Mumbai Diary : 22 (December 2015)
नोट: यह लेख नवभारत टाइम्स (5 दिसंबर 2015) के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ है. मूल रूप से लिखा गया पूरा लेख यहां पेश है.
मुंबई के वर्सोवा बीच की रेत अभी-अभी सुनहरे रंग से लाल हुई थी और अब उसने अपना असल रंग भी खोना शुरू कर दिया था. सूरज डूब ही रहा था. किनारे चट्टान पर खड़ा एक शख्स बहुत देर से गहराते आकाश में अपनी मायूसी का रंग तलाश रहा था. मैंने कुछ दिनों में रिलीज़ होने जा रही ‘गेंग्स ऑफ़ वासेपुर’ की चर्चा अपने कुछ दोस्तों से शुरू ही की थी कि इस फिल्म का नाम सुनते ही वो शख्स मुड़ा और हमें घूरने लगा. “ फिल्म में तिग्मांशू की जवानी का किरदार मैनें ही किया था, मेरा बहुत लम्बा रोल था पर फाइनल कट में करीब पूरा-पूरा काट दिया है.” उस आदमी ने अपना परिचय मायूसी में बहुत गहरे तक डूबी अपनी इस आवाज़ के साथ कराया. करीब तीन साल पहले बीता ये वाकया मुझे हमेशा याद दिलाता है कि मुंबई में आपका संघर्ष या मीडिया की भाषा में कहें तो ‘स्ट्रगल’ कहां ख़तम होगा और कहां फिर से शुरू हो जाएगा इसका अंदाज़ा आप लगा ही नहीं सकते. आपके भविष्य की पिक्चर में कौन, कब आपका रोल छोटा या बड़ा कर दे ये वहां कोई नहीं जानता.
विज्ञान की किताबों में हम उन इलेक्ट्रोन के बारे में पड़ते हैं जो परमाणुओं की बाहरी कक्षाओं में लगातार चक्कर लगाते रहते हैं. मुंबई में कुछ समय बिताने के बाद यहां सफलता मुझे कई बार उसी परमाणु के न्यूक्लिअस की तरह लगी है और मुंबई में संघर्षरत हर इंसान उस इलेक्ट्रोन की तरह जो उस बोंड की तलाश में रहता है जो उसे संतुलित कर ले. सफल लोग सकारात्मक ऊर्जा से भरे हुए उन प्रोटोन की तरह हैं जो ऑर्बिट के केंद्र में रहते हैं. और अमीर प्रोड्यूसर्स उन न्यूट्रोन की तरह हैं जो उदासीन होने के बावजूद परमाणु को परमाणु बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं. मुंबई ऐसे ही परमाणु की एक संरचना की तरह है.
लोग कहते हैं कि मुंबई सपनों का शहर है. पर असल बात तो ये है कि जब तक आप मुंबई में नहीं होते तब तक ये सपनों का शहर ज़रूर हो सकता है लेकिन जैसे ही आप मुंबई रहने आते हैं सपनों के इस शहर की सारी सच्चाई आपके क़दमों पर बिखरकर रह जाती है. एक बक्से से कमरे में रहने के लिए जब आपसे ‘ब्रोकर’ लाख रूपये की पगड़ी और दो महीने का किराया दलाली में उगाह लेता है तो समझ आता है कि वो सपना जिसके पूरे होने या न होने की कोई गारंटी नहीं है मुंबई आपसे उसकी कीमत पहले दिन से वसूलने लगता है. उस वक्त एक अदद छत का संघर्ष मुंबई में सबसे बड़ा संघर्ष लगने लगता है.
मुंबई के अखबारी ‘स्ट्रगल’ से अलग संघर्ष वहां कई परतों में पलता है. थोड़ा नाम कमा लेने के बाद ‘हम जब मुंबई आये तो फुटपाथ पे सोते थे और वड़ा पाव खाते थे’ लोग मुंबई के संघर्ष के बारे में यही घिसी-पिटी पंक्ति बोलते सुनाई देते हैं. इस ‘स्टीरियोटाइप’ से बाहर निकलें तो मुंबई में संघर्ष के कई और आयाम नज़र आने लगते हैं. ‘सिनेमा’ और ‘स्टार्स’ के बाहर भी ये शहर बहुत कुछ है और उस आबादी का अपना एक संघर्ष है.
मेरे एक मुस्लिम दोस्त ने बताया कि हाल ही में जब वो मुंबई के पास महाबलेश्वर अकेले गया तो उसे कोई होटल में कमरा देने को तैयार नहीं हो रहा था. परेशान होकर जब उसने एक होटल वाले से पूछ ही लिया तो उसने जो कारण दिया वो कुछ हैरान करने वाला था. नहीं उसका ‘मुस्लिम’ होना कमरा न मिलने का कारण नहीं था. कारण था उसका ‘अकेला’ होना. “सर कई लोग मुंबई से ‘अकेले’ आते हैं और यहां कमरा लेकर आत्महत्या कर लेते हैं. बीच में ऐसे केस बहुत बढ़ गए हैं इसलिए अब अकेले आने वालों को कमरा यहां कम ही लोग देते हैं.” ये बयान मुंबई के ऐसे संघर्ष की कहानी कहता है जो यहां एक ख़ास तरह के स्ट्रेस में जीने वाले युवाओं के मन के भीतर चलता रहता है. उनकी बातों के बीच कहीं ठहरा हुआ और उनकी मुस्कान में सिहरकर बैठा हुआ ये संघर्ष कब अवसाद में बदलकर आत्महत्या का रूप ले लेता है इसकी भनक किसी को नहीं लग पाती. मुंबई में किसी के पास इतना समय है ही नहीं कि एक बार ठहरकर इन बातों और मुस्कानों की बाहरी परत पर लगे परदे के पीछे झांक सके.
अगर आपने कभी लोकल ट्रेनों में सफ़र नहीं किया हो तो आप उस संघर्ष को महसूस नहीं कर सकते जो ‘विरार फास्ट’ में मलाड से चढ़कर चर्चगेट पहुंच जाने के बीच आपको करना होता है. आप अगर उन ट्रेनों की रफ़्तार के साथ न ढल पाए, आपको अगर चलती ट्रेन में स्टोर रूम में फेंक दी गई पुरानी पेटियों की तरह ठुंसे हुए लोगों के बीच धक्का-मुक्की करके अपने लिए जगह बनाना नहीं आया तो मुंबई आपके लिए है ही नहीं. (आपके माताजी या पिताजी ने आपके बैंक अकाउंट में कृपा कर दी हो तो और बात है). उस संघर्ष का अपना एक सलीका है. आपको अपना बोझा (बैग) पीठ पर नहीं सीने पर लाद कर चलना होता है. जेबकतरों से सावधान रहते हुए, पसीने से गंधाती कमीज़ों को सूंघते हुए. गलती से फिसलकर पटरी पे गिरकर चलती ट्रेन से कट कर मर जाने से बचते हुए. थके-हारे काम से लौटने के बावजूद बसों के इंतज़ार में पूरे धैर्य और अनुशाशन से लम्बी पंक्तियों में लगते हुए. मुंबई खुद में आपको तब तक रचने बसने नहीं देती जब तक आप उसके आपके लिए तय किये इन सलीकों को समझ ना लें.
सीसीडी, बरिस्ता, कोस्टा कॉफ़ी की टेबलों से सटी कुर्सियों पर डिस्कस होने वाला हर आइडिया जितनी जल्दी उम्मीदें बढ़ाता है उतनी ही जल्दी प्रोड्यूसर की जेब उस उम्मीद की शक्लो सूरत को बदल कर रख देती है. चीजें तकरीबन होते-होते अचानक स्थगित कर दी जाती हैं. और कभी कहीं स्थगित कर दी गई चीज़ एक दिन अचानक जी भी उठती है. अकेलापन बहुत जल्दी हावी हो जाता है पर उसे बांटने के लिए अनंत विस्तार लिए समुद्री किनारे और सहलाने-पुचकारने सा भाव लिए आपके पैरों पर से गुजर जाती तमाम लहरें. वो मुकाम जो आप पूरी शिद्दत से पाना चाहते हैं वो आपकी नज़रों के एकदम सामने होता है पर उसे छूं पाने को आप तरसकर कर रह जाते हैं. मुंबई एक नखरीला शहर है वहां किसी मुकाम पर पहुंचना है तो उसके नखरे आपको सहने होंगे. कई बार निर्दयता की हद तक पहुच जाने वाले इन नखरों को सह पाने का धैर्य रख लेना ही मुंबई का सबसे बड़ा संघर्ष बन जाता है.
बिना क्रेडिट के काम करते लेखक, फ्लोर पर पहुंचकर रुक जाती फिल्में, दलाली देकर कैमरे के सामने मुस्कुराते अदाकार, सफल हो जाने के बावजूद उस सफलता को जारी रख पाने की जद्दोजहद, और गोल्डन पीरियड ख़तम हो जाने के बाद बुझते हुए दिए की तरह आंखरी चिंगारी बचे रहने तक लड़ते रहने की ताब बनाए रखना. ये सब किसी बड़े संघर्ष से कम कहां है. दूसरी तरफ सितारों के शहर में हकीकत की मुश्किलों से जूझने वाला, तमाम तरह के समझौते करके किसी तरह परिवार का पेट पालने वाला, ऑटो चलाकर बिहार के किसी घर में शाम की रोटी का इंतज़ाम कर पाने वाला, चमक धमक के बीच खुद के अंधेरों को स्वीकारने वाला एक बेहद साधारण नागरिक बने रह पाने का संघर्ष भी कोई कम बड़ा संघर्ष नहीं है.
किसी निर्देशक ने अपने एक साक्षात्कार में कभी कहा था कि मुंबई के समंदर में एक न एक दिन आपके नाम की लहर ज़रूर आती है, अगर आपने उस लहर को छू लिया तो मुंबई आपकी और अगर ना छू पाए तो फिर आपकी ज़िंदगी वहां ‘वड़ा पाव’ में गुजर जाती है. उम्मीदों का एक विशाल समुद्र जिसमें सफलता की चंद लहरें तो दिखाई दे जाती हैं पर उसमें डूबी हुई तमाम असफलताएं भी हैं जो दिखाई नहीं देती पर मुंबई पहुचकर महसूस ज़रूर हो जाती हैं.
dear umesh pant sir i read your articles and stories from gullak account. sir please write down about the uttrakhand. You know sir a lot of people left their hometown(native place) and going towards to urban area.. so plzz write down something about uttrakhand..