मणिपुर के कांगला फ़ोर्ट और इमा बाज़ार की यात्रा

(Last Updated On: April 3, 2023)

सुबह के साढ़े-चार बज रहे थे. नेशनल हाइवे-39 पर मौजूद माओगेट से नागालैंड की सीमा समाप्त हुई और हमने मणिपुर में प्रवेश कर लिया. देश में सबसे पहले सूर्योदय के लिए मशहूर पूर्वोत्तर में पौ फट रही थी. आसमान पर सूर्योदय से ठीक पहले के इतने खूबसूरत रंग बिखरे हुए थे कि ऐसा लग रहा था जैसे कोई कलाकार केनवास पर चित्रकारी कर हो. माओ से सेनापति तक आते-आते क़रीब दो घंटे में उजाला पूरी तरह से दस्तक दे चुका था. हरा-भरा मैदानी विस्तार बता रहा था कि हम मणिपुर घाटी में प्रवेश कर चुके हैं. सेनापति से करीब चार घंटे का सफ़र तय करने के बाद हम मणिपुर की राजधानी इम्फाल में थे. 


इम्फाल नदी के किनारे बसी है मणिपुर की राजधानी इम्फाल

 

फ़ोटो : उमेश पंत

 

इम्फाल नदी के किनारे बसा यह शहर पूर्वोत्तर के सबसे व्यवस्थित शहरों में से एक है. मणिपुर के इस सबसे बड़े शहर की दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान बड़ी अहम भूमिका रही. भारत में राज कर रही तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इसी शहर में जापानियों को शिकस्त दी थी. हालांकि उस दौरान हुए बम धमाकों ने शहर को काफ़ी नुकसान भी पहुँचाया. 

पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मणिपुर को भारत का रत्न कहा तो इसकी मुकम्मल वजहें थी. इसकी गिनती भले ही भारत के गरीब राज्यों में होती हो लेकिन प्राकृतिक खूबसूरती के मामले में यह वाकई बहुत अमीर है. मणिपुर पहुंचते ही हमें इस बात का अहसास बख़ूबी हो गया था.


मणिपुर की धार्मिक और ऐतिहासिक विरासत : कांगला फ़ोर्ट 

 

कांगला फ़ोर्ट का मुख्य द्वार (फ़ोटो : उमेश पंत)

 

मुख्य सड़क के बग़ल में शांत सी झील से गुज़रते हुए हम एक बेहद ख़ूबसूरत और ऊँचे लकड़ी के गेट पर खड़े थे. यह कांगला फ़ोर्ट का मुख्य द्वार था जिसके अंदर मणिपुर के धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास की झाँकी हमारा इंतज़ार कर रही थी. 

गेट पर मौजूद एक काउंटर से टिकिट के साथ-साथ हमने साइकिल भी किराए पर ले ली. ताकि किलोमीटरों में फैले इस परिसर को देखने में कुछ आसानी रहे.

इम्फाल शहर के केंद्र में मौजूद कांगला फ़ोर्ट दरअसल मणिपुर साम्राज्य की पुरानी राजधानी है. एक वक़्त था जब यह साम्राज्य म्यामार तक फैला हुआ था. उन्नीसवीं शताब्दी तक यहां निंगथोउजा का शासन था. 1891 में यह बर्तानिया हुकूमत के अधीन आ गया. आज़ादी के बाद इस पर  असम राइफ़ल्स का अधिकार रहा. 2004 में इस किले को  जनता के लिए खोल दिया गया. 

पाखंबा देवता का मंदिर (फ़ोटो : उमेश पंत)

 

इस पूरे परिसर में घूमते हुए मणिपुर के शाही घराने के अवशेष दिखाई दे रहे थे. साथ ही मेईती जनजाति के सर्प देवता पाखंबा से जुड़ी कहानियों का बखान करते मंदिर थे. मुख्य द्वार के एकदम पास नुंगजेंग पोखरी अछोउबा था. यह एक झील है और मान्यता है कि सर्प देवता पाखंबा का घर यही झील है. नुंगगोईबी नाम की एक जगह थी जिसकी कहानी बड़ी रोचक है. यहां पर मेईती समुदाय के लोग अपने दुश्मनों के कटे हुए सर दफ़नाया करते थे. 1891 में अंग्रेज़ों और मणिपुरी साम्राज्य के बीच हुई लड़ाई में मणिपुरी योद्धाओं ने पाँच अंग्रेज़ों के सर क़लम कर दिए. उन पाँचों के सर भी यहीं दफ़नाए गए थे. 

आगे बढ़ने पर बड़े से मैदान के पास मणिपुर के पूज्य भगवान इबुधोउ पाखंबा का एक मंदिर नज़र आ रहा था, जिसके सामने एक छोटा सा कुंड बना हुआ था. इस कुंड में मंदिर की सफ़ेद इमारत का ख़ूबसूरत प्रतिबिम्ब नज़र आ रहा था. मैदान के दूसरी ओर शीशे का बना एक कमरा था जिसके अंदर खास तरह की नाव रखी गई थीं. सांप के आकार की बनी नावों का सामने का हिस्सा मणिपुर के राजकीय पशु संगाई के आकार का बना था. इन नावों का इस्तेमाल यहां होने वाले पारम्परिक बोट फ़ेस्टिवल में नावों की रेस के लिए किया जाता था. 

 

इबुधोउ पाखंबा का मंदिर (फ़ोटो : उमेश पंत)

 

कुछ आगे चलकर एक संग्रहालय दिखा, जहां शाही घराने और बर्तानिया हुकूमत से जुड़े अवशेष रखे गए थे. इसके अलावा इस विशाल परिसर में कांगला साम्राज्य ही हदबंदी करती दीवारें थीं. मटमैले रंग के पत्थरों से बना हुआ एक महल था. कुछ आगे सफ़ेद रंग की दो विचित्र मूर्तियां नज़र आ रही थीं. ये कांगला शा की मूर्तियाँ थी. जिस मंदिर के बाहर ये मूर्तियां लगी थी उसे उत्तरा कहा जाता है. मान्यता है की कांगला शा यहां के राजा की सुरक्षा में तैनात रहा करते थे. कांगला शा मणिपुर का राजकीय चिह्न भी है.

 

कांगला शा की प्रतिमाएं (फ़ोटो : उमेश पंत)

 

इस परिसर में फूलों से सजे ख़ूबसूरत बगीचे भी थे. मनुंग कांगजेईबुंग नाम से एक मैदान था, जहां पोलो खेला जाता था. कहा जाता है कि पोलो का खेल मणिपुर में ईजाद हुआ और फिर दुनियाभर में यह खेल मशहूर हुआ. यह मणिपुर का राजकीय खेल भी है.

 

कांगला फ़ोर्ट के अवशेष (फ़ोटो : उमेश पंत)

 

क़रीब दो घंटा हम मणिपुर की संस्कृति की झलक देने वाले इस परिसर में घूमते रहे. कहा जाता है कि करीब 238 एकड़ में फैले इस किले में 300 से ज़्यादा प्रतीक चिह्न हैं जो मणिपुर के इतिहास को सहेजे हुए हैं. अब किले के बंद होने का वक़्त हो चुका था. गार्ड सीटी बजाने लगा था. हमें यहां से लौटना था. यहां से निकलने के बाद हम इमा मार्केट की तरफ़ चले आए. 

 

फ़ोटो : उमेश पंत

इमा बाज़ार जिसे केवल महिलाएं चलाती हैं

 

इमा कैथल बाज़ार (फ़ोटो : उमेश पंत)

 

क़रीब-क़रीब सूर्यास्त के समय हम हज़ारों तम्बुओं के नीचे सजी दुकानों के बीच खड़े थे. इमा कैथल नाम की इस अनूठी बाज़ार की खास बात यह थी कि यहां दुकानदार केवल और केवल महिलाएं थी. यहां पारम्परिक वेशभूषा में हज़ारों महिलाएं अपनी दुकानें सजाकर बैठी थी. इस बाज़ार में क़रीब 5000 महिलाएं दुकानदारी करती हैं. ज़ाहिर है यह एशिया का सबसे बड़ा महिला बाज़ार कहा जाता है. इन दुकानों में मछलियों, सब्ज़ियों, मसालों, फलों से लेकर स्थानीय चाट तक न जाने कितनी तरह की चीज़ें मिल रही थी. इमा कैथल माने माओं द्वारा चलाया जाने वाला बाज़ार. मातृशक्ति का अद्भुत परिचय देती यह बाज़ार दुनिया की संभवतः अकेली ऐसी बाज़ार है जिसे केवल महिलाएं चलाती हैं.

 क़रीब 500 साल पुरानी इस बाज़ार की शुरुआत 16वीं शताब्दी से मानी जाती है.  माना जाता है कि मणिपुर में पुराने समय में लुलुप-काबा यानी बंधुवा मज़दूरी की प्रथा थी जिसमें पुरुषों को खेती करने और युद्ध लड़ने के लिए दूर भेज दिया जाता है. ऐसे में महिलाएं ही घर चलाती थी. खेतों में काम करती थी और बोए गए अनाज को बेचती थी. इससे एक ऐसे बाज़ार की ज़रूरत महसूस हुई जहां केवल महिलाएं ही सामान बेचती हों. बर्तानिया हुकूमत ने जब मणिपुर में जबरन आर्थिक सुधार लागू करने की कोशिश की तो इमा कैथल की इन साहसी महिलाओं ने इसका खुलकर विरोध किया. 

इन महिलाओं ने एक आंदोलन शुरू किया जिसे नुपी लेन (औरतों की जंग) कहा गया. नुपी लें के तहत महिलाओं ने अंग्रेज़ों की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन, चक्काजाम और जुलूस आयोजित किए. यह आंदोलन दूसरे विश्वयुद्ध तक चलता रहा. इमा कैथल केवल एक बाज़ार न रहकर मणिपुर की मातृशक्ति का पर्याय बन गया. आज़ादी के बाद भी यह सामाजिक विषयों पर चर्चा की एक जगह के रूप में स्थापित हुआ. ये भी कहा जाता है कि प्रिंट मीडिया की अनुपस्थिति में लोग यहां इसलिए भी आते थे ताकि उन्हें आस-पास की ख़बरें पता चल सकें. इस बाज़ार में केवल विवाहित महिलाएं ही दुकान चला सकती हैं. इन महिलाओं का अपना एक संगठन भी है जो ज़रूरत पड़ने पर इन्हें लोन भी देता है.

हम जब यहां पहुंचे तो अंधेरा होने लगा था. बिजली की रोशनी में महिलाओं के उजले चेहरे जगमगा रहे थे. उनके चेहरे में ग़ज़ब का आत्मविश्वास था. हम एक दुकान में बैठ गए जहां एक महिला पकौड़े तल रही थी. चाय के साथ गरम-गरम पकौड़े खाते हुए आस-पास की चहल-पहल को देखना एक अनूठा अनुभव था. महिलाओं ने पारम्परिक फेनेक (एक तरह की लुंगी जिसे शरीर के निचले हिस्से में पहना जाता है) और ऊपर इनेफिस (एक तरह का शॉल) पहना हुआ था. 

चाय-पकौड़े के साथ मुस्कुराहटों का लुत्फ़ उठाने के बाद हम कुछ देर बाज़ार में टहलते रहे. अब बाहर अंधेरा बढ़ने लगा था. औरतों की आवाज़ें पंडालों के बीच ऐसे फैली हुई थी जैसे किसी हरे-भरे जंगल में पंछियों की चहचहाहट पसरी हुई हो. हम उस चहचहाहट को पीछे छोड़ वहां से अपने होटल की तरफ़ लौट आए. 

मणिपुर यात्रा का दूसरा भाग यहां पढ़े

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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