वो कहती है- “तुम बहुत सीधे और ईमानदार हो। बिल्कुल निदा फाज़ली की गज़लों की तरह।”
वो पूछता है – “निदा फाजली, वो कौन हैं ?”
और उसका एक मासूम सा जवाब-“यही तो तुम्हारी ईमानदारी है। “
ये स्वीकार्यता हर रिश्ते में नहीं होती।
नायिका बशीर बद्र की फैन है। दुश्यंत कुमार की कविताओं की शौकीन है। और जानती है कि नायक ने अगर चकबस्त को सुन लिया तो वो बेहोश हो जाएगा। पर इस जानने में अहमन्यता नहीं है। जानने का कोई गुरुर नहीं है। वो जानती है नायक बुद्धू है पर प्यारा है। क्योंकि उसके कूद-कूद के बात करने को हर कोई नोटिस नहीं करता। हर कोई उसकी आवाज़ को रिकोर्ड करके उसको बर्थडे में प्रेजेंट नहीं देता। हर कोई शरमाते हुए अपनी इस शंका का समाधान नहीं करता कि – अब तो हम फ्रेंड हैं ना? और वक्त आने पर वो नायिका को इस बहाने से चूम लेता है कि – “तुम सबसे छोटी हो ना, इसलिये प्यार आ गया था। उसकी इस सफाई पर आखिर किसे प्यार नहीं आएगा ?” ये प्यार इतना खूबसूरत है कि हमसे तू का रास्ता तय करने की शर्त बस इतनी सी है कि नायक पहले दो शेर याद कर ले।
एक दर्शक की लोकेशन से ये प्यार बहुत अनछुआ और ताज़ा सा लगता है। ये वो प्यार जिसपर आमतौर पर हमारे हालिया सिनेमा की नज़र पड़ती ही नहीं। हमारा सिनेमा आज भी प्यार को एक आउटसाइडर की नज़र से देखता है। ठीक वैसे जैसे हम में से ज्यादातर लोग अपनी निज़ी जिन्दगी में ठीक ऐसा ही करते हैं।
मसान आपको विलुप्त होते जा रहे उस प्यारे से प्यार की भावना के एकदम करीब खड़ा कर देती है। आपको कुछ मीठे और गहरे पल देती है और फिर अचानक आपको कहीं दूर खींच लाती है। जैसे किसी खूबसूरत सपने से जगाती हुई एक बदसूरत सच के करीब ला खड़ा करती है। एक सच जहां जाति की भौंडी सच्चाईयां हैं। कुंठाएं हैं। धोखे हैं, छल है। जहां मौत है और एक अनंत दुख है जो न जाने जाता क्यों नहीं ? पर एक दिलासा भी दे जाती है कि ‘बाद में सब कुछ ठीक हो जाता है.’
फिल्म में दो कहानियां एक साथ चलती हैं। एक दूसरे से अलग फिर भी एक दूसरे में गुथी हुई। पहली कहानी बनारस की एक ऐसी लड़की की है जो एक होटेल में अपने प्रेमी के साथ अंतरंग पल बिताते हुए स्थानीय पुलिस द्वारा धर ली गई। प्रेमी ने डर के मारे वहीं खुद को समाप्त कर लिया। पुलिस के अधिकारी के पास इस रेड का वीडियो है और अब उस लड़की और उसके बूढ़े पिता की इज्ज़त उस पुलिस अधिकारी के पास मौजूद उस मोबाइल में कैद है। और इसके लिये वो सौदा तय करता है तीन लाख रुपये। घाट किनारे पूजा सामाग्री बेचने वाले एक निम्नवर्गीय पिता के लिये तीन लाख जुटाना इतनी आसानी से कहां सम्भव है। पर वो सरेंडर भी तो नहीं कर सकता। बेटी की इज्जत का जो सवाल है। पर बेटी सरेंडर करेगी ?
क्या अपने प्रेमी के साथ सम्बंध बनाकर उसने कोई गलती की ? क्या केवल कुछ क्षणों के वो पल जो दो लोगों के ज़हन का हिस्सा भर रहने चाहिये थे उन्हें तकनीक सर्व सुलभ बना दे तो लड़की आगे की जिन्दगी उस समाज के बीच जी पाएगी ? पर लड़की जानती है कि उसने कुछ गलत नहीं किया है। वो नौकरी करती है और उस पुलिस अधिकारी के मोबाइल में कैद अपनी इज्ज़त को आज़ाद करने की अपनी लड़ाई लड़ने लगती है। हां “देगी क्या ? उसको भी तो दिया था” जैसे सवाल उसे कमज़ोर कर सकते हैं पर वो हार कैसे मान ले ? एक छोटे शहर की सेल्फ मेड लड़की है वो। हर दूसरी लड़की की तरह कुछ इच्छाएं हैं उसके भीतर भी। उसका अपराध बस इतना ही है उसने बाकी लड़कियों की तरह अपनी उन इच्छाओं का दमन नहीं किया। समाज भले ही उसके किये को गलत माने पर वो जानती है जो उसने किया उसमें कुछ भी गलत नहीं है।
समाज जब अपनी सार्वजनिक कुंठाएं दबा नहीं पता तो वो उसे व्यक्ति विशेष पर थोप देता है। समाज के भीतर का आरोपी पीडि़त को दोषी करार देने का हुनर रखता है। मसान इस कड़वी सच्चाई को खोलकर रख देने वाली फिल्म है।
दूसरी कहानी बनारस के हरिश्चन्द घाट में रहने वाले लड़के और एक उंची जाति की लड़की के बीच पनपे एक मासूम से रिश्ते की कहानी है। स्ट्रक्चरल अनालिसिस की किताब खरीदते हुए दिल बना हुआ ग्रीटिंग लड़की की तरफ सरका देने वाला सटल सा प्यार। दोस्तों के इस मशविरे के बावजूद परवान चढ़ता प्यार कि ‘लड़की अपर कास्ट है ज्यादा सेंटी वेंटी मत होना।’ पर प्यार जाति-वाति कहां जानता है। लड़की भी जानती है कि उसके मम्मी पापा लड़के को एक्सेप्ट नहीं करेंगे पर एक उम्मीद भी है वहां कि ‘हमने सुना है बाद में सब ठीक हो जाता है’। और एक भरोसा भी कि ‘बस एक नौकरी पकड़ लो बाकि सब हम देख लेंगे।’
हरिश्चन्द्र घाट में लाशें जलाने वाला नायक भले ही ‘मीर्जा गालिब को तो जानते होगे ना’ के सवाल पर सकपका जाता हो पर अपने समाज को उससे बेहतर आखिर कौन जानता है ? वो जानता है कि जिन्दगी भर वो और उसका परिवार लाशें जलाता रहा है पर क्या अपने ही प्यार की लाश भला कोई जला पाता है कभी ?
मसान देखते हुए लगता ही नहीं कि आप बनारस को कहीं दूर दिल्ली में बैठे देख रहे हैं। बनारस जैसे छोटे शहर में जाति और सेक्स ये दोनों जीजें आज भी कितनी बड़ी रुढि़यां है ये मसान में साफतौर पर दिखाई देने लगता है। पर इन पुरानी मजबूत रुढि़यों को तोड़ने की ताब प्यार के सिवा और किस भावना में हो सकती है ? लड़के और लड़की के बीच में शारीरिक सम्बंध तो खैर हमारे समाज के लिये सार्वजनिक रुप से हमेशा हव्वा ही रहे हैं। छोटे शहरों में जहां लड़के और लड़की के बीच बात तक करना चर्चा का विषय हो जाता हो वहां इस स्तर पर जा पहुंचना कि आप शारीरिक सम्बंध बना लें, ये कितना बड़ा दुस्साहस है इसे वही जानता होगा जो इतना साहस कर पाता है। दो लोगों के बीच मनोवैज्ञानिक रुप से जो एक बहुत सामान्य बात होनी चाहिये वो सामाजिक रुप से एक अपराध हो जाती है तो स्पष्ठ है समाज नाम की ये संरचना कहीं न कहीं खोखली है। मसान बड़े ही साहसिक पर स्वाभाविक रुप से उस खोखलेपन को सामने ले आती है।
जाति के सवाल पर भी फिल्म सामने से चोट करती है। मीर्जा गालिब को पढ़ना और लाश जलते हुए देखना। चकबस्त के शेर याद करना और लाश का कपाल फोड़कर, उसका कंकाल निकालकर उसकी राख को गंगा में बहा देना। ये दोनों एक ही शहर की दो एकदम अलग सच्चाईयों के बिम्ब हैं। दो ऐसे अहातों के बिम्ब जिनमें जाति की एक गहरी खाई है और प्यार वहां एक पुल की तरह काम करना चाहता है।
जब प्यार रेल सा गुजरता है तो समाज में फैली रुढि़यों की जड़ें पुल सी थरथराने लगती हैं। फिल्म बहुत ही सटल तरीके से ये बात कह जाती है।
ये भी कि हर किसी के पास दो मन होते हैं। एक जिसे कस्तूरी की तलाश है और वो इस तलाश में हमेशा भटकता रहता है। और दूसरा जो दस्तूरी समाज के हिसाब से जीता हुआ कहीं ठहरा हुआ रहता है। जि़दगी इन दो मनों की लड़ाई में जूझते रहने की जद्दोजहद का नाम है।
रिचा चड्ढ़ा और संजय मिस्रा दो ऐसे कलाकार है जिनकी प्रतिभा का बखूबी फायदा उठाने के लिये एक निर्देशक या लेखक के तौर पर आपका हुनरमंद होना भी ज़रुरी है। ये दोनों ऐसे कलाकार हैं जो निर्देशक के हुनर से चार कदम आगे चलते हैं। संजय मिस्रा में इतनी रेंज है कि उनकी दो अलग अलग फिल्मों को उठाकर देखें तो पता नहीं चलता कि ये एक ही कलाकार है। और रिचा इतनी प्रभावशाली हैं कि उनकी उपस्थिति किसी भी सीन में जान डालने के लिये काफी है। देवी और विद्याधर पाठक की केमिस्ट्री मसान में लाजवाब है। जो सबसे ज्यादा भाये हैं फिल्म में वो विकी कौशल और श्वेता त्रिपाठी के किरदारों के लिये लिखे गये संवाद जिन्हें दोनों ने अपनी बेहतरीन एक्टिंग से आत्मा दे दी है। विनीत कुमार और पंकज त्रिपाठी की उपस्थिति भी पूरी तरह महसूस होती है।
वरुण ग्रोवर की अपनी लेखनी का दम पहले भी कई बार दिखा चुके हैं। और इस फिल्म की स्क्रिप्ट से लेकर गानों तक में उनका पूरा प्रभाव दिखाई देता है। और इस प्रभाव को नीरज घेवण निर्देशन ने कई गुना बढ़ा दिया है।
फिल्म की दो अलग अलग कहानियां भी इसलिये गुंथी हुई लगती हैं क्योंकि उनके केन्द्र में या तो बनारस है या फिर प्यार। जलती हुई लाशें, घाट पे बच्चों की सिक्का प्रतियोगिता, नाविकों की टहल, दोस्तों की मंडली और बनारसी लहज़ा पूरे 90 मिनट तक ये नज़ारे आपको उस छोटे ऐतिहासिक शहर को जीने का मौका देती हैं। हर शहर का एक अन्डरवर्ल्ड होता है। फिर बनारस के अन्डरवर्ल्ड को बड़े अच्छे से फिल्माया है।
और आखिर में संगम का वो दृश्य भी एक बिम्ब की तरह ही आता है। जब अपने अपने दुखों से सताये अपने अपने प्रेमियों को खो चुके दो लोग मिलते हैं। एक ऐसी नाव को लताशते हुए जो उन्हें उनके दुखों के बनारस से सुकून के अलाहाबाद पहुंचा दे।