अधिकारियों के सम्मुख दिए गए स्पष्टीकरण तक जाती है। वह चर्चा रोचक है जिसमें लेखक यहूदी वृद्धा सारा से मिलता है और बिहार से आया जानकर सारा एक क्रम में पहले, ‘अभी उनके पास काम नहीं है’ और फिर ‘मै भूखा तो नहीं हूँ ?’ के बिंदु पर लेखक से जुड़ती हैं। इस एक सरल प्रसंग से बिहार और केरल की आधुनिक आवाजाही आलोक स्पष्ट कर देते हैं।
सरकारी छुट्टियों और रविवारों में निकाली गयी गुंजाइशों के बीच की खब्त की निशानी है-सियाहत। आलोक लिखते हैं-
वैसे रविवार कादिन मूलतः कल्पना का ही दिन है। किसी महान कवि के बारे में कहा जा सकता है कि उसका सारा जीवन एक रविवार ही होता होगा।
आलोक यहाँ बोर्गेस की तरह सोचते हैं जिन्हें ‘स्वर्ग एक पुस्तकालय’ प्रतीत होता है। अगला ही अध्याय एक महान कवि पर है जो इस पुस्तक के कुछ महत्वपूर्ण अध्यायों में से है- ओ. एन. वी. ! जो देखते हैं आलोक वहाँ तो इस प्रश्न से जूझते हैं कि-
एक कवि की पहुँच कितनी होसकती है!
चौंकते हैं कि-
बाजार कबसे कवि को स्वीकार करने लगा।
इस अध्याय के आखिर में आलोक उस तथ्य तक पहुँच भी जाते हैं जहाँ से उन्हें अपने प्रश्न का माकूल जवाब मिल जाता है। त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी की बस यात्रा करते हुए लेखक को सीट को लेकर वही झगड़ा, वही तनातनी दिखी जो उसे राप्तीसागर एक्सप्रेस के इरोड स्टेशन पर रुकने पर ट्रेन की सीट पाने को लेकर दिखी और जो उत्तर भारतीय सार्वजनिक परिवहन का भी सामान्य प्रसंग है।
लेखक के स्थान से बमुश्किल पांच किमी की दूरी पर हुए दर्दनाक भूस्खलन पर लेखक की छटपटाहट दिखती है जो उसे भाषा संबंधी सीमाओं पर बेबस बनाती है पर चिंता की अपनी भाषा पढ़ने में वह नहीं चूकता। यहाँ, एक बड़े उल्लेखनीय तथ्य का जिक्र आलोक करते हैं जिसमें वह दिखाते हैं आमतौर पर किसी प्राकृतिक आपदा के होने पर महज रस्मी समझी जाने वाली राजनीतिक यात्राएँ दरअसल किस तरह मानवीय जिजीविषा को सहारा दे उनसे उबरने में मदद देती हैं बशर्ते वे संजीदा हों और समय से हों। केरल के मुख्यमंत्री की वह विजिट अचानक ही आपदास्थल में व्याप्त डर के ऊपर अपना असर बना लेती है और जनबल सामान्य हो उठता है।
आगे के पृष्ठों में अपने परिवेश की खोजखबर लेते हुए आलोक धर्म के समाजीकरण की प्रकिया पर कलम चलाते हैं। उनका कहना है कि भारत में प्रचलित सभी धर्मों का भारतीयकरण हो चूका है। अलग-अलग रिचुअल्स भले हैं पर उनकी अभिव्यक्ति लगभग एक जैसी ही है। यहीं, भाषा पर स्थानीयता के प्रभाव की भी चर्चा है जब लेखक बिहारी नसीर की भाषा में अपनी भाषा की स्वभाविकताएँ छूटते देखता है और उसमें मलयाली नोशन्स पाता है। आलोक स्वीकार करते हैं कि हमारे यहाँ धर्म का जैसा समाजीकरण किया गया है वह धार्मिक असहिष्णुता जगाता है। व्यक्ति के विकास में उचित शिक्षा व माहौल की क्या भूमिका है, लेखक के इस आत्मकथ्य से स्पष्ट है:
…धीरे–धीरे यही प्राथमिक समाजीकरण पुख्ता होकर इतना गहरा हो जाता है कि अपने धर्म से इतर धर्म वाले के प्रति इंतहाई नफरत भरजाती है। शुक्र है इस कदर कट्टर बनने से पहले ही मेरे दूसरे समाजीकरण ने काम करना शुरू कर दिया।
अंततः इस निष्कर्ष के साथ आलोक अध्याय समाप्त करते हैं कि-
धर्म का स्वरुप बहुत हद तक उसके मानने वालों की संख्या और उनके स्थानीय चरित्र पर निर्भरकरता है।
रामक्कलमेड़ की उस ऊँचीं छोटी पर आलोक
इस कदर अपने जगह की खिड़की पर घोंसला बनाते मैना युगल को देखकर चहचहाता लेखक फिर रामक्कलमेड़ की उस ऊँचीं छोटी पर रामायण के राष्ट्रीय महत्त्व को महसूसता है। राष्ट्रीयता का ही महत्त्व समझते हुए लेखक द्वारा कश्मीर से कन्याकुमारी तक की यात्रा कराने वाली हिमसागर एक्सप्रेस की यात्रा को बेहद जरूरी कहा जाता है और फिर राप्तीसागर एक्सप्रेस से अपनी एर्णाकुलम-लखनऊ यात्रा पर उत्साह प्रकट किया जाता है।
इस रेलयात्रा में कई प्रसंग आते हैं पर राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया के जरूरी अंग के रूप में ‘शिक्षा और सेवा प्रक्रिया में राष्ट्रगत स्थानांतरण का महत्त्व’, ‘शिक्षाव्यय के मद में सरकार का पुराना और उदासीन रवैया’, ‘खुले में शौच की समस्या के मूल में आयगत असमानता, ‘एक महिला अध्यापक की राजनीतिक अशिक्षा’, ‘महिलाओं के लिए देश भर में व्याप्त असुरक्षा’ विषय बेहद जबरदस्त ढंग से उठाये गए हैं। इस अध्याय का अंत भी तनिक मार्मिक है जब लेखक यह सोचकर ट्रेन से उतरते हैं कि ट्रेन के स्टेशन पर रुकने भर के समय में साथी अध्यापकों व बच्चों से मिल लिया जाये पर आलोक लिखते हैं –
मुझे ‘लाइफ ऑफ़ पाई’ फिल्म का अंत याद आ गया जहाँ बाघ नेजंगल में जाने से पहले पाई की ओर पलटकर देखा तक नहीं !
ऐसा ही शून्य लेखक को अपनी एक हवाई यात्रा में भी महसूस होता है जब एक अजनबी सहयात्री लेखक से एक साहित्यिक किताब मांग बैठती है और बहुत दिनों बाद जब डाक से वह किताब वापस आती है तो उसमें औपचारिक संदेश भी नहीं होता। सभ्यता ने सोख ली है हमारी संवेदना। एयरपोर्ट पर लेखक को भी उस स्थिति से गुजरना पड़ता है जो अब भारत के लगभग हर रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन पर आम है। हैरान-परेशान सा कोई आपसे मदद मांगता है, वह समझाना चाहता है कि दुनिया भर की सारी मुसीबतें उसके साथ इकट्ठी हो गयीं हैं और अंततः लोग उसकी मदद कर देते हैं; ज़ाहिर है अपने संवेदनशील लेखक ने भी मदद कर दी और उचित तर्क गढ़ लिख दिए हैं। अपनी लेपाक्षी की यात्रा में लेखक को स्थापत्य के अद्भुत नमूने के अलावा जो कुछ याद रहा वह महज पचास रूपये की आस में दिनभर चरखा चलाने वाली वृद्धा, जिसके बेटे-बहु बंगलौर में रहते हैं और सिलबट्टे का वह लोढ़ा जो लेखक के सर से लगभग दुगुना बड़ा रहा होगा।
सियाहत का अगर कोई ऐसा अध्याय है जहाँ लेखक आलोक अपनी लेखकीय प्रतिभा के शिखर पर हैं तो वह ‘उदास खड़े खँडहर’ अध्याय है। 1964 में आये चक्रवाती तूफान ने देखते-देखते ही अचानक धनुष्कोटि की बसावट को लील लिया था। यकीनन, इसे पढ़कर किसी भी संवेदनशील पाठक के रोयें खड़े हो जायेंगे। बात बिंब की हो, प्रवाह की हो, संवेदना की हो, शब्दचयन की हो, शब्दचित्रांकन की हो, सब कुछ उम्दा :
नीले समंदर पर रुई जैसे सफ़ेद बादलों वाला आकाश। वहाँ किसी दीवार के साये में खड़े होकर या फिर टूटे हुए मंदिर में धूप से बचनेके लिए बैठे हुए कुत्ते को देखकर कई बार यह ख्याल आता है कि यहाँ भी ठीक वही दुनिया रही होगी जहाँ से हम आते हैं। उतनी हीहँसी और आँसू रहे होंगे। किसी ओर से मछलियाँ पकड़ी जा रही होंगी और किसी घर से मछली पकने की महक आ रही होगी।
पर अभी तो बस अंदाजे हैं। ……. वहाँ चहलकदमी करते हुए एक अपराधबोध लगातार मेरे साथ बना रहा कि, जाने अनजाने मै उनयादों के ऊपर से गुजर रहा हूँ जो कभी एक भरा–पूरा वर्तमान था।
अध्याय ‘मुतुवान के बीच’ सियाहत के रोमांच का चरम है। जब लेखक आदिवासी सुगु के गाँव तेरा पहुँचते हैं जिस गाँव से बाकी केरल का संपर्क लगभग नगण्य है। कोई भी साधारण यात्री न तो इसे एक अवसर के रूप में देखता और न ही कोई पाठक, लेखक की गतिविधियों को साधारण कह सकेगा जो उसने उस ग्राम-प्रवास में कीं। पहाड़ों के बीच झील में तैरना, लताओं-प्रतानों के सहारे माड़म पर पहुँचना और रात गुजारना, शहद शहद की खोज में निकलना, सबसे ऊँची चोटी के लिए जाना, साही के काँटें चुनना, त्वचा पर हल्की ठंडक महसूस कर जोंक हटाना, चाड़-अम्बम-बिल्ल खेल का हिस्सा होना, आदिवासी लोगों का लेखक के लिए गाना और नृत्य करना, लेखक का मैथली के दो लोकगीत सुनाना और फिर अंततः गाँव के कई लोगों का दूर नदी तक छोड़ने आना।
पहाड़ की उस चोटी से जो सुन्दर अलौकिक दृश्य लेखक ने निहारा, उसने लेखक को उस शानदार शब्द-युग्म को सिरजने की प्रेरणा दी जिसका जिक्र प्रोफ़ेसर अजय तिवारी जी ने भी किया था- ‘सौंदर्य का प्रलय प्रवाह’ ! आलोक बेहिचक बताते हैं कि केरल सरकार के दावों के विपरीत इस गाँव में कोई बिजली नहीं है अलबत्ता पहली बार फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सप्प, फोन कॉल्स और इंटरनेट की अनुपलब्धता में स्वयं को काफी समय तक असुविधा महसूस हुई। हम, कितने घिर गए हैं इन सबके बीच, जिनका अभी हमारे बचपन तक नामोनिशान नहीं था। बकौल आलोक –
एक जीवन जिसके हम आदी होते हैंऔर एक जीवन जिसके हम आदी नहीं होते हैं दोनों जब एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाएँ तो अजीब उबाऊ समय खड़ा हो जाता है।
यह इसी गाँव से होकर लिखना संभव था कि-
हम तीनों झरने के पानी में बिस्किट भिगोकर खाने लगे।
एक हमारी सभ्य सामाजिकता जिसमें एक अदद शुक्रिया के लिए व्यक्ति मोहताज हो जाये, एक वह सुगु का गाँव जहाँ हर एक शख्स लेखक से मिलना चाहे। इसी सामाजिकता से सुगु ने ऊपर आंवले के पेड़ से सारे आंवले नहीं तोड़े थे कि और भूखा आये तो उसे खाने को मिले। आज की नाकारी शिक्षा जिसमें व्यावहारिक सहज बुद्धि के लिए अवकाश ही शेष नहीं कि सुगु जैसे आदिवासी विद्यार्थी का वन्य कौशल उसमें अपनी साख बना सके।
आख़िरी अध्याय ‘इतिहास का उत्तर’, इतिहास, भूगोल, समाज तीनों की यात्रा समेटे हुए है। आपाधापी वाला बंगलौर घूमते हुए होसपेट जाने की योजना बनती है। हम्पी का विजयनगरम देखने की मंशा है। विरुपाक्ष मंदिर के दर्शन के बाद सूर्योदय का दृश्य मनोहारी है किन्तु देख कौन रहा है, दृश्य तो कैमरे के फ्रेम भर सहेजे जा रहे।
बहुत कम लोग थे जो किसी योगी की भाँति उस सौंदर्य को आत्मसात कर रहे थे।
बिट्ठल मंदिर के उस परिसर को देखते हुए लेखक इतिहास और वर्तमान का अंतर कुछ यों दर्ज करते हैं:
इतिहास में जब वह रथ बन रहाहोगा तब बनाने वालों को जरा भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि वहाँ तक सबका प्रवेश इतना सुलभ हो जायेगा कि देशी तो देशी विदेशीभी कुछ रुपल्ली का टिकट लेकर रथ को धक्का लगाने आ जाएँगे !
इस सियाहत ने लेखक को तीन जर्मन दोस्त भी दिए जहाँ भाषा संकट पर एक अनामंत्रित की तरह लेखक प्रविष्ट हुआ पर अपनी सहज व्यक्तित्व से सर्वमान्य सर्वस्वीकार्य हो गया। इस भारत-जर्मनी मैत्री ने साथ-साथ केवल धमाल ही नहीं मचाये अपितु जाने कितने ही विषयों पर लगातार सक्रिय विमर्श भी जारी रहा। किताब की शुरुआत में जहाँ लेखक भारत के राज्यों के बीच विमर्श करते हैं वहीं इस अध्याय में वह भारतीय प्रतिनिधि बनकर जर्मन नागरिकों से विमर्श में आ जुटते हैं। अजनबी बच्चों का लेखक से तुरत ही घुलता मिलता देख उनके जर्मन दोस्त बेहद हतप्रभ होते हैं। एक प्रश्न आलोक यहाँ उन जर्मन लोगों से करते हैं जिसपर उनमें एक लम्बी चुप्पी छा गयी और दरअसल जिसका जवाब पश्चिमी संस्कृति के सापेक्ष भारतीय संस्कृति की उदात्तता में है :
तुम्हारे देश में जहाँ अपराध का दर भारत के मुकाबले इतना कम है वहाँ लोग अपने ही लोगों पर विश्वास क्यों नहीं करते? जबकि हमबच्चों के प्रति बढ़ती हिंसा के बावजूद एक दूसरे पर सामान्यतया विश्वास करते हैं।
हतप्रभ तो उनके जर्मन दोस्त इसबात पर भी होते हैं कि आखिर आलोक ने अभी तक उनसे हिटलर के बारे में पूछा क्यों नहीं। उचित शिक्षा और माहौल में रचा-पगा लेखक जानता है कि जर्मन लोगों से हिटलर के बारे में पूछना क्या निहितार्थ निकालता है। उनके यह पूछने पर कि आखिर भारतीय हिटलर में इतनी दिलचस्पी क्यों लेते हैं? यह संवाद अवश्य उल्लेखनीय है :
_____वह इसलिए कि वह हमारे दुश्मन का दुश्मन था। दुश्मन का दुश्मन दोस्त। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के एक नेता सुभाषचंद्र बोसजर्मनी से मदद माँग चुके थे और हिटलर ने मदद का वादा भी किया था। बोस की आजाद हिन्द फौज का गठन ही जर्मनी में हुआ था।इसलिए भारतीय हिटलर को एक मददगार के रूप में देखते थे। आज भी भारत में हिटलर की आत्मकथा बहुत पढ़ी जाती है। …!
_____तो अब तो भारतीयों को समझना चाहिए न कि हिटलर ने मानवता को कितना नुकसान पहुँचाया …. !
_____मैडम, भारत ऐसा देश है जहाँ आजकल गाँधी को स्थापित करने की जरुरत पड़ रही है। रूढ़िवादी शक्तियाँ राजनीति औरइतिहास को अलग तरह से परिभाषित कर रही हैं इसमें हिटलर और गाँधी की हत्या करने वाला नाथूराम सम्मानित किये जा रहे हैं।नाथूराम का तो बाकायदा मंदिर बनाने का प्रयास किया गया।
_____व्हाट नॉनसेंस ! इयान उत्तेजित हो गया।
रूढ़िवादी शक्तियाँ लगभग पुरे विश्व में फिरसे अपनी जड़ें जमा रही हैं, यह स्पष्ट हुआ जब उन्होंने अपने एक प्रदेश बवारिया का उदहारण दिया जहाँ के नागरिक कुछ भी नया स्वीकार नहीं करते।
एक सुरुचिपूर्ण लेखक के तौर पर आलोक कुछ यकीनन बेहतरीन बिंब और रूपक गढ़ सके हैं, जिन्हें सियाहत के ज़िक्र के साथ-साथ याद किया जायेगा। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं:
हरियाली के उस गहरे अनुभव को स्पर्श करने की तमन्ना मन को इस पत्ते से उस पत्ते पर चिपका रही थी।
नदी को मोटे–मोटे हरे कंबलों ने ढँक रखा था।
शरीर के ऊपर से पानी के लगातार गुजरने से त्वचा के ऊपर पानी धड़क रहा था। नदी की जमीन को हमेशा ऐसा ही महसूस होताहोगा।
सुबह के सपनों को हल्की ठंडक झकझोरती है फिर पायताने से कब की नीचे गिर चुकी चादर याद आती है और शुरू होती है सपनोंको वापस पकड़ने की दौड़।
खेतों के टुकड़े यूँ कटे हुए थे मानों बच्चों ने खेल–खेल में ढेर सारे ब्रेड के टुकड़े करीने से बिछा दिए हों फिर उसपर हरी–हरी चटनीडाल रखी हो। खेतों में खड़े नारियल और केले के पेड़ ऊपर से ब्रेड पर बिछाई चटनी की परत जैसे लग रहे थे।
मै वहाँ से गिरता तो यकीनन तमिलनाडु में ही लेकिन जीवित नहीं बचता।
वे बूँदें सीधे मन पर गिर रही थीं और मन तृप्त हो रहा था।
आकाश में सफ़ेद बादल के बड़े बड़े थक्के थे।
मुख्य सड़क से जब हम नीचे उतरे तो टायरों के नीचे से सड़क के बजाय सड़कनुमा कोई चीज गुजर रही थी।
आइये हमारे धान के खेतों के बीच से गुजरकर, महसूस होगा कि कहीं से आये हैं। मन महमह कर उठेगा।
पेड़ों के नीचे चलते हुए लग रहा था कि किसी हरी सुरंग में चले जा रहे हों।
सियाहत एक रौं में की गयी यात्राप्रसंगों पर आधारित नहीं है। इसलिए इसके लेखन में भौतिक यात्रा और मानसिक यात्रा के प्रसंग बेतरतीब पैबस्त हैं। इसमें लेकिन पाठक को सजग रहना पड़ता है कि कब लेखक दक्षिण से सहसा दिल्ली या सहरसा पहुँच जाये। अध्यायों का क्रम भी एक आयोजना में नहीं है। सभी अध्यायों को जोड़ने वाली कड़ी मौजूद नहीं है जो कम से कम एक यात्रावृत्तांत की नितांत विशेषता है। रोचकता की दृष्टि से देखें तो पुस्तक के मध्य भाग को पढ़ना पड़ता है, जबकि आख़िरी हिस्सा कब खत्म होता है पता ही नहीं चलता और शुरुआत में रोचकता अपनी गरिमा में है। एक-दो जगह टंकण त्रुटि दिखी, कहीं-कहीं वाक्य संरचना में लेखक की आंचलिकता के भी दर्शन हुए यदि उसे व्याकरणिक लिंगविधान त्रुटि न कहें तो। क्या ही अच्छा होता जो चित्र रंगीन होते और उससे भी अधिक अच्छा होता यदि विषय अनुरूप बीच-बीच में आते।
कुल मिलाकर आलोक की यह कृति कहीं से भी उनके पहली पुस्तक होने का अंदाजा नहीं लगने देती। जिस प्रकार उन्होंने इस यात्रावृत्तांत में दर्शन, इतिहास, राजनीति, साहित्य की संगीति बिठाई है वह खासा आकर्षक है। भाषा सहज है और स्थान-स्थान के शब्दों ने उसमें अपनी जगह पायी है। आलोक ने इस यात्रावृत्तांत में कमोबेश सभी अन्य विधाओं के भी सरोकार निभाए हैं, जो उन्हें भविष्य का सम्भावनाशील साहित्यकार बनाती है।