Alibag Mumbai

इतवारी शामों में सुकून के किनारे

Mumbai Diary 7 ( February 2012)

मुम्बई और मेरे रिश्ते की उम्र आज एक साल एक महीना और कुछ 7 दिन हो चुकी है… ये शहर मेरे लिये अब उतना अजनबी नहीं रह गया है…. जैसे जैसे अजनबियत खत्म होने लगती है… वैसे वैसे रहस्य छंटने लगते हैं… नयापन धुंधला होने लगता है… पुरानापन हावी होने लगता है… आकर्षण खत्म होने का डर लगने लगता है… पर मायानगरी मुम्बई के अनुभवों के इस अथाह समुन्दर के लिये मेरे ही क्या हर किसी के आकर्षण की उम्र महज एक साल तो नहीं हो सकती….

चीजें जब बेहद अपनी होने लगती हैं तो उनके लिये हमारा आकर्षण कम होने लगता है… मुम्बई जैसे बड़े शहर इतनी जल्दी और इतनी आसानी से अपने नहीं होते… शायद इसीलिये इस शहर के लिये लोगों का खिंचाव लम्बे समय तक बना रहता है…

 इस बीच मुम्बई के भीतर ही नहीं मुम्बई के इर्द गिर्द भी आना जाना हुआ… कुछ ऐसे समुद्री किनारे तलाशे जहां इतवारी शामों को बेहद खूबसूरती से बिताया जा सकता है। कई बार हम दूरियों को अपने अनुमान के आधार पर ही बिना समझे बूझे बहुत बड़ा कर देते हैं… शायद इसीलिये जिस दिन पता चला कि दमन मुम्बई से बस तीन घंटे के रास्ते की दूरी भर पर है उस दिन एक हैरत सी हुई… इस बेहद खूबसूरत समुद्री किनारे के सफर में दो चीज़ों ने मोह लिया… पहला था रेशाद मसालों में पके स्रिम्स यानी सी फूड का जायका…. इस स्थानीय मसाले का जायका, स्वाद की दुनिया को बहुत देर तक आप की जीभ में आबाद रखता है। दमन के बारे में जो दूसरी खास बात थी वो शराब पीने की प्रक्रिया का बेहद कम खर्चीला और लोकतांत्रिक होना… सोचिये कि समुन्दर किनारे बने शैक्स में एक पूरा परिवार बैठा है… अपने मां, बाप, भाई, बहन के साथ बैठा एक लगभग बारह साल का बच्चा बिना हिचके साकी की भूमिका निभा रहा है…. उसके नन्हे से हाथ और गिलासों में भरती शराब… दूसरे दृश्य में एक रेस्टोरेन्ट है, जहां एक 17-18 साल की लड़की अपने पापा से कह रही है… पापा पी तो हमने भी है…. लेकिन आपको तो कोई कन्ट्रोल ही नहीं है… इतना क्यों पीते हो कि खुद को कन्ट्रोल ही नहीं कर पाते… इस बात पर उसके पापा की दो और लड़कियां और उनकी मां हंसी ठठ्ठा कर रहे हैं… बेहद पारिवारिक सौहार्द के वो पल जिनमें शराब किसी कुरीति का हिस्सा नहीं है…. उस परिवार को देखकर लगा कि अगर दुनिया में शराब की सार्थक या निरर्थक कोई भी भूमिका है तो शायद यही है…. लगा कि किसी भी नशे का अच्छा या बुरा होना कितना ज्यादा सब्जेक्टिव है…

मैं जिस पृश्ठभूमि से आता हूं वहां शराब पीना एक तरह का पाप है… शराब पीकर नाली में पड़े रहना… बाज़ार में सरेआम गालियां देना… अपनी पत्नियों को पीटना… अपने छोटे से कस्बे में शराबियों के ऐसे कारनामे देख देख के बड़े होते हुए शराब जैसी चीज़ के लिये पैदा हुई हिकारत, दमन आकर जैसे खत्म हो जाती है… तब लगता है कि जजमेंटल होना अनुभव बटोरने के सिलसिले को कितना सीमित कर देता है… चीज़ों को सही या गलत के दायरे से बाहर खड़े होकर देखने का मन होता है कभी कभी… बिना किसी पूर्वाग्रह के… बिना उन्हें स्टीरियोटाईप किये….

मुम्बई से लगभग दमन के बराबर दूरी पर ही एक और खूबसूरत सा समुद्री किनारा है- अलीबाग… सुबह के पांच बजे जहां पैरों को गुदगुदाती, कीचड़ से सनी, पथरीली ज़मीन होती है, जिसपर लगभग एक किलोमीटर चलकर आप एक किले तक पहुंचते हैं… दिन चढ़ते चढ़ते वहां समुन्दर की विशाल लहरें अंगड़ाई लेने लगती हैं… गुनगुने पानी में मस्ती करते सकड़ों लोग, लोगों को सैर कराती घोड़ागाडि़यां, पैरासूट, बनाना राईड, स्टीमर और दिन ढ़लते वक्त दूर किसी अंतहीन कोने पे सूरज का लाल, नारंगी रंगों से सराबोर होकर दिलकश अदा से डूब जाना… शाम को लहरों को अपनी हदें पार कर किनारे की चट्टानी पत्थरों को धीरे धीरे खुद में भिगोते और फिर पूरी तरह डुबा ले जाते देखना…

और हां अगर सचमुच अपने देश में सबसे खूबसूरत समुद्री किनारों का जायजा लेना हो तो अलीबाग से कुछ 30 किलोमीटर दूर काशिद और उसके बाद मुरुड जंजीरा नाम के समुद्री किनारों से बेहतर कोई और जगह क्या हो सकती है…. एक शान्त सी सड़क जिसके उपरी हिस्से में हरे भरे पहाड़ और निचले हिस्से में गाढ़े नीले आकाश की परछाई पड़ने से हल्का सा नीला दिखता समुद्री अनन्त… आस बास बहती बिल्कुल साफ सुथरी हवा… और इस सब का लुत्फ उठाते मुम्बई के आसपास से आये लोग…

मुम्बई के लोग अक्सर अपने हफते या महीने की थकान उतारने इन इलाकों की ओर रुख करते हैं… हर शहर अपने रवासियों को इत्मिनान के लमहे मुहैयया कराने के लिये गांवों या अपने आस पास के कस्बों पर ही तो निर्भर होता है… मुम्बई को इस मामले में खुशनसीब कहा जा सकता है कि उसके इर्दगिर्द एक अथाह समुद्री इत्मिनान बहता है… जिसे मुम्बई की काम से थकी हारी जनता को राहत पहुंचाने का काम शायद दुनिया बनाने वाले ने सोंपा हुआ है….

पिछले कुछ दिनों से मुम्बई की हवा भी कुछ सर्द सी है…. सरसराती ठंड जैसे जुमले से आमतौर पर मुम्बई का वास्ता बहुत कम पड़ता है… उनी कपडे़, जैकेट, बनियान ये सारी चीजें मुम्बई के लिये आउट आफ डेट सी लगती हैं… एकदम गैरज़रुरी… लगता है कि जैसे लोकल ट्रेन की तरह इस सरपट भागते शहर में मौसम भी लोगों को गैरज़रुरी चीजों से बचने की सलाह देता हो….

घर से बहुत दूर यहां मुम्बई में बैठे जब टीवी पर नैनीताल या अल्मोड़ा में बर्फ गिरने की खबर आती है तो थोड़ा नौस्टेल्जिक फील होता है… बचपन के दिनों के वो बर्फीले मौसम क्या गजब होते थे…. रात भर बिन बताये चुपचाप बर्फ गिरा करती थी और सुबह दरवाजा खोलकर बाहर देखने पर हर ओर उसके सफेद रंग की बादशाहत काबिज हो गई लगती थी… घरों की छतों, पेड़ों, पहाड़ों, सड़कों पर दूर दूर तक बस बर्फ ही बर्फ…. जब ठंड से डरती डरती सी धूप की किरणें थोड़ा साहस कर आसमान के छत पे आती तो हम भी मम्मी के बनाये नये नये उनी बनियान, दस्ताने और मफलर पहनकर अपने घर की छतों पर पहुंचते और ताज़ी ताज़ी बर्फ को जमा कर बड़ी बड़ी बर्फीली मूर्तियां बनाते… गुड़ के साथ ताज़ी ताज़ी बर्फ खाते हुए बीता वो सर्द बचपन और उन बर्फीली मूर्तियों के साथ बड़े शौक से खिंचाई तस्वीरें, मुम्बई की हल्की हल्की ठंडक का अहसास देती हवाओं के बीच बड़ी याद आती हैं…..

मुम्बई में जि़न्दगी का ये मैराथन अपनी धीमी धीमी रफतार के साथ जारी है… वक्त बेवक्त इस मुम्बई डायरी की अगली कडि़यां भी धीमी रफतार से ही सही, जारी रहेंगी…

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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