उत्तराखंड बाइक यात्रा नाम की यह सीरीज़ उत्तराखंड के कई हिस्सों में की यात्रा की कहानी है। यह यात्रा मैंने अपने दोस्त दानिश के साथ दिल्ली से शुरू की। उत्तराखंड के कुमाऊं के कई इलाक़े हमने कुछ दिनों घूमे। पेश है इस यात्रा की सिलसिलेवार कहानी।
21 नवम्बर से 27 नवम्बर हम लगातार हिमालय का पीछा करने वाले थे। 20 तारीख की सुबह ठीक साड़े छह बजे जब हम दिल्ली से रवाना हो रहे थे तो ये बात हमारे ज़हन में कहीं नहीं थी।
दिल्ली से नौकुचियाताल (Naukuchiatal) : पहला दिन
सुबह अभी एक धुंधलके से जाग रही थी। पैट्रोल टैंक फुल किया चुका था। धीरे धीरे अपने चेहरे से अंधेरे की चादर हटाता सूरज हमें अपने बैगपैक के साथ एवेन्जर बाइक पर दिल्ली की सड़कों से गुजरता हुआ देख रहा था। जैसे जैसे दानिश और मैं आगे बढ़ रहे थे सर्दी की गंध धीरे धीरे हमारे शरीर से जुदा हो रही थी।
लाल सूरज लगातार आकाश की सीढि़यां चढ़ने में मशरुफ था। वो बार बार इमारतों में चढ़-चढ़ कर हमें हवा को भेदते हुए दिल्ली के गलियारे से कहीं दूर जाता देखकर जैसे जल-भुन रहा हो। दानिश और मैं बात करने की कोशिश करते तो हवा लगातार हमारी आवाज़ की शक्लों को बिगाड़ देती। हम कहे गये शब्दों की बिगड़ी हुई सूरत को पहचानने की कोशिश करते, एक यात्री हो जाने के खुशनुमा अहसास से सराबोर, आगे बढ़ते जा रहे थे।
दिल्ली गुजर चुका था। गाजि़याबाद बीत रहा था। सिम्भावाली के पास कहीं एक छोटी लाॅरी को गुजरते हुए देखा। उसके पीछे लिखा था-बड़ा होकर ट्रक बनूंगा। ये खयाल बहुत मासूम लगा था उस वक्त। उसके बाद कुछ वक्त तक जब भी ट्रकों को अपने आसपास से गुजरता देखा तो वो अजनबी लाॅरी अपनी अमानवीय शक्ल में याद आती रही- उस भरपूर मानवीय से खयाल के साथ।
धीरे धीरे दिन चढ़ रहा था, हाइवे पीछे छूट रहा था और वातावरण की धूल हमारे कपड़ों और शक्लों पर अपनी छाप छोड़ने लगी थी। हम शब्दशह सड़क की धूल फांक रहे थे। अपने ही होंठों में लिपट रही इस धूल का स्वाद इस वक्त खराब नहीं जान पड़ रहा था। ये स्वाद दरअसल उस लम्बी यात्रा का था जिसे अगले 6, 7 या शायद उससे भी ज्यादा दिनों तक हमारी रगों में शुमार रहना था। ये स्वाद आवारगी का स्वाद था। गुलज़ार के शब्दों में कहें तो आवारा कहीं का होने का या फिर आवारा कहीं का नहीं रह जाने का।
बाइक के मीटर में किलोमीटरों की तादात बहुत तेज़ी से बढ़ रही थी। महज तीन घंटे में हम रामपुर के करीब आ चुके थे। रामपुर तक हाइवे एक आध जगहों को छोड़कर एकदम दुरुस्त था।
सुबह हम चाय पीकर और एक रस्क खाकर निकले थे और अब करीब 12 बजने को आये थे। भूख दस्तक दे चुकी थी। और हमारी आखें अब एक ऐसे रेस्तरां को तलाशने में जुट गई थी जहां बैठकर पेट के साथ साथ, पैरों में सिमटने लगी यात्रा की हल्की थकान को कुछ आराम दिया जा सके। आस पास जो भी गुजर रहा था उसमें ऐसी किसी जगह का नामोनिशान हमें नज़र नहीं आ रहा था। भूख अब और तेज़ होने लगी थी। बिलासपुर के पास कहीं जाकर हमें एक ढ़ाबा मिला जहां हमने भरपेट खाना खाया।
बीते तकरीबन चार घंटों में मेरे पास मौजूद डीएसएलआर कैमरे को कोई वजह नहीं मिली थी जिसके लिये उसे आंखों के करीब जाना पड़े। शहर की धूल में सिमटे बासी से लैंन्डस्केप, उदास से खेत, रुकी हुई खामोश सड़कों पर बेचैन सी भागती हुई गाडि़यां। ये सबकुछ इतना मशीनी सा था जिसे कैमरे में उतार लेना मैमोरी कार्ड पर ज्यादती करने से ज्यादा कुछ नहीं था। और फिर ये कि हमें आज जल्द ही नौकुचियाताल तक पहुंच जाना था। जहां दानिश की एक दोस्त के पापा की पहचान के किसी सख्श का काॅटेज था। यह काॅटेज हमारी यात्रा की पहली रात का का ठिकाना बनने वाला था।
रामपुर आते ही सड़क की शक्ल एकदम बिगड़ गई थी। गड़ढ़े, धूल, ट्रेफिक जाम और उसके साथ संकरी सड़क। परेशानी ये थी कि पीठ पर लदे बैग के वज़न को कम करने के लिये उसे बाइक की सीट के थोड़े से हिस्से पर टिकाना ज़रुरी था। लिहाज़ा हम दो लोग उस बैग के साथ ट्रिपलिंग करने को मजबूर थे। उस बैग में उतना ही सामान था जितना सर्दी के मौसम में सफर करने के लिये बहुत ज़रुरी था। इसलिये वो बैग हमारी यात्रा का एक ज़रुरी सामान था जिसे हमारे साथ अगले कुछ दिनों तक रहना ही था। एक ज़रुरत की तरह। ज़रुरतें तकलीफज़दा ही सही पर हम उनके साथ रहने को अभिशप्त होते हैं।
हल्द्वानी से आगे का सफर
किसी तरह उस इलाके से निज़ात मिली। सड़क कुछ और चौड़ी होने लगी। मौसम में कुछ बदलने सा लगा। हवा कुछ बेहतर लगने लगी। हल्द्वानी आ चुका था। जैसे ही हम हल्द्वानी की जद से निकले अचानक हमारे एकदम सामने पहाड़ों की विशाल श्रृंखला खड़ी हो गई। हम मैदान और पहाड़ की उस खूबसूरत मिलन नगरी काठगोदाम आ पहुंचे थे।
दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमाएं हम लांघ चुके थे और अब जो हमारे सामने था उसे लांघा नहीं जा सकता था। उससे जुड़ा जा सकता है, उसपर भटका जा सकता है, उसकी घूमती हुई राहों पर चढ़ा और उतरा जा सकता है। जो चीज़ें आपको अजीज़ होती हैं उन्हें लांघना इतना आसान नहीं होता। उनसे गुजरना होता है, उन्हें महसूस करते हुए। हम पहाड़ को अपने सामने महसूस कर रहे थे, और उससे गुजरने को बेताब हुए जा रहे थे।
काठगोदाम के पीछे छूटने के कुछ देर बाद हम उसी पहाड़ के बीच घुमावदार सड़कों से गुजरने लगे थे जिसे हमने कुछ देर पहले काठगोदाम के इलाके से अपने बिल्कुल सामने खड़ा पाया था। हमारे दोनों ओर घने जंगल थे और उनसे आती ठंडी हवा हमें सर्दी का अहसास कराने लगी थी।
काठगोदाम से भीमताल की तरफ जाती हुई उस सड़क पर मिले पहले पहाड़ी ढ़ाबे पर हमने कुछ देर ठहरने की ठानी। आलू के गुटके, खीरे का रायता और गर्मागर्म चाय। इस ज़ायके में एक खास किस्म का नाॅस्टेल्जिया सा है। पहाड़ से जब भी गुजरना हुआ है, छोटे छोटे ढ़ाबों पर ये ज़ायका बचपन से मिलता रहा है। दानिश को ये रायता और आलू के गुटके उतने पसंद नहीं आये। मैं उससे कहते कहते रुक गया कि कई स्वाद ऐसे होते हैं जो कभी नहीं बदलते। वो स्वाद दरअसल हमारी जीभ पर नहीं हमारे ज़हन पर बैठ जाते हैं और फिर कभी नहीं उतरते।
भीमताल से नौकुचियाताल की यात्रा
भीमताल से कुछ आगे बढ़ने पर एक सड़क नौकुचियाताल की तरफ मुड़ गई। पहाड़ में बचपन के कई साल गुजर गये पर ये सड़क मेरे लिये नई थी। पहाड़ में रहते हुए पहाड़ को उतनी अच्छी तरह न जान पाने की कसक ही थी कि आज मैं दानिश के साथ नौकुचियाताल के उस रास्ते पर था। एकदम बेमकसद। दानिश गूगल पर पहले ही पूरे रुट की एक बेसिक रिसर्च करके आया था। उसे मंजिलों की मुझसे बेहतर जानकारी थी, रास्ते तो पूछ के पता चल ही जाते हैं। हम अपनी यात्रा के पहले दिन के पहले पड़ाव के एकदम करीब थे और शाम अभी दूर थी।
तीन बजे के करीब हम चढ़ाई चढ़ते हुए नौकुचियाताल पर रुक चुके थे। मैं अपने हेल्मेट पर उभर आई धूल की पृष्ठभूमि में मौजूद नीले आसमान के तले एकदम हरे जंगल के उस प्रतिबिम्ब की तस्वीर उतारने लगा था और दानिश उस शख्स से फोन पर बात कर रहा था जिसके काॅटेज में हमे ठहरना था।
नौकुचियाताल की शाम

नौकुचियाताल की ताल के बारे में कहा जाता है कि उसके नौ कोने हैं और यही उसके इस नामकरण की वजह है। इस वक्त हम तराई को पीछे छोड़कर समुद्रतल से तकरीबन 1250 मीटर उपर आ चुके थे।
फ़ोन पर काॅटेज के केयरटेकर से बात हुई तो उसने पता बताया। हम उस पते की तरफ जाती सड़क पर काफी आगे पहुंच गये थे पर ताल अब तक नहीं दिखाई दी थी। बीच में हनुमान की एक विशालकाय मूर्ति हमें दिखाई दी थी। हरे पहाड़ों के बीच 52 फीट उंची ये लाल मूर्ति एकदम अलग से नज़र आ जाती है।
एक मोड़ पर आकर वो चढ़ती हुई सड़क एक ढ़लान बनकर उतरने लगी। सामने एक सूखी और उदास सी ताल थी। जैसे किसी बात से मायूस होकर एक कोने में बैठी हुई हो। ताल में कमल की पंखुडि़यों के बीच पहाड़ी पर मौजूद इक्का दुक्का घरों के प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहे थे। इसी ढ़लान वाले मोड़ से एक कच्ची सड़क उस काॅटेज की तरफ जा रही थी।
खाली पड़े उस सुन्दर काॅटेज के हम अकेले मेहमान बन गये थे। गीज़र के गर्म पानी से हाथ मुंह धोकर हम कुछ देर बारामदे में बची रह गई गुनगुनी धूप को समेटने लगे। वो धूप जो दिल्ली में किसी दूर के रिश्तेदार सी उखड़ी उखड़ी लगती है वही धूप यहां किसी बहुत नज़दीकी की तरह हमारे चेहरों को तांक रही थी और बीच बीच में हवा के हाथों से हमारे चेहरे और बालों को सहला रही थी। कुछ तो है इन पहाड़ों में कि शहर की नकचढ़ी धूप यहां आने के बाद खुलकर मुस्कुराने लगती है।
कुछ देर बाद शाम की सैर के लिये हमने ताल का रुख किया। ताल के ठीक सामने कुमाऊँ मंडल विकास निगम का एक गेस्टहाउस बना हुआ है। उस गेस्ट हाउस के करीब पचासों बोट्स झील के कोने पर टिकी हुई सैलानियों का इन्तज़ार कर रही थी। ऑफ़ सीज़न होने की वजह से यहां एकदम सन्नाटा था।
हमने झील के किनारे बैठकर कुछ देर इत्मिनान की गहरी सासें ली। यहां नैनीताल वाला शोर नहीं था। शाम के सन्नाटे में धीरे धीरे अंधेरा घुल रहा था। पास ही के एक छोटे से होटेल में चाय और आलू-प्याज़ के पकौड़े खाने के बाद हम लौट आये अपने काॅटेज की तरफ। यात्रा की ये पहली शाम इससे खूबसूरत और क्या हो सकती थी।
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